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स्वर्गीय गणिवर्य बुद्धिमुनिजी
[अगरचन्द नाहटा ]
जैन धर्म के अनुसार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही आपके पिता का स्वर्गवास आपके बचपन में ही हो गया मोक्षमार्ग है। जो व्यक्ति अपने जीवन में इस रत्नत्रयी की था और आपकी माता ने भी अपना अन्तिम समय जान कर जितने परिमाण से आराधना करता है वह उतना ही मोक्ष इन्हें एक मठाधीश-महंत को सौंप दिया था, वहां रहते के समीप पहुंचता है, मानव जीवन का उद्देश्य या चरम समय सुयोगवश पन्यास श्री केसरमुनिजी का सत्समागम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना ही है। मनुष्य के सिवा कोई भी आपको मिला और जैन मुनि की दीक्षा लेने की भावना अन्य प्राणी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये मनुष्य जाग्रत हुई । पन्यासजी के साथ पैदल चलते हुए लूणी जंकजीवन को पाकर जो भी व्यक्ति उपरोक्त रत्नत्रयो की शन के पास जब आप आये तो सं० १९६३ में ६ वर्ष की आराधना में लग जाता है उसी का जीवन धन्य है, यद्यपि छोटी सी आयु में ही आप दीक्षित हो गये आपका जन्म इस पंचम काल में इस क्षेत्र से सीधे मोक्ष की प्राप्ति नहीं नाम नवल था, अब आपका दीक्षा नाम बुद्धिमुनि होती, फिर भी अनन्तकाल के भव-म्रमण को बहुत ही रखा गया वास्तव में यह नाम पूर्ण सार्थक हुआ आपने सीमित किया जा सकता है। यावत् साधना सही और अपनी बुद्धि का विकास करके ज्ञान और चारित्र की अद्भुत उच्चस्तर की हो तो भवान्तर (दूसरे भव में) भी मोक्ष आराधना की। थोड़े वर्षों में ही आप अच्छे विद्वान हो गये प्राप्त हो सकता है। चाहिये संयमनिष्ठा और निरंतर और अपने गुरुश्री को ज्ञान सेवा में सहयोग देने लगे। सम्यक्साधना । यहां ऐसे ही एक संयमनिष्ठ मुनि महाराज तत्कालीन आचार्य जिनयशःसूरिजी और अपने गुरु का परिचय दिया जा रहा है जिन्होंने अपने जीवन में केसरमुनिजी के साथ सम्मेतशिखरजी की यात्रा करके रत्नत्रयी की आराधना बहुत ही अच्छे रूप में की है, कई आप महावीर निर्वाण-भूमि-पावापुरी में पधारे आचार्यश्री व्यक्ति ज्ञान तो काफी प्राप्त कर लेते हैं पर ज्ञान का फल का चतुर्मास वहीं हुआ और ५३ उपवास करके वे वहीं विरति है उसे प्राप्त नहीं कर पाते और जब तक ज्ञान के स्वर्गवासी हो गये, तदनन्तर अनेक स्थानों में विचरते हए अनुसार क्रिया-चारित्र का विकास नहीं किया जाय वहां आप गुरुश्री के साथ सूरत पधारे, वहां गुरुश्री अस्वस्थ तक मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता-- 'ज्ञान क्रियाभ्यां हो गये और बम्बई जाकर चतुर्मास किया उसो चातुर्मास मोक्षः । गणिवर्य बुद्धिमुनिजी के जीवन में ज्ञान और चारित्र में कार्तिक शुक्ला ६ को पूज्य केसरमुनिजी का स्वर्गवास इन दोनों का अद्भुत सुमेल हो गया था यह विशेष रूप से हो गया। करीब २० वर्ष तक आपने गुरुश्री को सेवा में उल्लेखनीय है।
रहकर ज्ञानवृद्धि और संयम और तप-जो मुनि-जीवन के आपका जन्म जोधपुर प्रदेशान्तर्गत गंगाणी तीर्थ के दो विशिष्ट गुण हैं-में आपने अपना जीवन लगा दिया समीपवर्ती बिलारे गांव में हुआ था। चौधरी (जाट) वंश आभ्यंतर तप के ६ भेदों में वैयावृत्य सेवा में आपकी बड़ी में जन्म लेकर भी संयोगवश आपने जैन-दीक्षा ग्रहण की। रुचि थो, आपके गुरुश्री के भ्राता पूर्णमुनिजी के शरीर में
