Book Title: Bharatiya Sanskruti ka Samanvit Rup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। उसे हम विभिन्न आदि जो जैन परम्परा में तीर्थंकर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर चहारदीवारियों में अवरुद्ध कर कभी भी सम्यक् प्रकार से नहीं समझ भाव भी व्यक्त किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड करके देखने में उसकी आत्मा ही मर युग के प्रारम्भ से ही भारत में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित जाती है । जैसे शरीर को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया- होती रही हैं। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से जिस प्राचीन शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को भारतीय संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है; उससे सिद्ध होता खण्ड-खण्ड करके उसकी मूल आत्मा को नहीं समझा जा सकता है। है कि वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण रूप से समझ सकते हैं, जब रखती थी जिसमें ध्यान, साधना आदि पर बल दिया जाता था । उस उसके विभिन्न घटकों अर्थात् जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म-दर्शन का उत्खनन में ध्यानस्थ योगियों की सीलें आदि मिलना तथा यज्ञशाला समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लिया जाय । बिना उसके आदि का न मिलना यही सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं संयोजित घटकों के ज्ञान के उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव ही नहीं ध्यान प्रधान व्रात्य संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी । किन्तु इतना है । एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के लिए निश्चित है कि आर्यों के आगमन के साथ प्रारम्भ हुए वैदिक युग से दोनों न केवल उसके विभिन्न घटकों अर्थात् कल-पुों का ज्ञान आवश्यक ही धाराएँ साथ-साथ प्रवाहित हो रही हैं और उन्होंने एक दूसरे को होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना होता है। पर्याप्त रूप से प्रभावित भी किया है । ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो अत: हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि भारतीय तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद में समादर भाव में बदल जाता है जो संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवती परम्पराओं और दोनों धाराओं के समन्वय का प्रतीक है । तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी शोध परिपूर्ण समाधि, मुक्ति और अहिंसा की अवधारणायें जो प्रारम्भिक वैदिक नहीं हो सकता है । धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होते, वे ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण ग्रन्थों में अनुपलब्ध थीं, वे आरण्यक अपने देशकाल और सहवर्ती परम्पराओं से प्रभावित होकर ही अपना आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में और विशेष रूप से उपनिषदों में स्वरूप ग्रहण करते हैं । यदि हमें जैन, बौद्ध, वैदिक या अन्य किसी अस्तित्व में आ गयी हैं । इससे लगता है कि ये अवधारणाएँ भी भारतीय सांस्कृतिक धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् प्रकार संन्यासमार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिक धारा में प्रविष्ट हुयी हैं। से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशगत पक्षों को भी उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक कर्मकाण्ड की प्रामाणिकता पूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा । चाहे जैन विद्या के समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नये रूप में शोध एवं अध्ययन का प्रश्न हो या अन्य किसी भारतीय विद्या का, हमें परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास और मुक्ति उसकी दूसरी सहवर्ती परम्पराओं को अवश्य ही जानना होगा और यह आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ श्रमण देखना होगा कि वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार और वैदिक धारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक हैं। प्रभावित हुई है और उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत जिसका एक पारस्परिक प्रभावकता के अध्ययन के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं होता है। हैं। वे निवृत्ति प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिक धारा के समन्वय यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास के आदिकाल का परिणाम हैं । उपनिषदों में और महाभारत, गीता आदि में जहाँ एक से ही हम उसमें श्रमण और वैदिक संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ ओर श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्ति प्रधान तत्त्वों को स्थान दिया पाते हैं; किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में गया, वहीं दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की श्रमण परम्परा इन दोनों स्वतन्त्र धाराओं का संगम हो गया है और अब इन्हें एक