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भारतीय मूर्तिकला में त्रिविक्रम
यस्योरूषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षयन्ति भुवनानि विश्वा । य इदं दीर्घ प्रयतं सधस्थमेको विममे त्रिभिरित्पदेभि ।। यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्यक्षीयमारणा स्वधया मदन्ति । य उत्रिधातु पृथ्वीमुत द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा ।।
- ऋग्वेद, १ १५४, २-४ बालिगो बापाबन्धे चोज्जणिउ पडतो। सुरसत्य कारणन्दो वामन रूवो हरि ज अह॥
गाथा सप्तशती,६ सृष्टि, पालन और संहार प्राणि-जगत् के अाधारभूत तत्त्व हैं । हिन्दु धर्म में त्रिदेवों की कल्पना इन्हीं तत्त्वों पर आधारित है । ब्रह्मा सृष्टि के, विष्णु पालन के तया महेश अथवा रुद्र संहार के देवता है । ' किन्तु वास्तव में जिस अभूतपूर्व देव की 'ब्रह्मा, विष्णु, शिव' रूप शक्तियां हैं, वह भगवान विष्णु का परम पद है :
शक्तयो यस्य देवस्य ब्रह्मविष्णु-शिवात्मिका: । भवन्त्यभूतपूर्वस्य तद् विष्णोः परमपदम् ॥
विष्णु पुराण, १, ६, ५६ ब्रह्मा की पूजा प्रारम्भिक काल में विशेष प्रचलित थी, किन्तु आगे चलकर यह समाप्त-प्राय हो गई ।२ विष्णु और शिव की पूजा सम्पूर्ण भारत में अब भी होती है । विष्णु के दशावतार तो सर्वत्र
१. ब्रह्मत्वे सृजते विश्वं स्थितौ पालयते पुनः । रुद्र रूपाय कल्पान्ते नमस्तुभ्यं त्रिमूर्तये ।।
विष्णु पुराण, १, १६, ६६ २. ब्रह्मा का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मन्दिर पुष्कर (अजमेर) तीर्थ में है। वहाँ अब भी उनके सम्मान
में प्रतिवर्ष कात्तिक पूरिंगमा पर एक विशाल मेला लगता है। ब्रह्मा के प्राचीन मन्दिर एवं मूर्तियों के लिए देखें : बड़ोदा म्यूजियम की पत्रिका, ५, १६४७-८, पृ० ११.२१; मरूभारती, पिलानी, जनवरी, १९५५, पृ० ८५, ८६ ।
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ब्रजेन्द्र नाथ शर्मा
२५३ ] प्रसिद्ध हैं ! 3 भगवान् मंचवें अर्थात् वामन अवतार की कथा का विस्तृत वर्णन वामन,४ भागवत, ब्रह्म, पस्कन्द, तथा हरिवंश आदि पुराणों में मिलता है ।
राणों की इन कथाओं के अनुसार भक्त प्रहलाद के पौत्र तथा विरोचन के पुत्र राजा बलि ने देवताओं के राजा इन्द्र को परास्त कर राज्य से खदेड़ दिया। इससे दुःखी होकर इन्द्र की माता अदिति ने विष्णु से प्रार्थना की, कि वही स्वयं उनके पुत्र के रूप में जन्म लेकर बलि का दमन करें और स्वर्ग का ऐश्वर्यशाली साम्राज्य इन्द्र को दिलवाएं। विष्णु ने अदिति की प्रार्थना स्वीकार की और उसके पुत्र के रूप में जन्म लिया।
एक समय जब बलि यज्ञ करा रहा था, विष्णु उसके ऐश्वर्य की समाप्ति के लिए कपट से बौने (वामन) ब्रह्मचारी का रूप धारण कर उसकी यज्ञशाला में जा पहुंचे :
विधाय मूर्ति कपटेन वामनी, स्वयं बलिध्वंसिविडम्बिनीभयम्।।
नंषध चरित, १ १२४ असुरों के गुरु शुक्राचार्य को अपनी ज्ञान शक्ति से विदित हो गया कि यह वामन 'हरि' के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है। अतः उन्होंने बलि को सलाह दी कि वह किसी भी प्रकार का दान वामन को न दें। शुक्राचार्य ने कहा, "हे विरोचन के पुत्र (बलि), यह स्वयं भगवान विष्णु हैं जिसने देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिए कश्यप और अदिति से जन्म लिया है। अनर्थ को बिना ध्यान में रखे हए जो तमने इसे दान देने की प्रतिज्ञा