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एक भयंकर फोड़ा हो गया उससे मवाद निकलता था स्थ रहने लगे. फिर भी ज्ञान और संयम की आराधना में और उसमें कीड़े पड़ गये थे दुर्गन्ध के कारण कोई आदमी निरन्तर लगे रहते थे । पास भी बैठ नहीं पाता था, पर आपने ६ महीनों तक
कदम्बगिरि के संघ में सम्मिलित होकर सौभागचन्दजी अपने हाथों से उसे धोने मल्हमपट्टी करने आदि का काम
मेहता को आपने संघपति की माला पहनाई और तदनन्तर सहर्ष किया। इससे पूर्णमुनिजी को बहुत शाता पहुँची,
उपाध्यायजी की आज्ञानुसार अस्वस्थ होते हुए भी भुजवे स्वस्थ हो गये।
कच्छ के सम्भवनाथ जिनालय की अंजनशलाका और आगमों का अध्ययन करने के लिए आपने सम्पूर्ण प्रतिष्ठा उपाध्यायजी के सान्निध्य में करवाई फिर पालोआगमों का योगोद्वहन किया। इसके बाद सं० १९६५ में ताना पधारे और सिद्धगिरि पर स्थित दादाजी के चरणसिद्धक्षेत्र पालीताना में आचार्य श्रोजिनरत्नसूरिजी ने आपको पादुकाओं की प्रतिष्ठा और श्रीजिनदत्तसूरि सेवा संघ के गणिपद से विभूषित किया।
अधिवेशन में सम्मिलित हुए। वहां श्रीगुलाबमुनिजी काफी
दिनों से अस्वस्थ थे। आपने उनकी सेवामें कोई कसर नहीं मारवाड़, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र और पूर्व प्रदेश तक
रखी, पर उनकी आयुष्य की समाप्ति का अवसर आ चुका में आप निरंतर विचरते रहे। कच्छ और मारवाड़ में तो
था, अतः सं० २०१७ वैसाख सुदि १० महावीर केवलज्ञान आपने कई मन्दिरमूर्तियों एवं पादुकाओं की प्रतिष्ठा भो करवायी। श्रीजिनरत्नसूरिजी की आज्ञा से भुज में दादा
तिथि के दिन गुलाबमुनिजी स्वर्गस्थ हो गये। जिनदत्तसूरिजी की मूर्ति एवं अन्य पादुकाओं को प्रतिष्ठा आपका स्वास्थ्य पहले से हो नरम चल रहा था और बड़ी धूमधाम से करवाई। वहाँ से मारवाड़ के चूड़ा ग्राम में काफी अशक्ति आ गई थी। तलहट्टो तक जाने में भी आकर जिनप्रतिमा, नूतन दादावाड़ी और जिनदत्तसूरिजी आप थकजाते थे। पर सं० २०१८ के मिगसर से स्वास्थ्य को मूर्ति-प्रतिष्ठा करवाई । चूडा चातुर्मास के समय ही और भी गिरने लगा और वेद्यों के दवा से भी कोई फायदा आपको जिनरत्नसूरिजी के स्वर्गवास का समाचार मिला नहीं हुआ तो आप को डोली में विहार करके हवापानी आचार्यश्री को अन्तिम आज्ञानुसार आपने जिनऋद्धिसूरिजो बदलने के लिए अन्यत्र चलने को कहा गया । पर आपने के शिष्य गुलाबमुनिजी को सेवा के लिए बम्बई की ओर यही कहा कि मैं डोली में बैठकर कभी विहार नहीं करूंगा विहार किया और उनको अंतिम समय तक अपने साथ रख फाल्गुन महीने से ज्वर भी काफी रहने लगा और वैद्यों ने कर उनकी खूब सेवा की, उनके साथ गिरनार, पालीताना आपको श्रम करने का मना कर दिया। पर आप ज्वर में आदि तीर्थों की यात्रा को । इसी बीच उपाध्याय लब्धि- भी अपने अधूरे कामों को पूरा करने-लिखने आदि में लगे मुनिजी का दर्शन एवं सेवा करने के लिये आप कच्छ पधारे रहते थे। चिकित्सक को आपने यही उत्तर दिया कि यह
और वहाँ मंजलग्नाम में नये मन्दिर और दादावाड़ी की तो मेरी रुचि का विषय है, लिखना बन्द कर देने पर तो प्रतिष्ठा उपाध्यायजी के सान्निध्य में करवाई, इसी तरह और भी बीमार पड़ जाऊँगा । वैद्यों की दवा में लाभ अंजार (कच्छ) के शान्तिनाथ जिनालय के ध्वजादंड एवं होता न देखकर आपसे डाक्टरी इलाज करने का अनुरोध गुरुमूर्ति आदि की प्रतिष्ठा करवाई। वहां से विचरते हुये किया गया, तो आपने कहा कि मैं कोई डाक्ट्री दवा-इजेपालीताना पधारे अशाता वेदनीय के उदय से आप अस्व- क्शन-मिक्सचर आदि नहीं लूंगा। तुम लोग आग्रह करते
