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धर्म-सब कुछ है, कुछ भी नहीं
श्रीमद् तुलसी गणी
आचार्य : श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सम्प्रदाय
( जनवरी सन् १९५० के दिल्ली के 'सर्वधर्म
सम्मेलन के अवसर पर प्रदत्त)
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धर्म-सबकुछ है, कुछ भी नहीं
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' शान्ति और अशान्ति दोनों का पिता मानव है। अन्तजगत् में शान्तिका अविरलं. स्रोत बहता है फिर भी बाहरी वस्तुओंके लुभावने आकर्षणने मानवंका मन खींच लिया। अब वह उनको पानेकी धुनमें फिर रहा है, बस यहीं अशान्तिका जन्म होता है। मानव अपने आपको भूल जाता है, शान्ति भी अपना मुंह छिपा लेती है। आजका मानव कस्तूरीवाले हरिकी भांति शांतिकी खोजमें दौड़-धूपं कर रहा है किन्तु उसे समझना चाहिये कि शान्ति अपने आपमें साध्य और अपने आपमें साधन है। वह कहीं वाह्मजगत्में नहीं रहती और न बाहरी वस्तुओंसे वह मिल भी सकती है। यह धार्मिक सम्मेलन फिर इस तत्त्वको जनताके हृदय तक पहुंचाए, यह मेरी हार्दिक अभिलाषा है। एष्णाका मास बना हुआ मानव सार्वभौम चक्रवर्ती होने पर भी सुखी नहीं होता और सन्तोषी मानव अकिंचन होते हुए भी सुखी रहता है, इससे जाना जाता है कि परिप्रहमें शान्ति नहीं है। भगवान महावीरने कहा है, 'परिग्रह जैसा दूसरा कोई बंधन नहीं।"
संसारी प्राणी सर्वथा अपरिग्रही बन जायं, यह दुरूह कल्पना है फिर भी यदि वे जीवनके साधनोंको कमसे कम करनेकी चेष्टा
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[२ ] कर, संग्रहको अनर्थका मूल मानें तो समझलो कि शान्ति दूर नहीं है। समूचे विश्व पर अधिकार जमानेवाला एक मुहूर्तमात्र भी सुखकी नींद नहीं सोता, प्राणीमात्रको आत्मतुल्य समझनेवाला तृणमात्र भी उद्विग्न नहीं होता-इससे जाना जाता है कि हिंसामें शान्ति नहीं है। इसलिए 'समूचा संसार हमारा मित्र है, किसीके साथ हमारा वैर-विरोध नहीं है' शान्तिप्रिय व्यक्तियोंका यह महामन्त्र होता है। गृहस्थ व्यक्ति भी यदि निष्प्रयोजन हिंसा न करे, दूसरोंके अधिकारोंका अपहरण न करे, तो विश्वशांतिका अन्वेषण ही क्यों करना पड़े ? जो व्यक्ति इन्द्रिय, मन और वाणी पर नियन्त्रण नहीं रख पाते वे ही कलह आदिको जन्म देते हैंइससे जाना जाता है कि असंयममें शांति नहीं है। इसलिए वीतराग वाणीमें अहिंसा, संयम और तपस्याको धर्म बताया गया है। धर्मके बिना-दूसरे शब्दोंमें, अहिंसा, संयम और अपरिग्रहके बिना शांतिका कोई बीज़ नहीं.है। यह घोषित करते हुए मुझे आत्मश्रद्धाका अनुभव हो रहा है। यदि जनता शान्तिका अर्थ जीवनके साधनोंका विस्तार करती है तो उसके लिए धर्म कुछ भी कार्यकर नहीं। वह दिन मानव-जातिके इतिहासमें अपूर्व होगा, जिस दिन धर्मका शुद्ध रूप जनताके ह्रदयमें प्रवेश पाएगा। ___ जहां तक सत्यान्वेषणका प्रश्न है-वहांतक धर्म और विज्ञान के लक्ष्य दो नहीं हैं। मानव जातिका बिकास करना; उसे सुखी बनाना ये लक्ष्य धर्म और विज्ञान के बीच एक भीत खड़ी कर देते हैं। आत्मा और परम लक्ष्य - परमात्म स्वरूप पाना, इनको भुलाकर विज्ञान-जगतने धार्मिक जगत्की कोई हानि नहीं की अपितु विज्ञानको ही अपने आपके लिए अभिशाप बनाया है। यदि इसके साथ आत्मविकास और आत्मसुखका दृष्टिकोण सन्तुलित होता तो वर्तमान संसारका मानचित्र कुछ दूसरा ही दीखता। .
