Book Title: Chotrish Atishay Stavan
Author(s): Mahabodhivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्ह मुनि विरचित चोत्रीस अतिशय स्तवन सं. : पं० महाबोधि विजय श्री कान्हमुनि रचित चोत्रीस अतिशयस्तवननी प्रस्तुत कृति आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर-कोबाना सौजन्यथी प्राप्त थई छे. कृतिनो क्रमांक छे... ९५७२ वि.सं. १६५२, श्रावण सुद १५ना गुरुवारे जेसलमेर मध्ये आ कृतिनी रचना थई छे. रचयिता श्रीकान्हमुनि कया गच्छना के कया सम्प्रदायना छे ते कृतिना आधारे अनेक पट्टावलीओनुं बारीकाईथी अवलोकन करता एवं अनुमान करी शकाय छे : कर्ता लोंकागच्छ परम्पराना छे.१ प्रशस्तिमां सूचवेला जीवर्षि तेओ श्रीरूपजीना शिष्य छे. (जन्म: १५५०, दीक्षा १५७८, स्वर्गवासः १६१३) श्री जीवर्षिना अनेक शिष्यो हता. एमांना एक छे श्रीमल्लगणिवर. (दीक्षा १६०६, स्वर्गवास : १६६६) अमना शिष्य एटले प्रस्तुत कृतिना रचयिता श्रीकान्हमुनि. कान्हमुनि माटे विशेष माहिती प्रयत्न करवा छतां मळी शकी नथी. प्रस्तुत कृतिमां श्री जिनेश्वर परमात्माना ३४ अतिशयोनुं ढूंकमां पण सुन्दर वर्णन छे. आ कृतिनुं अध्ययन करता जे केटलांक तारणो नीकळे छे, ते नीचे मुजब छे : (१) प्रस्तुत कृतिनी रचना श्रीसमवायांग सूत्रना आधारे थई छे. (२) समवायांग सूत्रमा बतावेला अतिशयोना क्रम करता अहीं थोडो फरक छे. (३) आ कृतिमा ३४ अतिशयोनी त्रण विभागमां वहेंचणी (जन्मथी ४, कर्मक्षयथी १५, देवकृत १५) समवायांग सूत्रनी श्री अभयदेवसूरि रचित १. जीवर्षिगणि अने मल्लगणिवर- आ बे नामगत 'गणि' शब्द, कर्ता मूर्ति पूजक परम्पराना साधु होय तेवो संकेत आषी जाय छे. १७मा शतकमां तपगच्छ सहित विविध परम्पराओमां 'जीवषि' एवां नामो साधुओनां हता. पट्टावलीओमां वधु तपास करवी घटे. लोकागच्छमां पण एक फांटो मूर्तिमार्गने स्वीकारतो हतो, ते पण ख्यालमां राखवानुं छे. शी. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 अनुसन्धान ३५ टीकाना आधारे करवामां आवी छे. (४) प्रसिद्ध ऋषिभाषित, प्रवचन सारोद्धार, वीतरागस्तोत्र, अभिधान चिन्तामणि नाममाला, योगशास्त्र वगेरे श्वेताम्बरमूर्तिपूजक परम्पराना ग्रन्थोमां अतिशयोनी वहेंचणी आ मुजब छे : (जन्मथी ४, कर्मक्षयथी ११, देवकृत १९) (५) एटलुं ज नहि, उपरोक्त ग्रन्थोमां समवायांग सूत्रमा बतावेला अतिशयो करता केटलाक अतिशयोमा फरक पण जोवा मळे छे. श्री कान्हमुनिविरचित चोत्रीश अतिशयस्तवन पाय वंदिओ रे श्री महावीर जगतगुरु, जेणे भाख्यो रे आगम अनोपम सुखकरु; तिहां चोथे रे समवाय अंगे जाणीओ, बुधि अतिशय रे विवरी तिहां वखाणीओ. वखाणीले चोत्रीश अतिशय, जन्मथी धुर चार ; रोगरहित शरीर निर्मल, तेहमांहे एक सार ओ. गोखीर सम सित मांस-शोणित, बीजो अतिशय ए कह्यो; वर कमल गंध समान, सास-उसास त्रीजे ए लह्यो..... ॥१॥ मंसचा रे आहारनिहार न देखीई, एह अतिशय रे चोथे आगम पेखीई; घनघाति रे कर्मक्षय ते उपजे, ते पनर रे अतिशय जिनवरने भजे. जे भजे जिनसिरपीठ भागे, भामंडल अति दीपतो; ए पनरमांहि एक अतिशय, प्रभा दिनकर जीपतो. एक जोयण अमृतवाणी पसरई, बीजो ए अतिशय धरइ; अर्धमागधी वाणी त्रीजे, सकल संशय अपहरइ..... ॥२॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 51 जिनवाणी रे आरिज अनारज मृगपशु, खग-दुपद रे-चउपद प्रीछइ हरखशं; ए चोथे रे पंचमि सुरनर ने तिरी, प्रभुदेसण रे निसुणी मित्रभावे धरी. जे धरीय भाव नमंति वादी, छठ्ठी अतिशय ए सही; सातमे वाद करे जे के ते, जाय मान रहित थइ. ईतिनो भय आठमे नहि, जोयण तिहां पचवीश ओ; मारिनो भय नवमे टलि; संचरइ तिहां जगदीश ए..... ॥३॥ वली दसमे रे भय सचक्रनो नहि कदा, परचकर रे एकांदशमे नवि सदा; अतिवुठी रे होय नहि तिहां बारमे, वली जाणो रे अणावुट्ठी नहि तेरमे. तेरमो अतिशय एह बोल्यो, नहि दुर्भिक्ष चौदमे; शोणितवृष्टि प्रमुखने रोगा, वेग उपशम पन्नरमे. ए आठमाथी पनरमा लगी, सवि जोयण पणवीस ; देवकृत हवे पनर सुणिज्यो, कह्या जिम जगदीश अ..... ॥४॥ ढाल बीजी-उलालारी केश-मांस-नख-रोम सवि नवि वाधइ एक, धर्मचक आकाश रहइ बीजो सविवेक; त्रण छत्र गयणंगणे ए बीजो सोहे, चामर सेत सोहामणो मे चोथो मन मोहे..... ॥१॥ स्फटिक सिंहासन पादपीठ सम पंचम सार, छठे इन्द्रध्वज भलो ए ते अतिही उदार; सहस पताका परिवर्यो ए सुंदर सजगीस, दिव्यप्रभाव सदैव जिहां विचरे जगदीश..... ॥२॥ तरु अशोकवर सातमे अ, ओ उत्तम नाम, छत्र पताका धजा सहित घंटा अभिराम; Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 अनुसन्धान 35 पत्र पुष्प पल्लव करीय अतिशोभे जेह, श्रीजिनवर बइसी रहे तिहां दीसे तेह..... // 3 // आठमे वर समभूमिभाग रमणिक सुहावइ, नवमे कंटक तणा अणी उपराठा थावइ; रितु विपरीति सवे हवे ओ सखकारी दसमे. शितल वायु सुगंध फरस तिहां एकारशमे..... // 4|| गंधोदकघन बारसमे रजरेणु समावे, तेरसमे वरकुसुमवरण पांचे म[न] भावे; बिंट अठाइ सुरभिगंध सवि जाणु प्रमाण, तेह तणो उपचार करे तिहां किण(कने) सुरठाण..... ||5|| सद्द फरस-रस-रूप-गंध अनिष्ट अकांत, चौदमे अतिशय उपसमे ओ वरते अविभांत, सद्द फरस-रस-रूप-गंध अतिकंत उदार; प्रगट थाय जिणवर कहे अ पनरमे सार..... // 6 // जन्म थकी धुरि चार होवे पन्नर कर्म टाली, देवतणा कृत पन्नर शुद्ध तप-संजम-पाली; ओ अतिशय चोत्रीश सवे जिननायक केरा; भणता-गुणता सयल रिधि सुख लहे भलेरा..... |7|| कळश श्रीजीवरिषिगणि हस्तदीक्षित सकल बुद्धिनिधान मे, श्रीमल्लगणिवर गुणे अधिका सुमति गुपति परधान ओ..... // 1 // तस चरणसेवक कान्हमुनि सुदि श्रावण पुनिम सार अ, संवत सोलहबावने शोभतो दिन गुरुवार अ..... // 2 // जिनराजना अतिशय थुण्या गढ जेसलमेर मजार ओ भणो भवियण हरखशुं सवि संघ जयजयकार अ..... // 3 // // चोत्रीश अतिशयं स्तवनम् // . C/o. किरीट ग्राफिक्स रतन पोळ, अमदावाद-३८०००१