Book Title: Bramhacharya Tapotamam
Author(s): Yatindrasuri
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211478/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय स्वर्णयुग के पावन प्रभात की प्रथम किरण ने जब वसुन्धरा के अंचल को अपनी चित्र-विचित्र रेखाओं से अलंकृत किया, तो उसके आलोक से आलोकित होकर परमोच्च पदासीन अमरराज ने भी अपने देवताओं सहित स्वनामधन्य पुण्यप्रधान इस भारत देश की मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी। उस समय हमारा यह देश कितना महत्त्वशाली एवं समृद्धि - वैभव वाला होगा, यह कल्पनातीत है? निम्नांकित पद्य से आज भी हम इस कथन को सत्य के अत्यधिक समीप पाते हैं। गायन्ति देवाः किल गीतकानि, धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे । स्वर्गापवर्गस्य च हेतुभूते, भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्॥ ब्रह्मचर्य तपोत्तमम् वस्तुत: है भी यह ऐसा ही देश, जिसकी प्रशंसा में देवता त गाकर यह कहें कि स्वर्गापवर्ग को प्रदान करने वाली इस भारतभूमि में वे ही धन्य हैं, जो देवता से पुनः पुरुष हो, इस भूमि पर निवास करते हैं। इसकी महत्ता का एकमात्र कारण यही था कि हमारे देश के उस गौरव - गरिमामय वैभव - विकास के काश्रयभूत परम स्वार्थत्यागी एवं त्रिकालदर्शी मुनि, महर्षि तथा महात्माओं ने सामाजिक जीवन को नियमबद्ध करने, ईश्वरीय सत्ता को स्थिर रखने तथा मानवीय सृष्टि को कुमार्गगामिनी होने से बचाने के उद्देश्य से अनेकानेक शास्त्रों की रचना के साथ वे अमूल्य, उच्च तथा स्वाभाविक विधान निर्मित किए जिनका अनुकरण कर हमारा यह देश सहज ही में वह गौरवमय परमोच्चपद प्राप्त कर सकता था । प्राचीन महर्षियों के प्रणीत सत्सैद्धान्तिक विधानों में ब्रह्मचर्य को प्रथम और सर्वश्रेष्ठ स्थान मिला। संसार की प्राथमिक अवस्था में यह उनकी अपूर्व योग्यता थी, जिसके फलस्वरूप कई शताब्दियों तक ब्रह्मचर्य-प्रथा का प्रचार धार्मिक प से भारत में ही नहीं समस्त भूमंडल में उत्तरोत्तर बढ़ता ही और ब्रह्मचर्यव्रतधारी तपोनिष्ठ भारत के गुरुतम गौरव को बाते रहे। अतएव यह निर्विवाद सिद्ध है कि भारत देश के भरतीय गौरव का मूलतत्त्व ही ब्रह्मचर्य है । इसके महिमाशाली के परमपूज्य व्याख्यानवाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज..... माहात्म्य से आज कई शास्त्र भरे पड़े हैं, उन्होंने एक स्वर से इसकी प्रशंसा कर अपनी शास्त्रीय सार्थकता सम्पादित की है। ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है कायेन मनसा वाचा, सर्वावस्थासु सर्वदा । सर्वत्र मैथुनत्यागो, ब्रह्मचर्यं प्रचक्षते ॥ शरीर, मन और वचन से सब आस्थाओं में सर्वदा और सर्वत्र मैथुन - (संभोग) - त्याग को ब्रह्मचर्य कहते हैं । उपर्युक्त मत से कायिक मानसिक और वाचिक ये तीन प्रकार के ब्रह्मचर्य होते हैं। इन तीनों से ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण ब्रह्मचारी होने योग्य हैं। विविध ब्रह्मचर्य में मानसिक ब्रह्मचर्य ही सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि इसका पालन करने पर कायिक और वाचिक ब्रह्मचर्य का स्वभावतः पालन हो जाता है। प्रायः बहुत से मनुष्य मनोविज्ञान का महत्त्व न जानकर मानसिक ब्रह्मचर्य की अवहेलना करते हैं। वे वास्तव में मूर्खता करते हैं। उन्हें यह मालूम नहीं कि मन की प्रेरणा से ही पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ प्रवृत्ति करती हैं। कहा गया भी है यन्मनसा मनुते तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत्कर्मणा करोति, यत्कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते। - जिसका मन में चिंतन किया जाता है, वही वाणी से निकलता है। जो कुछ वाणी से निकलता है, वही कर्म किया जाता है और जैसा कुछ कर्म किया जाता है वैसा उसका फल भी मिलता है। अतः मन की स्पष्ट रूप से प्रधानता सिद्ध है । जो मनुष्य मन पर अधिकार नहीं कर सकता। वह किसी भी प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। गीता में कहा भी गया है कि 'मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।' जिसकी मनः साधना सिद्ध हो गई, वह दूसरे विषयों पर सहज ही अधिकार कर सकता है। अतः मानसिक ब्रह्मचर्य का पालन करना सर्वश्रेष्ठ है । एक पौराणिक शिक्षाप्रद कथा भी है MERGING & James For Private Personal Use Only GAMGAMB Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार किसी समय ब्रह्माजी तपोवन में तपस्या कर रहे थे। तपस्या जिन अज्ञानियों का यह मन्तव्य है कि "अपुत्रस्य गति स्ति, करते-करते उन्हें लगभग ३०० वर्ष बीत गए। यह देखकर इंद्र स्वर्ग नैव च नैव च" अर्थात पुत्ररहित पुरुष को मुक्ति नहीं को अत्यंत भय पैदा हुआ कि ऐसा न हो कि इनकी तपस्या मिलती। और स्वर्ग तो उसे कभी मिल ही नहीं सकता। यह सिद्ध होने पर मेरे इंद्रासन की मर्यादा लुप्त हो जाए? अतः इन्द्र ने कथन केवल अज्ञानमूलक है, क्योंकि प्राचीन समय में अनेक तिलोत्तमा अप्सरा को तपोभंग करने के लिए ब्रह्माजी के पास महर्षि, हनुमान, भीष्म पितामह आदि के पुत्र नहीं थे, परन्तु वे भेजा। उसने तपोवन में आकर अपने आकर्षक हाव-भाव तथा मुक्तिगामी हुए हैं। उन्होंने अखण्ड ब्रह्मचर्य का परिपालन करके कटाक्षों द्वारा ब्रह्माजी पर अपना जादू डाला और उसका ऐसा मुक्ति प्राप्ति की है। पौराणिक कथन भी है कि 'स्वर्गं गच्छन्ति असर हुआ कि ब्रह्माजी अपने आपको अधिक न सँभाल सके। ते सर्वे, ये केचिद् ब्रह्माचारिणः' जो पूर्ण ब्रह्मचारी हैं वे सभी स्वर्ग अप्सरा जिस ओर अपने पाँव रखती, ब्रह्माजी उसी ओर वासनापूर्ण में जाते हैं, उनमें कतिपय में मोक्ष भी प्राप्त करते हैं। कामदृष्टि से टकटकी लगाकर निहारते रहे। अप्सरा थोड़े ही पत्रप्राप्ति होने से ही कोई मनष्य मोक्षाधिकारी या समय में इंद्र के पास लौट आई और ब्रह्माजी अपनी मानसिक स्वर्गाधिकारी नहीं बन सकता। पुत्र यदि असदाचारी और लम्पट विह्वलता से यों ही तरसते रहे, वे अपनी तीन हजार वर्ष तक