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[ ३ ] इस समय मानव-समाजके सामने जटिल समस्याओंका तांता सा जुड़ा हुआ है-यह सब जानते हैं। अन्न और उसकी कमी, तथा दारिद्रय श्रादि समस्याओंको गिन-गिन कई व्यक्तियोंने सम्भवतः अंगुलियां घिस डालीं। किन्तु मेरी दृष्टि में मानसिक समस्या जैसी जटिल है वैसी जटिल दूसरी कोई भी नहीं है। दूसरी समस्याएँ इसके आधार पर टिकी हुई हैं। मानसिक समस्थाके मिटने पर अन्न, वस, दारिद्रय आदि की समस्याएँ आज सुलझ सकती है। शिक्षामें आध्यात्मिक तत्त्व आ जाय, लोग संयमी पुरुषोंको सबसे महान् समझने लग जाय तो ये सब समस्याएँ उनके कारण अपनी मौत मर जाय-यह मुझे विश्वास है।
पुराने जमानेमें जब संयमको लोग धनसे अधिक मूल्यवान् समझते थे, तब जनतामें संग्रहकी भावना प्रबल नहीं होती थी। हिंसा, परिग्रह आदि जब जनताके जीवन-निर्वाहकी परिधिको लांघकर तृष्णाके क्षेत्रमें आ जाते हैं तब सामूहिक अशान्तिका जन्म होता है। इसलिए धार्मिक पुरुष उनकी इयत्ता करें-सीमा करें और दूसरोंसे करवावें-यही सबके लिए श्रेयस्-मार्ग है। 'अमुक परिमाणसे अधिक हिंसा मत करो, संग्रह मत करो' ऐसा व्यापक प्रचार किया जाय तो धर्मकी छत्रछायामें जगतकी सारी गुत्थियां सुलम जायं, ऐसो मेरी धारणा है। विषयका उपसंहार करते हुए यदि मैं कहूं तो यही कहूंगा कि यदि धर्मका आचरण किया जाय तो वह विश्वको सुखी करनेके लिए सर्वशक्तिमान् है और यदि धर्मका आचरण न किया जाय तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। इसलिए धर्मका अन्वेषण करनेवालोंको आत्मनियन्त्रणका अभ्यास करना चाहिए-इसीसे धर्मकी सफल भाराधना हो सकती है।
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सर्वमस्ति नास्ति किञ्चित्
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शान्तिरशान्तिश्च उभेऽपि मानवनिर्मिते । अन्तर्जगति वहति सततं शान्तेः स्रोतः। तदपि बाह्यवस्तूनां मोहकाकर्षणेन लुब्धा जनाः तदर्जनाय विहितविविधयना विपुलकलेवरामुदभावयन्न शान्तिम्। जाता स्वरूपविस्मृतिः, निलीनश्च मुखं शान्त्याः । कस्तूरिका मृग इव शान्तिमन्विच्छन्नितस्ततो भ्राम्यति बहिरसौ जनः, किन्तु तेनेति बोध्यम्-शान्तिः स्वयं साध्या स्वयश्च साधनम्। न खलु सा क्वापि मनसो बहिस्तिष्ठति, न च बाय पदार्था अपि तत्साधनम्। जायमानानि इमानि धर्मसम्मेलनानि पुनरपि एतत्तत्त्वं लोकानां हृदयङ्गमीकुर्युरिति सततमभिलपे। तृष्णया कवलितः प्रचुरसंपदा प्रभुरपि न सुखमेधते, सन्तुष्टचेता अकिञ्चनोऽपि सुखं जीवतीति परिज्ञायते शान्तिरस्ति अपरिग्रहे। उक्तश्च भगवता महावीरेण-नास्ति परिग्रहसदृशोऽन्यः पाशः प्रतिबन्धो वा प्राणिनाम्। गृहवासिनः सर्वथा स्युरपरिग्रहवतिन इति दुर्वितर्कम्, तथापि ते जीवन निर्वाहसाधनानि स्वल्पात्स्वल्पतराणि कर्तुं प्रयतेरन्, संग्रहं अनर्थमूलश्च मन्येरन्, तद् बोध्यं, नास्ति विश्वशान्तिदरम्। समस्तेऽपि विश्व स्वाधिकारान् उपयुखानो न सुखं निद्राति मुहूर्तमपि, सर्वभूतेषु आत्मौपम्यं चेतो निदधत् नोद्विजते क्षणमपीति सम्बुध्यते शान्तिरस्ति अहिंसायाम् । अतएव "मित्ती मे सव्व भूएसु, वैरं ममं न केणई" इति भवति