की है, वह राक्षसों के लिए ठीक नहीं है। यह बहत बूरा हमा कि कपट से वटु का रूप धारण करने वाला विष्णु तेरा स्थान, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज, यश और विद्या को छीनकर इन्द्र को देगा । सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करने वाला शरीर बनाकर यह तीन चरणों में सब लोकों का लंघन करेगा । विष्णु को सर्वस्व देकर हे मूर्ख, तू कैसे कार्य चलाएगा? यह पृथ्वी को एक पग से, दूसरे से स्वर्ग और आकाश को अपने महान् शरीर से लंघन करेगा, तो तीसरे पग के लिए स्थान ही कहां
होगा ?"५
३. भगवान् किस उद्देश्य से अवतार लेते हैं, इसका उत्तर स्वयं कृष्ण ने गीता में दिया है :
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥
श्रीमद्भगवद् गीता, ४.८ । ४. वामन की जन्म कथा के विस्तृत विवरण हेतु देखें, : वामन पुराण, अध्याय ३१ । ५. एष वैरोचने साक्षाद् भगवान् विष्णुरव्ययः । त्रिविक्रमरिमाल्लोका विश्वकाय: ऋमिष्यति।
कश्यपाददितेर्जातो देवानां कार्यपाधकः ।। सर्वस्वं विष्णवे दत्त्वा मूढ़ वतिष्य से कथम् ।। प्रतिश्रुतं त्वयेतस्मै यदनर्थमजानता। क्रमतो गाँ पदकेन द्वितीयेन दिवं विभोः । न साधु मन्ये वैत्यानां महानुपगतोऽन यः ।। रवं च कायेन महता तार्तीयस्य कुतो गतिः ।। एष ते स्थानमैश्वयं श्रियं तेजो यशः श्रुतम् । दास्यत्याच्छिद्य शक्राय मायामारणवको हरिः ।।
भागवत पुराण, ८, १६, ३०-३४ ।
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२५४ ]
भारतीय मूर्तिकला में त्रिविक्रम इस सलाह के अनुसार कार्य न करने पर शुक्राचार्य ने क्रोववश हत्य-प्रतिज्ञ बलि को शाप भी दिया:
एवमद्वितं शिष्यमनादेशकर गुरु । शशाप देवप्रहितः सत्यसन्धं मनस्विनम् ।।
भागवत पुराण, ८, २०, १४ । परन्तु बलि अपने विचार पर दृढ़ रहा । उसने कहा कि यज्ञ के समय यदि कोई उसका सिर भी दान में मांगे तो देने में उसे लेशमात्र हिचकचाहट न होगी। गोविन्द दान मांगे तो इससे बढ़कर बात क्या होगी? मैने तो अन्य (सामान्य) याचकों को भी मांगने पर नां नहीं की है : ..
यज्ञऽस्मिन्यदि यज्ञेशो याचते माँ जनार्दनः । निजमूर्द्धनमध्यस्मै दास्याम्येवाविचारितम् ।। स मे वक्ष्यति देहीति गोविन्दः किमतो.धिकम् । नास्ती यन्नया नोक्तमन्येषामपि याचताम ।।
वामन पुराण, ३१, २३ -२५ इस दान की महत्ता को भी सष्ट रूप में प्रकट करते हए राजा ने कहा, 'यदि दान रूपी इस श्रेष्ठ बीज को नारायण के हाथों में बो दिया जाये तो उससे सहस्त्रगनी फल-निष्पत्ति होगी:
(तद्वीजदरं दानं बीजं पतति बेद् गुरो। जनार्दने महापाजो कि न प्राप्त स्ततो मया ॥
वामन पुराण, ३१. ३० । अतः बलि ने उनका स्वागत किया और उनसे यज्ञ में दान स्वमा मनचाही वस्तु मांगने को कहा । परन्तु वामन ने अत्यन्त चातुर्य से तीन पग थोड़ी सी भूमि की याचना की और शेष सब स्वर्ण. धन तथा रत्नादि याचको को देने की सलाह दी:
तस्मात्त्वत्तो महीमोषः वृणेहं वरदर्षभात् । पदानि त्रीणि दैत्येन्द्र सम्मितानि पा मम ।।
भात काय, १६. १६ ममाग्निशरणार्थाय देहि राजन् पदयम् । सुवरण प्रामरत्नादि तदर्थभ्यः प्रदीयताम ।।
4. पुराण, ३३, ४६ दान की पूर्ति के हेतु जैसे ही बलि ने कमण्डलु से संका जल वामन के हाथ पर डाला, वैसे ही वामन ने विराट रूप धारण कर अपना सर्वदेव मय रूप प्रदर्शित किया :
६. वामनादणुतमादनु जीयास्वं त्रिविक्तमंतनेभृतदिक्कः ।
नैषध चरित, २१, ६५