दूसरे के समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गईं, से पूर्णतया अलग नहीं किया जा सकता । भारतीय इतिहास के उनमें यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितों की बलि या समाजसेवा प्रारम्भिक काल से ही ये दोनों धारायें परस्पर एक दूसरे से प्रभावित होती हो गया। हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा हिन्दू धर्म वैदिक और रहीं। अपनी-अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे श्रमण धाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध उन्हें अलग-अलग देख लें, किन्तु व्यावहारिक स्तर पर उन्हें एक दूसरे में जो आवाज औपनिषदिक युग के ऋषि-मुनियों ने उठाई थी, जैन, बौद्ध से पृथक नहीं कर सकते । भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना और अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है । हमें यह जाता है। उसमें जहाँ एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक क्रिया-काण्डों नहीं भूलना चाहिए कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्यों, श्रमणों एवं आवाज उठाई तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले अर्हतों की उपस्थिति के उल्लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि कहा था कि ये यज्ञरूपी नौकायें अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ नहीं हैं। यज्ञ आदि कर्मकाण्डों की नयी आध्यात्मिक व्याख्यायें देने और है कि जैन और बौद्ध धर्म न केवल स्वतन्त्र धर्म हैं, अपित् वे वैदिक उन्हें श्रमणधारा की आध्यात्मिक दृष्टि के अनुरूप बनाने का कार्य हिन्दू परम्परा के विरोधी भी हैं । सामान्यतया जैन और बौद्ध धर्म को औपनिषदिक ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है । जैन और बौद्ध वैदिक धर्म के प्रति एक विद्रोह के रूप में चित्रित किया जाता रहा है। परम्परायें तो औपनिषदिक ऋषियों के द्वारा प्रशस्त किये गये पथ पर यह सत्य है कि वैदिक और श्रमण परम्परओं में कुछ मूल-भूत प्रश्नों गतिशील हुयी हैं । वे वैदिक कर्मकाण्ड,जन्मना जातिवाद और मिथ्या को लेकर मतभेद है, यह भी सत्य है कि जैन और बौद्ध परम्परा ने विश्वासों के विरोध में उठे हुए औपनिषदिक ऋषियों के स्वर का ही वैदिक परम्परा की उन विकृतियों को जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, मुखरित रूप हैं । जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक ऋषियों की जातिवाद और ब्राह्मण वर्ग के द्वारा निम्न वर्गों के धार्मिक शोषण के रूप अर्हत् ऋषि के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है। में उभर रही थीं, खुलकर विरोध किया था, किन्तु हमें उसे विद्रोह के यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्णव्यवस्था रूप में नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति के परिष्कार के रूप में समझना और वेदों की प्रामाण्यता से इन्कार किया और इस प्रकार से वे भारतीय होगा । जैन और बौद्ध धर्मों ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आये; किन्तु हमें यह नहीं का परिशोधन कर उसे स्वस्थ बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया भूलना चाहिए कि भारतीय संस्कृति की इस विकृति का परिमार्जन करने और चिकित्सक कभी शत्रु नहीं, मित्र ही होता है । दुर्भाग्य से पाश्चात्य की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित हो चिंतकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक कुछ जैन गये । वैदिक कर्मकाण्ड अब तन्त्रसाधना के नये रूप में बौद्ध, जैन और एवं बौद्ध चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि जैन धर्म और वैदिक (हिन्द) श्रमण परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया और उनकी साधना पद्धति का एक धर्म परस्पर विरोधी हैं किन्तु यह एक भ्रांत अवधारणा है । चाहे अपने अंग बन गया । आध्यात्मिक विशुद्धि के लिए किया जाने वाला ध्यान मूल रूप में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति-प्रवर्तक और निवर्तक धर्म अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया जाने लगा । जहाँ एक ओर परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हों किन्तु आज न तो हिन्दु परम्परा भारतीय श्रमण परम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि ही उस अर्थ में पूर्णत: वैदिक है और न ही जैन व बौद्ध परम्परा पूर्णत: के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणायें प्रदान की श्रमण । आज चाहे हिन्दू धर्म हो अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, ये सभी वहीं दूसरी ओर वैदिक परम्परा के प्रभाव से तान्त्रिक साधनायें जैन और अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित रूप बौद्ध परम्पराओं में भी प्रविष्ट हो गयीं । अनेक हिन्दू देव-देवियां हैं। यह अलग बात है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक प्रकारान्तर से जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गईं। जैनधर्म में पक्ष अभी भी प्रमुख हो, उदारहण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहां यक्ष-यक्षियों एवं शासनदेवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैन धर्म आज भी निवृत्ति प्रधान है वहां हिन्दू धर्म प्रवृत्ति प्रधान, फिर जैनीकरण मात्र हैं । अनेक हिन्दू देवियां जैसे- काली, महाकाली, भी यह मानना उचित नहीं है कि जैन धर्म में प्रवृत्ति एवं हिन्दू धर्म में ज्वालामालिनी, अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिका तीर्थंकरों की निवृत्ति के तत्त्व नहीं हैं । वस्तुतः सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति प्रवृत्ति और शासन रक्षक देवियों के रूप में जैनधर्म में स्वीकार कर ली गयीं । श्रुत- निवृत्ति के समन्वय में ही निर्मित हुई है । इस समन्वय का प्रथम प्रयत्न देवता के रूप में सरस्वती और सम्पत्ति प्रदाता के रूप में लक्ष्मी की हमें ईशावास्योपनिषद् में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है । आज जहाँ उपासना जैन जीवन पद्धति का अंग बन गई । हिन्दू परम्परा का गणेश उपनिषदों को प्राचीन श्रमण परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता पार्श्व-यक्ष के रूप में लोकमंगल का देवता बन गया । वैदिक परम्परा है, वहीं जैन-बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में के प्रभाव से जैन मन्दिरों में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा में हिन्दू समझने की आवश्यकता है। जिस प्रकार वासना और विवेक, श्रेय और देवताओं की तरह तीर्थंकरों का भी आवाहन एवं विसर्जन किया जाने प्रेय परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व के ही अंग हैं, उसी लगा । हिन्दुओं की पूजाविधि को भी मन्त्रों में कुछ शाब्दिक परिवर्तनों प्रकार निवृत्ति प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्ति प्रधान वैदिक धारा दोनों के साथ जैनों ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्पराओं भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं । वस्तुतः कोई भी संस्कृति एकान्त में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर कर्मकाण्ड प्रमुख हो निवृत्ति या एकान्त प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। गया । इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम यह भी हुआ कि जहां जैन और बौद्ध परम्परायें भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न अंग हैं, हिन्दू परम्पराओं में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में जैसे हिन्दू परम्परा । यदि औपनिषदिक धारा को वैदिक धारा से भिन्न होते स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और कृष्ण को हुए भी वैदिक या हिन्दू परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है, तो फिर शलाका पुरुष के रूप में मान्यता मिली । इस प्रकार दोनों धारायें एक जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा दूसरे से समन्वित हुयीं।। सकता। यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी आस्तिक दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वारा न केवल हिन्दू हिन्दू-धर्म दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध धर्म को और मुसलमानों के बीच अपितु जैन, बौद्ध, हिन्दू और सिक्खों - जो कि अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है ? हिन्दू धर्म बृहद् हिन्दू परम्परा के ही अंग हैं, के बीच भी खाईयां खोदने का कार्य और दर्शन एक व्यापक परम्परा है या कहें कि वह विभिन्न विचार किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता रहा परम्पराओं का समूह है; उसमें ईश्वरवाद, अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप ५२५ प्रवृत्ति-निवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति पूजा मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। सूत्रकृतांगकार की दृष्टि में ये ऋषिगण जैसे धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक भिन्न आचारमार्ग का पालन करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के सभी कुछ सन्निविष्ट है। ऋषि थे । सूत्रकृतांग में इन ऋषियों को सिद्धि प्राप्त कहना तथा अत: जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दु परम्परा से भिन्न नहीं माना उत्तराध्ययन में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता जा सकता । जैन व बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पथ के अनुयायी है जिसका है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और वह मानती प्रवर्तन औपनिषदिक ऋषियों ने किया था। उनकी विशेषता यह है कि थी कि मुक्ति का अधिकार केवल उसके आचार नियमों का पालन करने उन्होंने भारतीय समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मजातिवाद, वाले को ही नहीं है, अपितु भिन्न आचार मार्ग का पालन करने वाला कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है। धर्म का प्रतिपादन किया जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे इसी संदर्भ में यहाँ ऋषिभाषित (इसिभासियाई) का उल्लेख कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। करना भी आवश्यक है जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ चाहे उन्होंने भारतीय समाज को पुरोहित वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त (ई. पू. चौथी शती ) है । जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय किया हो, फिर भी वे विदेशी नहीं हैं, इस माटी की संतान हैं, वे शत- हुआ होगा जब जैन धर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ प्रतिशत भारतीय हैं । उनकी भूमिका एक शल्य-चिकित्सक की भूमिका था । इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगीरस, पाराशर, अरुण, है जो मित्र की भूमिका है, शत्र की नहीं । जैन और बौद्ध धर्म नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप, औपनिषदिक धारा का ही एक विकास हैं और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य मंखलिगोसाल, संजय (वेलठ्ठिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का में समझने की आवश्यकता है। उल्लेख है और इन सभी को अर्हत्ऋषि, बुद्ध-ऋषि एवं ब्राह्मणऋषि भारतीय धर्मों विशेषरूप से औपनिषदिक, बौद्ध और जैन धर्मों कहा गया है । ऋषिभाषित में इनके आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष आवश्यकता का संकलन है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा-आचारांग, संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों की परम्परा और जैन परम्परा का सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन आदि हमारे दिशा-निर्देशक उद्गम स्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न केवल जैन धर्म की धार्मिक उदारता सिद्ध हो सकते हैं । मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन से भारतीय का सूचक है, अपितु यह भी बताता है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या विश्वास परम्पराओं का मूल स्रोत एक ही है । औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, दूर हो जायेगा कि जैन धर्म, बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म परस्पर विरोधी आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल स्रोत से निकली हुई धारायें धर्म हैं । आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं जो अपने हैं। जिस प्रकार जैन धर्म में ऋषिभाषित में विभिन्न परम्पराओं के उपदेश भाव, शब्दयोजना और भाषाशैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के संकलित हैं उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की थेरगाथा में भी विभिन्न निकट हैं । आचारांग में आत्मा के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण परम्पराओं के जिन-स्थविरों के उपदेश संकलित हैं, उनमें भी अनेक प्रस्तुत किया गया है वह माण्डूक्योपनिषद् से यथावत् मिलता है। औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों के उल्लेख हैं जिनमें आचारांग में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप एक वर्धमान (महावीर) भी है । यह सब इस तथ्य का सूचक है कि में नहीं, अपितु सहगामियों के रूप में ही मिलता है। चाहे आचारांग, भारतीय परम्परा प्राचीनकाल से ही उदार और सहिष्णु रही है और उसकी उत्तराध्ययन आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता प्रवाहित होती रही है। आज हैं किन्तु वे ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का जब हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से जकड़ कर परस्पर संघर्षों में उलझ अनुगामी मानते हैं जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में गये हैं इन ग्रन्थों का अध्ययन हमें एक नई दृष्टि प्रदान कर सकता ब्राह्मण वह है जो सदाचार का जीवन्त प्रतीक है । उसमें अनेक स्थलों है। यदि भारतीय सांस्कृतिक चिंतन की इन धाराओं को एक दूसरे से पर श्रमणों और ब्राह्मणों (समणा-माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ अलग कर देखने का प्रयत्न किया जायेगा तो हम उन्हें सम्यक् रूप से समझने में सफल नहीं हो सकेंगे । उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित इसी प्रकार सूत्रकृतांग में यद्यपि तत्कालीन दाशनिक मान्यताओं और आचारांग को समझने के लिए औपनिषदिक साहित्य का अध्ययन की समीक्षा है किन्तु उसके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक आवश्यक है । इसी प्रकार उपनिषदों और बौद्ध साहित्य को भी जैन ऋषियों यथा-विदेहनमि, बाहुक, असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि परम्परा के अध्ययन के अभाव में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा का समादर पूर्वक उल्लेख हुआ है । सूत्रकृतांग स्पष्ट रूप से यह स्वीकार सकता है। आज साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर तटस्थ एवं करता है कि यद्यपि इन ऋषियों के आचार-नियम उसकी आचार परम्परा तुलनात्मक रूप से सत्य का अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है जो से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त मानव को मुक्ति दिला सकता है। मानता है । वह उन्हें महापुरुष और तपोधना के रूप में उल्लेखित करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य