Book Title: Bharatiya Puratattva ki Avahelna
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाक्टर जगदीशचंद्र जैन (अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान् । भारतीय पुरातत्व की अवहेलना १९७३ में पेरिस में भरने वाली अन्तर्राष्ट्रीय पूर्ण है ५ लाख साल पुराने पेकिंग-मानव के अवशेष ४ ओरिटिवल कान्फरेन्स में भाग लेने के लिए जब और तत्सम्बन्धी खोपड़ी, दाँत, जबड़े, पत्थर के पेरिस की यात्रा करनी पड़ी तो यहाँ के सांस्कृतिक औजार तथा अब से साढ़े तीन हजार साल पहले । केन्द्रों की चहल-पहल देखकर आश्चर्यमुग्ध हुए भविष्य जानने के लिए उपयोग में ली जाने वाली बिना न रहा गया । कितने ही तो यहाँ संग्रहालय भविष्य-सूचक हड्डियाँ । हैं जिनमें दर्शकों की भीड़ लगी रहती है। लोग संग्रहालय देखने के लिए मेरे साथ आने वाले पहले से टिकट खरीदकर संग्रहालयों में प्रवेश करते दो और प्रोफेसर थे-एक कनाडा के विश्वविद्या८ हैं और वहाँ रखी हई वस्तुओं को बड़े गौर से लय में और दसरे अमरीका के विश्वविद्यालय में देखते हैं। एक सड़क तो कलागृहों की ही सड़क है भारतीय विद्या के अध्यापक थे। संग्रहालय का ॥ जहाँ छोटे-छोटे कक्षों में नवयुवक कलाकारों की चीनी कक्ष देखकर हम लोग बड़े प्रभावित हुए थे। || JI कृतियाँ बड़े करीने से सजाकर रखी गई हैं । कला- लेकिन साथ ही एक दूसरा प्रश्न हमारे मस्तिष्क रसिकों का तांता लगा हुआ है, उदीयमान कला- को झकझोरने लगा, वह था इस विश्वप्रसिद्ध संग्रall कार दीवाल पर लगी हुई कलाकृतियों का अध्ययन दालथ में भारतीय कक्ष का अभाव ! हम सब की करने में व्यस्त हैं, कुछ अपनी डायरी में नोट्स भी यही राय थी कि भारतीय पुरातत्ब इतना विपुल, लिख रहे हैं। समृद्ध, मूल्यवान एवं उपयोगी है, फिर भी उसकी ___ एक संग्रहालय में इतने अधिक कक्ष हैं कि थोड़े चर्चा यहाँ क्यों नहीं सुनाई पड़ती ? क्या इसे भारत समय के अन्दर सबको देख पाना सम्भव नहीं। सरकार का दुर्लक्ष्य कहा जाये या और कुछ ? NI इनके देखने में कई दिन लग जाते हैं, फिर भी अभी हाल में भारत सरकार ने भारत की U कला के प्रेमी इनका पूरा-पूरा लाभ उठाये बिना पाचीन संस्कृति का प्रचार व प्रसार करने के लिए नहीं छोड़ते । कुछ लोग तो वहीं आसन जमाकर जमाकर विदेशों में उत्सवों का आयोजन किया था। फलबैठ जाते हैं किसी कलाकृति का सांगोपांग अध्ययन स्वरूप सोवियत रूस, संयुक्त राष्ट्र अमरोका और | करने के लिए। फ्रांस आदि देशों में भारतीय कलावेत्ताओं के साथ____ इन कक्षों में से एक कक्ष में चीनी पुरातत्व से साथ शिल्पकला की दृष्टि से अभूतपूर्व, बहुमूल्यबान सम्बन्ध रखने वाली खास-खास वस्तुओं का संग्रह एवं दुर्लभ मूर्तियाँ भो भेजी गई थीं। निश्चय हो सुरक्षित है । पेकिंग (आजकल बेजिंग) और उसके विदेशी प्रजा भारतीय कला-कौशल, नृत्य-संगीत, आसपास के प्रदेशों की खुदाई में प्राप्त कितनी ही खेल-तमाशे, स्थापत्य एवं शिल्पकला आदि से प्रभाप्राक् ऐतिहासिक कालीन वस्तुओं का प्रदर्शन किया वित हुए बिना नहीं रही होगी। खूब वाहवाह