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ब्रजेन्द्र नाथ शर्मा
२५५ ] पाणौ तु पतिले तोये वामनोऽभूदवामनः । सर्वदेवमयं रूपं दर्शयामास तत्क्षणात ॥
वामन पुराण, ३१, ५३ प्रथम पग में भगवान ने समस्त भूलोक नाप लिया तथा दूसरे में त्रिविष्टप । बलि ने तीन पग भूमि देने का वचन दिया था। किन्तु नारायण के तीसरे पग को नापने के लिए अब कुछ शेष न बचा था:
क्षिति पदकेन बलेविचक्रमे नभ : शरीरेण दिशश्च बाहुभिः । पदं द्वितीय क्रमतस्त्रिविष्टपं न वै तृतीयाय तनीयमप्वपि ।।
__भागवत, ८, २०, ३३-१४ राजा बलि अब अपनी सब धन सम्पत्ति आदि दे देने के पश्चात् बन्दी बन गया। दत्त्वा सर्व धनं मुग्धो बन्धनं लब्धवान्जलि: ।।
नैषधचरित, १७.८१ वरुगा पाश से बंधकर अब उसमें हिलने की भी सामर्थ्य न रही: __ प्रद्य याबदपि येन निबद्धौ न प्रभू बिचलितु बलिविन्ध्यौ ।
नैषध चरित, ५, १३० इसी समय ऋक्षराज जाम्बवान् ने उस विराट रूपी त्रिविक्रम की पदक्षिणा कर चारों दिशाओं में उनकी जय घोषणा की :
जाम्बवानवृक्षराजस्तु भेरीशब्दमनोजवः । विजयं दिक्षु सर्वासु महोत्सवमबोषयत् ॥
भागवत, ८,२१,८ कुछ शेष न देखकर अव बलि ने अपने सिर को ही अन्तिम पग से नापने का निवेदन किया । उसके पास अपना बचन सत्य करने के लिए अब यही उपाय था :
या तमरलोक भवान् ममेरितं वचो व्यलोकं सुखवयं मन्यते । करोम्पृतं तन्नभवेत् प्रलम्भनं पदं तृतीयं कुरु शीष्णि मेनिजम् ।।
भागवत ८, २२, २ -बलि के यह शब्द सुनकर त्रिविक्रम अत्यन्त प्रसन्न हुए। अपना तीसरा पग उसके सिर पर रखकर त्रिविक्रम ने बलि को असुरों का राजा बनाया और उसे पाताल लोक में भेज दिया।
इस प्रकार असूरों के राजा बलि से उसका साम्राज्य छीन और इन्द्र को वापस दिलाकर वामन · ने माता अदिति को प्रसन्न किया :
७. हरेर्यदक्रामि पदैककेन खं ।
नैषध चरित, १.७०
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२५६ ]
भारतीय मूर्तिकला में त्रिविक्रम जित्वा लोकत्रयं कृत्स्नं हत्वा चासुरगवान् । पुरंदराय त्रैलोक्यं ददौ विष्णुरूरुक्रमः ।।
वामन पुराण, ३१, ७० उपर्युक्त वणित कथा को प्राचीन भारतीय कलाकारों ने अत्यन्त सुन्दरता से पाषाण प्रतिमाओं के माध्यम से दर्शाया है। भारत का कोई ऐसा भाग नहीं है जो इस कथा से प्रभावित न हुआ हो। यह कथा दो प्रकार की प्रतिमानों से प्रदर्शित है। इनमें प्रथम (मायावट) वामन की है। इसमें भगवा विष्णु को विभिन्न प्रायध लिए एक बौने वैदिक ब्रह्मचारी के रूप में दिखाया गया है। इसका हमने स्थान पर वर्णन किया है देखें (चित्र १)। द्वितीय प्रकार की मूर्तियाँ (विश्वरूप) त्रिविक्रम की हैं, जिसमें उनका एक पैर आकाश नापने के लिए ऊपर उठा है।
त्रिविक्रम की प्रारम्भिक प्रतिमाओं में पवाया (मध्यप्रदेश) से प्राप्त गुप्त कालीन मूर्ति अत्यधिक खण्डित होने पर भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है (देखें चित्र २)।१० दाहिने भाग पर दान की पूर्ति के लिए संकल्प जल देने का दृश्य बना है । बांई ओर अष्टभुजी त्रिविक्रम बाएं पैर से आकाश नापते दिखाए गए हैं । यह भाग अब बहुत कुछ नष्ट हो चुका है । उसी प्रदेश के घुसाई नामक स्थान से प्राप्त उत्तर गुप्त कालीन एक अष्टभुजी प्रतिमा गदा, खड्ग, चक्र, ढाल, धनुष, तथा शंख आदि आयुध लिए है । (देखें चित्र ३) उपर्युक्त प्रतिमा की भांति ही इसमें त्रिविक्रम ग्राकाश नापते उत्कीर्ण किए गए हैं । इसी फलक पर नीचे की ओर बलि छत्रधारी वामन को दान दे रहे है । इस प्रकार एक ही फलक पर वामनावतार की दो घटनाएं प्रदर्शित है । रायपुर (मध्यप्रदेश) से प्राप्त त्रिविक्रम में उठे हुए पैर के नीचे आदिशेष का चित्रण किया मिलता है जो हाथ जोड़े बैठा हुआ है । '१