हुआ तो उसकी चिंता से पिता के उभय लोक बिगड़ जाते हैं। की हुई तपस्या के फल से क्षण भर में हाथ धो बैठे। इसलिए वह इस लोक में अशुभ गतियों का पात्र बन जाता है। इसी प्रकार सर्वप्रथम कायिक और वाचिक ब्रह्मचर्य के मूलभूत मानसिक व्याभिचारी का पुत्र कभी सुयोग्य और सदाचारी नहीं बन सकता। ब्रह्मचर्य का पालन करना उचित एवं हितकर है। ब्रह्मचर्य के । वह अपने कुत्सित आचरणों द्वारा अपने विशुद्ध कुल को भी भेदोपभेद जानकर उसके महत्त्वतथा प्रभाव की ओर ध्यान देना कलंकित किए बिना नहीं रहता। ब्रह्माचारी के पुत्र प्रतापी 'सदाचारी अनुचित एवं अप्रासंगिक न होगा। और सदुपदेशशील होते हैं। किंवदन्ती भी है कि पारस के प्रसंग ब्रह्मचर्य की महिमा अपार है, वाणी या लेखनी से उसका से लोहा सोना बन जाता। अखण्ड ब्रह्मचारी पारस के समान है। वर्णन करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। ब्रह्मचर्य वह जिसके संसर्ग में अबोध व्यक्ति भी सुवर्ण सदृश गुणवान और उग्रव्रत है, जिसकी साधना से मनुष्य नर से नारायण (परमात्मा) जनपूज्य बन जाता है। ब्रह्मचर्य में कितनी शक्ति है? यह अब बनता है और वह सबका पूज्य होता है। भलीभाँति समझ में आ सकता है। आचार्य देवश्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज लिखते हैं ब्रह्मचर्य का पालन साधु, मुनि या संन्यासी ही कर सकता चिरायुषः सुसंस्थानां दृढ़संहनना नराः। है, गृहस्थ नहीं' ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है। ब्रह्मचर्य तो साधु तेजस्विनो महावीर्याः भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः। और गृहस्थ दोनों का अमूल्य अलंकार है। केवल योग्यता और प्राणभूतं चरित्रस्य परब्रहैक कारणम्। शक्ति के तारतम्य का ध्यान रखते हुए गृहस्थ एवं साधु की समाचरन् ब्रह्मचर्यं पूजितैरपि पूज्यते॥ ब्रह्मचर्य-मर्यादा में कुछ भेद है। गृहस्थ को अपनी विवाहिता जो मनुष्य विधिवत् ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वे चिरायु, पत्नी के अतिरिक्त संसार की अन्य समस्त महिलाओं को माता सुंदर शरीर, दृढ़संहननी, तेजस्वितापूर्ण और बडे पराक्रमी होते व भगिनी की दृष्टि से देखना चाहिए। स्त्री-प्रसंग करते समय भी हैं। ब्रह्मचर्य सच्चरित्रता का प्राणस्वरूप है और परब्रह्मप्राप्ति ऋतुकालाभिगामा हाकर अपना मयादा का ध्यान रखना चाहिए। का मुख्य कारण है। इसका पालन करता हुआ मनुष्य पूज्य जो गृहस्थ त्रिधा (मन, वचन और काया) योग से अखण्ड लोगों के द्वारा भी पूजा जाता है। ब्रह्मर्य का पालन करते हैं और कभी भी किसी प्रकार से इस प्रकार कई महर्षि, मुनि और शास्त्रों ने ब्रह्मचर्य की। विकाराधीन नहीं होते, उनका यह व्रत असिधाराव्रत कहलाता महिमा गाई है और इसकी साधना से अमोघ सिद्धियाँ प्राप्त की है। दिनकरी टीकाकार ने लिखा है कि एकस्यामेव शय्यायां मध्ये हैं। यहाँ तक कि अनन्त सुखमय मोक्षपद भी इसी से मिलता है। खड्गं विधाय स्त्री पुंसौ यत्र ब्रह्मचर्येण स्वपितः तदसिधारा व्रतम् अर्थात् स्त्री