Book Title: Bharatiya Sanskruti
Author(s): Anandshankar Pandey
Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दशंकर पाण्डे, XII-B भारतीय संस्कृति - भारतीय संस्कृति के बारे में विचार करते वक्त अवश्य ही हमारे मन में यह बात आती है कि संस्कृति आखिरकार कौन सी वस्तु है। सभ्यता और संस्कृति ये दो शब्द आज सभी लोगों के होठों पर नाचते रहते हैं। इस प्रश्न पर संसार के प्राय: सभी महान् विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से विचार किया है और निष्कर्ष प्रस्तुत किया। एक ख्याति प्राप्त विचारक के अनुसार, संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गई हैं, उनसे अपने आप को परिचित करना ही संस्कृति को जानना है। एक अन्य महान् विचारक ने कहा है कि संस्कृति, शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढीकरण या विकास या उससे उत्पन्न अवस्था है। यह मन, आचार की परिष्कृति एवं शुद्धि है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार सभ्यता के भीतर प्रकाशित हो उठ ही संस्कृति है। पर सच्चाई तो यह है कि हम संस्कृति की कोई परिभाषा नहीं दे सकते यद्यपि उसके लक्षणों को अवश्य पहचान लेते हैं। इस दृष्टिकोण से सभ्यता वह वस्तु है जो कि हमारे पास है और संस्कृति वह गुण विशेष है जो कि हममें व्याप्त है हमारे दैनिक उपयोग के पदार्थ तो हमारी सभ्यता की पहचान हैं पर उनके उपयोग की जो कला है, वहीं संस्कृति है पर वस्तुएं ही संस्कृति की निशानी नहीं हैं। अच्छे वस्त्रों को धारण करने वाला आदमी भी तबीयत से नंगा हो सकता है। अतः यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रत्येक सुसभ्य मनुष्य सुसंस्कृत भी होगा। ठीक इसके विपरीत फटेहाल रहने वाला आदमी भी संस्कृति का निर्माता हो सकता है। भारतीय कृषि, मुनि हीरक जयन्ती स्मारिका इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यहां हमें भारतीय संस्कृति पर विचार करना है भारतीय संस्कृति की आलोचना करते हुए प्रायः हिन्दू संस्कृति, मुस्लिम संस्कृति तथा ईसाई संस्कृति की चर्चा की जाती है पर सच्चाई तो यह है कि भारतीय संस्कृति किसी जाति विशेष की देन न होकर तमाम जातियों का अंश दान है जो समय-समय पर बाहर से आती गईं और अपने विचारों और भावनाओं के साथ इसका अंग बन गईं। भारत में मंगोल, शक, हूण, तुर्क आदि अनेक जातियां आई और सब कुछ भुलाकर एकमात्र भारतवासी हो गई। उनके रक्त सम्मिश्रण और विचार मंथन से जो संस्कृति बनी वह न तो मंगोल है, न तुर्क है और न शक है। आज भारत में तुर्क हैं, आर्य हैं, द्रविड़ हैं, मंगोल हैं और इस प्रकार विश्व की अनेक जातियां यहां पाई जाती हैं। भारतीय संस्कृति का निर्माण प्रायः उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार मधु का निर्माण होता है। मधु का निर्माण मधुमक्खियां विभिन्न फूलों के रस से करती हैं और सभी फूलों का रस मिलकर मधु बनता है। उस मधु में कोई फूल विशेष अपना छाप नहीं छोड़ता हैं। ठीक इसी प्रकार भारतीय संस्कृति रूपी मधु अनेक जातियों रूपी फूलों के विचारों रूपी रस के मिश्रण से बनी है। इसमें अन्य संस्कृतियों का मेल गंगा में अन्य नदियों के मेल की भांति है। भारतीय संस्कृति की धारा अति प्राचीन काल से बहती आ रही है। हम इसके प्रशंसक हैं। इसके जीवन तत्वों को अपनाकर हम स्वतंत्र भारत को विश्व में सम्मानपूर्ण स्थान दिला सकते हैं। प्रारम्भ से लेकर आज तक भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी अहिंसाप्रियता मानव को जीतने का अर्थ उसे पशुबल से पराजित करना नहीं है, बल्कि उसके हृदय पर अधिकार करना है। भारतीय संस्कृति में आत्म-रक्षा के लिए तलवार उठाना हिंसा नहीं माना गया है भारतीय संस्कृति ने बहुत अधिक मूल्य चुकाकर भी अपनी इस विशेषता को धारण किया है। रक्त सम्मिश्रण और सांस्कृतिक समन्वय यहां की दूसरी विशेषता है संसार में समस्त मानव जाति श्वेत, पीत, कृष्ण आदि रंगों में बंटी हुई है। इन रंगों का मेल देखने को मिलता है हमारे भारत देश में । जब अंग्रेज ईसाई नहीं हुए थे, उससे पूर्व ही ईसा का धर्म भारत पहुंच गया था। इस्लाम का आगमन हजरत मुहम्मद के जीवन काल में ही भारतवर्ष में हो गया था। इस प्रकार पारसी, यहूदी तथा अन्य कई धर्म रात में आये। जिस प्रकार हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्म भारत की मिट्टी से रस ग्रहण करते हैं, वैसे ही ईसाई, इस्लाम, पारसी आदि धर्म भी ग्रहण करते हैं। भाषा की दृष्टि से देखने पर ज्ञात होगा कि संसार के सभी भाषा परिवार से संबंधित भाषाएं युगों-युगों से यहां संरक्षण पाती आ रही हैं। भारतीय संस्कृति के इतिहास में ईसा पूर्व का युग बड़ा ही गौरवपूर्ण विद्यार्थी खण्ड / १५ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा है। इस युग के मनुष्य प्रबल जिजीविषा सम्पन्न प्राणवान और मस्त होते थे। जीवन को सम्पूर्ण हृदय से प्यार करते थे और अविचल निष्ठा से उसका शृंगार करते थे। मध्य युग संस्कृति के उत्थान-पतन की दृष्टि से कोई खास गौरवपूर्ण नहीं कहा जा सकता। इस युग में साधना को बहुत कुछ अर्थों में हमने भुला दिया। रूढ़ियों, अंधविश्वासों और पाखंड का जाल फैल जाता है। हम भारतीयों के आचरण और विश्वास में अंतर आ जाता है। हम व्यवहार में छूत-अछूत को लेकर गर्दन काटने को सदा उद्यत रहते हैं। वस्तुत: इस युग में प्रत्येक भारतीय का व्यक्तित्व खंडित हो गया दुख की बात यह है कि नवीन भारत विश्व को कुछ भी देने में असमर्थ है। वह तो स्वयं दूसरों का पिछलग्गू हो गया है। आज के पीड़ित विश्व की दवा भारत के पास ही है, पर उस भारत के पास जो सामाजिक संस्कृति का रक्षक है। संसार की पीड़ा का कारण भिन्न आदर्शों और जातियों का एक साथ मिलकर नहीं रहने की भावना भी है। आज कोई भी किसी का विश्वास नहीं करता। कोई भी अपने आदर्शों, विश्वासों और विशेषताओं को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। पर भारत में ऐसा नहीं है। भारत ने किसी भी जाति का गौरव घटाये बिना उसको एक सांस्कृतिक सूत्र में गूंथा था। उसने बिना किसी धर्म को दबाये सभी धर्मों की एकता स्थापित की, सिर्फ अहिंसा के बल पर। भारतीय संस्कृति की आज के विश्व को यही सबसे बड़ी देन है। अपनी भूतकालीन संस्कृतियों के निर्माणकारी जीवन तत्वों को लेकर जब हम स्वदेश, उन्नति और विश्व शांति के कर्मों में निरन्तर लगे रहेंगे तभी स्वतंत्र भारत को विश्व के रंगमंच पर सम्मानपूर्ण स्थान दिला सकते नये युग के प्रारम्भ में समुद्री मार्ग से आने वाली जातियों के सम्पर्क में भारत आया। इन जातियों के सम्पर्क में आने पर आधुनिक सभ्यता और संस्कृति के तत्वों को हमने अपनाया। परन्तु इस आदान के साथ हमें वह आधुनिक सभ्यता का विष भी मिला है जिससे सम्पूर्ण संसार अत्यंत पीड़ित है। फिर भी आज का संसार अपनी पीड़ा के उपचार के लिए भारत की ओर आंखे उठाकर देख रहा है। हैं। हीरक जयन्ती स्मारिका विद्यार्थी खण्ड / 16