रही, गया है । इनमें सबसे अधिक आकर्षक और महत्व- खूब जश्न मनाये गये, मेलों का आयोजन किया पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास TOGG70 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 3G ) 2ducation Internation Vor Private & Personal Use Only www.jaineuorary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया, व्याख्यानों की भरमार रही और प्रशंसा पत्र पढ़े गये । लेकिन अत्यन्त खिन्न मन से लिखना पड़ता है कि हमारी कितनी ही दुष्प्राप्य कलाकृतियाँ खण्डित पाई गईं और कुछ तो लापता ही हो गई । बहुमूल्यवान हमारी ये कलाकृतियाँ हमसे सदा के लिए दूर चली गईं। पटना संग्रहालय की अभूतपूर्व यक्षिणी की कलापूर्ण कृति इनमें से एक है । जहाज द्वारा विदेशों में भेजे जाने के पूर्व इन कलाकृतियों का लाखों रुपये का बीमा कराया गया था। ऐसी हालत में किसी मूर्ति के खण्डित हो जाने पर हम चाहें तो उसकी एवज में रुपया वसूल कर सकते हैं लेकिन वह दुर्लभ मूर्ति तो हमें कभी प्राप्त होने वाली नहीं, जिस मूर्ति के रूप सौन्दर्य को गढ़ने और संवारने में हमारे शिल्पियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था । आइये, अब जरा अपने गरेबान में झांक कर भी देखा जाये । हम अपने पुरातत्व के ज्ञान से कितने परिचित हैं ! हमारे कॉलेजों और विश्व विद्यालयों में प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति पढ़ाने वाले कितने अध्यापक ऐसे मिलेंगे जिन्हें संस्कृत, पालि और प्राकृत का ज्ञान होजिन भाषाओं में लिखा हुआ साहित्य पुरातत्व विद्या की आधारशिला है । केवल अंग्रेजी में लिखे हुए ग्रन्थों को पढ़कर प्राचीन भारतीय इतिहास एवं कला में प्रवीणता प्राप्त नहीं की जा सकती । जबकि विदेशी विश्वविद्यालयों में यह बात नहीं है । भारतीय विद्या का अध्ययन करने के लिए संस्कृत आदि भारत की प्राचीन भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करना परम आवश्यक है । इस सम्बन्ध में सर विलियम जोन्स, चार्ल्स विलकिन्स, हेनरी कोलब्रुक, एच. एच. विल्सन, फ्रान्ज बॉप, जेम्स प्रिंसेप, जॉन मार्शल, व्हीलर, कीथ, श्री एवं श्रीमती राइस डैविड्स, हरमान याकोबी, रिशार्ड पिशल आदि कतिपय विदेशी विद्वानों का नामोल्लेख करना पर्याप्त होगा जिन्होंने भारत की प्राचीन भाषाओं ३५८ और साहित्य का गहन अध्ययन कर अपने-अपने क्षेत्र में वैशिष्ट्य प्राप्त किया । इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि विश्वविद्यालयों की उच्च कथाओं में पढ़ने वाले कितने ही छात्र और छात्राएँ भारत की प्राचीन संस्कृति, उसकी कला और इतिहास के ज्ञान से सर्वथा ही वंचित रहते हैं । उन्हें बम्बई के पास स्थित एलीफैण्टा टापू को त्रिमूर्ति, उड़ीसा के कोणार्क, राजस्थान के रणकपुर मन्दिर एवं दक्षिण भारत के एक से एक कलापूर्ण मन्दिरों के सम्बन्ध में अत्यन्त अल्प, नहीं के बरावर जानकारी है । भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के तत्वावधान में जो कभी-कभार उत्खनन का कार्य चलता