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________________ होतो फिर सूखी दवा ले सकता हूं। दो तीन महीने दवा सुव्यवस्था की, सूची बनाई / आप जो काम स्वयं कर ली भी, पर कोई फायदा नहीं हुआ। तब श्रीप्रतापमलजी सकते थे, दूसरों से न हो करवाते थे। श्रावक समाज का सेठिया और अरचतलाल शिवलाल ने बम्बई से एक कुशल थोड़ा-सा भी पैसा बरबाद न हो और साध्वाचार में तनिक वैद्य को भेजा। पर अशाता वेदनीय कर्मोदय से कोई भी भी दूषण न लगे इसका आप पूर्ण ध्यान रखते थे। अनेक दवा लागू नहीं पड़ी। आप अपने शिष्यों को हित की ग्रन्थों का सम्पादन एवं संशोधन बड़े परिश्रम पूर्वक शिक्षा देते रहते थे। शिष्यों ने कहा कि कल्प सूत्र के गुजराती आपने किया था। खरतरगच्छ गुर्वावली के हिंदी अनु प्रत्युत्तर में आपने कहा- इसको चिन्ता मत करो, जहां के शब्द व भाव को ठीक से समझ कर पंक्ति पंक्ति का तक वह पूरा नहीं होगा, मेरी मृत्यु नहीं होगी। आपका संशोधन किया। आपके सम्पादित एवं संशोधित ग्रन्थों दृढ़ निश्चय और भविष्यवाणी सफल हुई और आपके स्वर्ग- में प्रश्नोत्तरमञ्जरी, पिंडविशुद्धि, नवतत्व संवेदन, चातुर्मावास के दो-तीन दिन पहले ही कल्पसूत्र छप कर आ गया सिक व्याख्यान पद्धति, प्रतिक्रमण हेतुगर्भ, कल्पसूत्र संस्कृत और उसे दिखाने पर आपने उसे मस्तक से लगाया, ऐसी टीका, आत्मप्रबोध, पुष्पमाला लघुवृत्ति आदि प्राकृतआपकी अपूर्व ज्ञान-भक्ति थी। संस्कृत ग्रन्थों का तथा जिनकुशलसूरि, मणिधारी जिन___ श्रावण सुदी पंचमी से आपकी तबियत ओर भी चन्द्रसूरि, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि आदि ग्रन्थों के गुजराती बिगड़ने लगो पर आप पूर्ण शांति के साथ उत्तराध्ययन, व्ययन, अनुवाद के संशोधन में आपने काफी श्रम किया। सूत्रपदमावती सज्झाय, प्रभंजना व पंचभावना की सज्झाय कृतांग सूत्र भाग 1-2 द्वादशपर्वकथा के अतिरिक्त जयसो ठंडा पड़ने लगा। उस समय भी आपने कहा- मुझे एवं गुजराती अनुवाद बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस अन्य जल्दी प्रतिक्रमण कराओ। प्रतिक्रमण के बाद नवकार के सम्पादन के द्वारा आपने खरतरगच्छ की महान् सेवा मंत्र की अखण्ड धुन चालू हो गयी। सबसे क्षमापना की है। आपने और भी कई छोटे मोटे ग्रन्थों का सम्पाकर ली। दूसरे दिन साढ़े तीन बजे आपने कहा मुझे दन एवं संशोधन नाम और यश की कामना रहित होकर बैठाओ ! पर एक मिनट से अधिक न बैठ सके और नवकार किया। ऐसे महान मुनिवर्य का अभाव बहुत ही खटकता मन्त्र का स्मरण करते हुए श्रावण शुक्ल अष्टमी पाश्वनाथ है। श्री जयानंदमनिजी आदि आपके शिष्यों से भी आशा मोक्ष कल्याणक के दिन स्वर्गवासो हो गये। है, अपने गुरुदेव का अनुकरण कर गच्छ एवं शासन को की प्रशंसा स्वगच्छ और परगच्छ के सभी लोग मुक्त कण्ठ स्वर्गीय गणिवर्य को श्रीमदेवचन्द्रजी की रचनाओं से करते थे। ज्ञानोपासना भी आपकी निरन्तर चलती के स्वाध्याय एवं प्रचार में विशेष रुचि थी। कई वर्ष रहती थी। एक मिनट का समय भी व्यर्थ खोना आपको पूर्व श्रीमद् देवचन्द्रजी को अप्रसिद्ध रचनाओं का संकलन करके एक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी। जिस रहस्य बहुत ही अखरता था। साध्वोचित क्रियाकलाप करने को श्रीमद् देवचन्दजी ने अपूर्व शैली द्वारा प्रकाशितकिया है, के अतिरिक्त जो भी समय बचता था; आप ज्ञान सेवा में पूज्य बुद्धिमुनिजी का जीवन बहुत कुछ उन्हीं आदर्शों से लगाते थे। इसीलिए आपने कई ज्ञानभन्डारों की ओतप्रोत था।