पुरुष दोनों एक ही शय्या पर जहाँ ब्रह्मचर्य से शयन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार करते हैं, कभी मन, वचन, काया को विकृत नहीं होने देते उसका दूसरे तप कुछ भी नहीं है, ब्रह्मचर्य ही सर्वोत्तम तप है। का असिधाराव्रत है। संसार में ऐसे स्त्री-पुरुष विरले ही हैं। जिसने अपने वीर्य को वश में कर लिया वह मनुष्य नहीं देवता जैन-शास्त्रों में इसके विषय में विजय सेठ-सेठानी का उदाहरण है। यह जानकर अमोघ फल प्रदान करने वाले ब्रह्मचर्य तप की विद्यमान है। शास्त्रकार इस प्रकार के ब्रह्मचारियों के विषय में साधना करनी चाहिए। स्पष्ट कहते हैं - देव दाणव गंधबा, जक्ख रक्खस किन्नरा। सर्वप्रकार से रक्षा करना अत्यावश्यक है। स्त्रियाँ भी तीन प्रकार बंभयारी नमस्संति, दुक्करं जे करेंति ते॥ की होती हैं। उत्तम, मध्यम और जघन्य। जो स्त्रियाँ अपने पति जो मनुष्य असिधारा व्रत के समान ब्रह्मचर्य का पालन के अनकल रहकर अपने शीलव्रत का अखंड रूप से पालन करते हैं उनको देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किनर आदि करती हैं. मन, वचन और काया से कभी परपरुष का स्मरण नहीं करतीं और न उसे देखने में अभिलाषा रखती हैं। परिचित अन्त हो गया और वह किरण भी प्रायः सदा के लिए अस्त हो या अपरिचित अन्य पुरुषों के साथ एकान्त स्थल में न कभी गई। तभी तो आज सर्वत्र असदाचार व व्यभिचार आदि का घोर वार्तालाप करती हैं और न किसी प्रकार का संपर्क रखती हैं। अंधकार छाया हुआ है। इसी अंधकार में साधु और गृहस्थ अज्ञानी एवं कामी बनकर अपने कर्तव्य से च्युत हो गए। जहाँ होने देती। यदि पैदा हुआ भी तो उसको दूर करने का प्रयत्न गृहस्थ को केवल स्वदारा संतोष-व्रत का अधिकार था, वहाँ वह अपनी वासनापूर्ति के लिए कई अन्य अबलाओं का सतीत्व करती हैं। पति एवं कुटुम्बियों को सदाचाररत बनाती हैं और नष्ट करने में नहीं चूकता। इसी प्रकार जहाँ साधु को एकान्तवासी अपनी होशियारी से कभी उनको कमार्गगामी नहीं होने देती हैं, बनकर मानसिक ब्रह्मचर्य-तप की सर्वोत्तम साधना करनी थी. वे स्त्रिया उत्तम स्त्रियाँ हैं। वहाँ वह बिना किसी व्यवधान के सुन्दरियों से प्रेमालाप और जो स्त्रियाँ अपने पति को तो किसी प्रकार का सन्ताप नहीं उनके सम्पर्क में पकड़कर अपने अमूल्य ब्रह्मचर्य को दूषित देती और अपने शील को भी खण्डित नहीं होने देती. परन्त करने में भी नहीं हिचकता। यह है विषम दशा आज के देश और बार अपने कुटुम्ब को अनुकूल नहीं बना सकती। कभी-कभी अपने काम्ब: समाज की जिसे देखकर हृदय आन्तरिक वेदना से सन्तप्त हुए कौटुम्बिक वातावरण अशान्त बनाकर अपने पति के सन्ताप और बिना नहीं रहता। अतएव आत्मोन्नति और लोकोपकार के लिए का कारण बन जाती है। अपने स्वार्थ के लिए घरं की परिस्थिति प्रत्येक गृहस्थ एवं साधु को को लक्ष्य में न रखकर हठाग्राह या मनमुटाव का, चिंता या न तपस्तप इत्याहुब्रह्मचर्यं तपोत्तमम्। परेशानी का कारण बनी रहती है। ऊर्ध्वरेता भवेद् यस्तु स देवो न तु मानवः।।