है उसकी जानकारी भी साधारण जन को प्रायः कम ही मिलती है। इसके सम्बन्ध में प्रायः भारीभरकम अँग्रेजी की पत्रिकाओं आदि में हो लेख प्रकाशित किये जाते हैं जो सामान्य जन की पहुँच के बाहर हैं। इसके अलावा, हमारी कितनी ही कलाकृतियाँ तो चोरी चली जाती हैं जो देश-विदेश में बहुत ऊँची कीमत पर बिकती हैं । सुप्रसिद्ध सम्राट् अशोक (२७४-२३७ ई. पू.) ने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक जगह-जगह शिला लेख उत्कीर्ण कराये और बड़े- बड़े स्तूप स्थापित किये । लेकिन आगे चलकर हम इन ऐतिहासिक महत्वपूर्ण | स्तूपों का मूल्य आकलन करने में असमर्थ होकर इन्हें पराक्रमी भीम की लाट कहकर पुकारने लगे, या फिर शिवजी का लिंग मानकर इनकी पूजाउपासना करने लगे। बिहार राज्य में परम्परागत कितने ही मठ-मन्दिर आज भी मौजूद हैं जहाँ भक्त गणों द्वारा मूर्ति के ऊपर सतत जल प्रक्षेपण किये जाने के कारण मूर्ति का वास्तविक रूप ही भ्रष्ट हो गया है तथा चन्दन और सिन्दूर पोते जाने के कारण वह ओझल हो गया है । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ o.co Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली-तोपरा अशोक-स्तंभ विशाल लिंग समझकर उसकी मनौती कर और इसके निर्माण का श्रेय दिया जाता है गदा- 12 यह स्तंभ अंबाला और सरसावा (जिला सहा- धारी भीमराज को ! रनपुर) के बीच अवस्थित है जिसे लोग भीम-स्तंभ, वैशाली की खुदाई सुवर्ण-स्तंभ, फीरोजशाह-स्तंभ आदि नामों से पूका प्राचीनकाल में वैशाली वज्जि गणतंत्र की रते हैं । सुलतान फीरोजशाह (१३५१-१३८८ ई.) राजधानी रही है, जिस गणतंत्र को भगवान महाइस स्तंभ की गरिमा देखकर अत्यन्त प्रभावित वीर ने अपने जन्म से पवित्र किया था। विशाल d ) हआ। उसने सोचा कि अवश्य ही यह स्तंभ उसके गुणयुक्त होने के कारण इसको वैशाली कहा जाना इस महल की शोभा में चार चांद लगा सकेगा। स्वाभाविक है। सुप्रसिद्ध उज्जैनी नगरी को भी उसने इस विशाल स्तंभ को पहले दिल्ली मंगवाया, विशाला कहा गया है। संभवतः नाम सादृश्य के वहाँ से ४२ पहियों वाली बड़ी ट्रक से जमना नदी कारण वैशाली को भगवान महावीर का जन्मस्थल के किनारे लाया गया। फिर बड़े-बड़े बजरों पर न मानकर, उज्जैनी को उनकी जन्मभूमि कहा जाने लादकर नदी के बीचों बीच प्रवाहित कर दिया । लगा। कुछ लोग कुण्डलपुर (कुण्डग्गाम अथवा गया। और इसके फीरोजाबाद पहुँचने पर, पहले कण्डपर-वैशाली का एक भाग-के नाम सादृश्य से तैनात मल्लाहों ने इसे नदी में से निकालकर के कारण) को महावीर की जन्मभमि कहने लगे । शाही कर्मचारियों के सुपुर्द कर दिया। लोजिये, इससे यही पता चलता है कि प्राचीनकाल में भो सुलतान का शाही महल इस स्तंभ के लगने से जग- हम इतिहास और भूगोल के सही ज्ञान से वंचित मगा उठा। थे । आचार्य अभयदेव जैसे विद्वान से भी इस तरह बिहार का चंपारण जिला महात्मा गांधी के की भूलें हुई हैं । अस्तु, अब तो यह निश्चय हो गया सत्याग्रह के कारण सुप्रसिद्ध है । यहाँ के लौडिया है कि महावीर का जन्म वैशाली में ही हुआ था | (लकुट का