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[ २ ] शान्तिप्रियाणां महामन्त्रः। गृहस्था अपि अनर्थदण्डं न प्रयुञ्जीरन्, परेषामधिकारान् स्वीकर्तुं न प्रवर्तेरन्, तत्कुतोऽन्वेषणीया विश्वशान्तिः । अनियन्त्रितेन्द्रियविषया, उच्छृङ्खलवाचः, असंयतमनसो हि जना कलहादिकं प्रसुवते इति सुबोध्यं भवति शान्तिरस्ति संयमे। ___ अतएव वीतरागवाण्याम्-"धम्मो मंगलमुकि? अहिंसा संजमो तवो” इति स्वरूपं निश्चितमभूदु धर्मस्य । अहिंसाऽपरिग्रह संयमात्मकं धर्ममन्तरा नात्यन्यच्छान्ते/जं किञ्चिदिति स्पष्ट मुद्घोषयितुं शक्यम् । यदि च लोका जीवननिर्वाहसाधनानां विस्तारमेव शान्ति मन्वते तन्न तदर्थ धर्मः किञ्चित्करः। धर्मस्य तत्त्वं हृदयङ्गतं भविष्यति तहिनं मानव जातेरितिहासे .अपूर्व भावि। .. .." यावत्पर्यन्तं विज्ञानस्य सत्यान्वेषणस्य प्रश्नोऽस्ति तावद् न तल्लक्ष्य दृष्ट्या धर्मतो द्वततामेति, किन्तु विकासलक्ष्ये सुखीकरणलक्ष्ये च इदमर्हति धर्मतो द्वधम् । चेतनतत्त्वमुपेक्ष्य परं लक्ष्यं च गौणीकृत्य विज्ञानजगता न धोर्मिकजगतः काचन हानिःकृता, अपितु विज्ञानं खस्मिन्नेव अभिशापरूपमकारि कामम् । यद्यतेन सह आत्मविकासस्य, आत्मसुखस्य वा दृष्टिकोणः संपृक्तोऽभविष्यत् तात् साम्प्रतिकजगतश्चित्रमपि किश्चिदन्यदेवाभविष्यत् । - इदानीं जनानां संमुखे विविधा जटिलातिजटिलाः सन्ति समस्या इति स्वयं गम्यम् । तासु लोका अन्नवस्त्राल्पत्वस्य दारिद्रयादोनाञ्च परिगणनमपि रचयन्ति यथावकाशम्। किन्तु मम दृष्टौ मानसिकी समस्या यादृशी जटिलास्ति तादृशी नान्या काचन परिलोक्यते । अन्यासामस्तित्वमस्ति तत्सत्तायामेव, अन्यथा स्युस्ताः सर्वा विलीनाः। यदि शिक्षायामाध्यात्मिकतत्त्वं प्रविशेत जनानां दृष्टौ संयमिन एव सर्वप्रधानाः स्युस्तद् विश्वसिमि किल
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अल्पीयसापि काले न समस्याहेतुभूतानि क्रूरत्वसंग्रहममत्त्वादीनि खमृत्युना म्रियेरन्। प्रागवर्तिनि समये लोका नाधिकं संग्रहादिपरा अभूवन् तत्कारणं तदानी प्रवृत्त संयममाहात्म्यमेव । __ हिंसापरिग्रहादयो जीवननिर्वाहपरिधिमतिक्रम्य सृष्णाक्षेत्रे विहरन्ति तदा आसादयति जन्म सामूहिकी अशान्तिः। तेन धार्मिकाः तेषामियत्तां कुर्यः, कारयेयुरित्यस्ति सर्वतो भद्रःपन्थाः । निर्दिष्टपरिमाणादुपरि हिंसा न कार्या, संग्रहो न कार्यः, मन्ये एतादृश व्यापकप्रचारेण धर्मस्य छत्रच्छायायां जगत्समस्या स्यात् स्वयं मुक्तप्रन्थिः । उपसंहरन्नन्ते संक्षेपेण यदि वच्मि तद् वक्ष्यामीति यत् यदि धर्मस्य आचरणं तत् स विश्वं सुखयितुं सर्वशक्तिमान्, यदि मास्ति तदाचरणं तन्नास्ति स किमपि कर्तुमर्हः । तेन धर्मान्वेषणार्थ प्रयतमानैरात्मनियन्त्रणार्थ प्रयतनीयमिति भवेत् सुफला धर्माराधना।
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