अपभ्रंश) अरेराज और लौडिया नंदनगढ़ और इसीलिये उन्हें वैशालीय कहा गया है। नामक अशोक-स्तंभ सर्वविदित है। यहाँ के निवासी वैशाली नगरी की खोज के लिए हम में इन स्तंभों को विशाल शिवलिग समझकर इनकी जनरल एलेक्जैण्डर कनिंघम के सदा ऋणी रहेंगे पूजा-उपासना करने लगे और दोनों को लौड़ कहने जिन्होंने अपनी सूझ-बूझ से यह पता लगाने का लगे-दोनों गाँव ही लौडिया कहे जाने लगे। आगे साहस किया कि वसाढ़ नामक गाँव ही प्राचीन का चलकर जब सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता मेजर-जनरल वैशाली के रूप में मौजूद है। उनकी प्रेरणा से ही एलेक्जेण्डर कनिंघम का यहाँ आगमन हुआ तो भारत की ब्रिटिश सरकार ने भारत के पुरातत्व के उन्होंने दोनों को जुदा करने के लिए पहले को उद्धार के लिये आर्कियोलोजीकल सर्वे नामक लौडिया अरेराज (गांव के पडौस के शिवमंदिर के विभाग की स्थापना को, और इसके सर्वप्रथम डाइनाम पर) और दूसरे को लौडिया नंदनगढ़ नाम से रैक्टर बनने का सौभाग्य डा. कनिंघम को प्राप्त कहना शुरू किया। दोनों ही सुन्दर स्तंभ पालिश आ। सन १८६२ से १८८४ के बीच कनिंघम ने 45 किये हुए बलुआ पत्थर के एक ही खण्ड से निर्मित यहाँ आकर कई बार डेरा लगाया तथा आजकल किये गये हैं, जो भारत की उत्कृष्ट कला का अनु- के राजा विशाल का गढ और अशोक स्तंभ के (0 पम नमूना है । लेकिन हमें भूलना न चाहिये कि आसपास खुदाई का काम शुरू कर दिया। कहने इस उत्कृष्ट कला-सौन्दर्य से अनभिज्ञ हमारी की आवश्यकता नहीं कि इस खुदाई में उन्हें बहुत सामान्य अनपढ़ जनता इन्हें शिवजी · महाराज का सी महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई, यद्यपि फिर भी texy पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास ३५६ 6.863 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ education Internationale Private & Personal use only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ em निश्चयपूर्वक यह कहना कठिन था कि जिस वैशाली सिद्ध हो गया है कि यह बज्जियों लिच्छवियों की // 0 की वे तलाश करने में लगे हैं, वह यही है। लेकिन वही रमणीय नगरी है जिसका सरस वर्णन जैन एवं 9 | उन्होंने हिम्मत न हारी। आगे चलकर उनके बौद्धों के आगम ग्रन्थों में उपलब्ध है। उद्योग से 1603-4 में डाक्टर टी. ब्लाख को और पुनश्च : लेख समाप्त करने के पहले, यहाँ एक 1613-14 में डाक्टर डी. बी. स्पूनर को यहाँ भेजा और बात लिख देना आवश्यक है। श्वेतांबरीय गया / इस खुदाई में मिट्टी की मुहरों पर उत्कीर्णं आवश्यक चूर्णी (ईसा की ७वीं शताब्दी) के आधार | लेखों की प्राप्ति हुई जिससे कनिंघम साहब का सपना से इन पंक्तियों के लेखक ने भगवान महावीर की पान म सार्थक सिद्ध होता हुआ दिखाई दिया। अब यह सिद्ध विस्तृत विहार-चर्या का विवरण मानचित्र के साथ TE हा गया कि यह वसाढ़ हा प्राचीन वाला है। अपनी रचनाओं “भारत के प्राचीन जैन तीर्थ" जैन र लेकिन यह काफी नहीं था, अभी बहुत कुछ संस्कृति संशोधन मंडल, वाराणसी, 1650; "लाइफ की करना बाकी था। भारत सरकार आर्थिक कठिनाई इन ऐन्शियेण्ट इण्डिया ऐज डिपिक्टेड इन जैन कैनन के कारण खुदाई के काम को आगे बढ़ाने में अपनी एण्ड कमेण्टरीज," मुशीराम मनोहर लाल, नई 6 असमर्थता व्यक्त कर रही थी। इस समय हिन्दी के दिल्ली, (संशोधित संस्करण, 1984) में प्रस्तुत किया सुप्रसिद्ध नाटककार श्री जगदीश चन्द्र माथुर, आई. है। वैशाली प्राकृत संस्थान (मुजफ्फरपुर) में | सी. एस. जो हाजीपुर के एस. डी. ओ. बनकर यहां 1658.56 प्रोफेसर पद पर आसीन रहकर, पद आये थे, वैशाली के गौरव से सुपरिचित थे। उनके यात्रा द्वारा भगवान महावीर की विहार-चर्या ART प्रयत्न से 1945 में वैशाली संघ की स्थापना की सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने के सम्बन्ध में एक गई / इस संघ की ओर से 7 हजार रुपये की रकम विस्तृत योजना संस्थान के डाइरैक्टर के समक्ष KE प्राप्त कर भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के प्रस्तुत की गई थी। दुर्भाग्य से वह योजना कार्या वरिष्ठ अधिकारी श्री कृष्णदेव के अधीक्षण में न्वित न की जा सकी / अभी हाल में उक्त संस्थान II 1950 में खुदाई का कार्य फिर से शुरू किया गया। की कार्यकारिणी का सदस्य होने के नाते, फिर से इस बार राजा विशाल का गढ़ और चक्रम दास संस्थान के डाइरैक्टर का ध्यान आकर्षित किया o स्थानों पर ही खुदाई केन्द्रित की गई। पांचवीं बार गया, और अनुरोध किया गया कि संस्थान के बिहार सरकार के काशीप्रसाद जायसवाल अनू- किसी शोध विद्यार्थी को शोध के लिए उक्त विषय संधान प्रतिष्ठान ने डाइरैक्टर सूप्रसिद्ध इतिहास दिया जाये जिससे कि वह छात्र वैशाली के आसतत्ववेत्ता प्रोफेसर ए. एस. आल्तेकर ने चीनी पास के प्रदेशों में पदयात्रा द्वारा भगवान महावीर यात्री श्वेन च्वांग के अभिलेखों के आधार पर की बिहार चर्या सम्बन्धी जानकारी प्रस्तुत कर सके। खुदाई का काम हाथ में लिया / इस समय अभिषेक इस सम्बन्ध में आरा के सुप्रसिद्ध उद्योगपति दिवंगत पुष्करिणी के पास मिट्टी के बने एक स्तूप में से सेठ निर्मल कुमार चक्रेश्वर कुमार जैन के उत्तरा भगवान बुद्ध के शरीरावशेष की एक मंजूषा धिकारी परम उत्साही श्री सुबोध कुमार जैन को CIB मिली। आगे चलकर 1976-78 में भारत सरकार यथाशक्ति आर्थिक सहायता देने के लिये भी राजी के पुरातत्व विभाग की ओर से फिर से खुदाई की किया जा सकता है। यदि यह योजना आज भी गई / यह खुदाई कोल्हुआ गांव में निर्मित अशोक सम्भव हो सके तो निश्चय ही भारतीय पुरातत्व के स्तम्भ के आस पास की गई और इस खुदाई में जो क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हो सकती है। वर्तमान 1.. बहुमूल्य सामग्री प्राप्त हुई उससे वैशाली का समस्त में वैशाली स्थित वैशाली प्राकृत शोध संस्थान का इतिहास प्रकट हो गया। और अब यह पूर्ण रूप से यह महान् योगदान कहा जायेगा। पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 360 6. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain an international SorSivate &Personal use Only www.jainelibranto