स्थान और काल भेद के कारण त्रिविक्रम प्रतिमानों में भी भिन्नता मिलती है। मध्यकाल के आगमन के साथ साथ अष्टभुजी प्रतिमाओं की अपेक्षा चर्तु भुजी प्रतिमाएं अधिक प्रचलित हो गई । इस
८. राष्ट्रीय संग्रहालय में मध्यकालीन राजस्थानी प्रस्तर प्रतिमाएं, मरूभारती, पिलानी, अक्तूबर,
१९६४, पृ० ८६-८७ ६. द्रष्टव्यः बृहच्छरीरो विमिमान ऋक्वभिर्युवा कुमारः प्रत्येत्याहवम ।
__ ऋगवेद, १, १५५, ६ स्थलेषु मायावटु वामनोऽच्यात् त्रिविक्रम: खेडवतु विश्वरूपः ।
भागवत, ६, ८, १३ वामन इति त्रिविक्रममभिवधति दशावतारविदः ।
प्रार्यासप्तशती, ६० १०. त्रिविक्रम की गुप्त कालीन अन्य प्रतिमाओं के लिए देखें: डा. अग्रवाल, केटेलोग प्रॉफ दी ब्रह्म
निकल इमेजेज इन मथुरा पार्ट, १९५१, पृ० ८ तथा वार्षिक रिपोर्ट, मथुरा संग्रहालय, १९३६-३७
चित्र II/२. ११. गोपीनाथ राव, हिन्दू आईक्नोग्रफी, पृ० १६६, चित्र x LVIII.
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वामन ब्रह्मचारी के रूप में भगवान विष्णु
चित्र-१, पृष्ठ २५६
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पवाया से प्राप्त गुप्तकालीन मूर्ति
चित्र - २, पृष्ठ २५६
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घुसाई से प्राप्त अष्टभुजी त्रिविक्रम की प्रतिमा
चित्र-३, पृष्ठ २५६
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प्रोसियां के विष्ण मन्दिर में चतुर्भुजी त्रिविक्रम
चित्र-४, पृष्ठ २५७
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काशीपुर (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त प्रतिहार कालीन त्रिविक्रम चित्र - ५, पृ० २५८
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चित्र-६, पृ० २५६
महाबलीपुरम् की त्रिविक्रम प्रतिमा
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चित्र-७, पृ० २५६
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मैसूर में हलेविद के होयसलेश्वर मंदिर की त्रिविक्रम प्रतिमा
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पाल तथा सेन कालीन त्रिविक्रम की प्रतिमा
मुशिदाबाद से प्राप्त चित्र-८, पृ० २६०
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बजेन्द्र नाथ शर्मा
२५७ ] लेख में वर्णित निम्नलिखित उत्तरी भारत की मध्यकालीन कुछ प्रतिमाओं से यह बात पूर्णतया स्पष्ट होगी।१२ - मन्डोर (राजस्थान) से प्राप्त एवं जोधपुर संग्रहालय में सुरक्षित प्रतिमा पर एक साथ छत्रधारी वामन तथा त्रिविक्रम प्रदर्शित मिलते हैं । १3 राजस्थान से प्राप्त एक अन्य त्रिविक्रम प्रतिमा का वर्णन एवं चित्रण गोपीनाथ राव ने प्रस्तुत किया है। प्रतिमा इन्डियन म्यूजियम, कलकत्ता में है। त्रिविक्रम के उठे बाएं पैर के ऊपर ब्रह्मा पद्मासन पर विराजमान हैं । दाहिने पैर के समीप वीणाधारिणी देवी खड़ी हैं और सामने गरुड़ शुक्राचार्य पर झपटता सा प्रतीत होता है ।१४ विलास तथा अट्र से प्राप्त त्रिविक्रम की अन्य मूर्तियां कोटा संग्रहालय में देखी जा सकती हैं ।
मन्दिरों की नगरी ओसियां (जोधपुर) १५ में स्थित विष्णु मन्दिर के पीछे की दीवार पर चत भजी त्रिविक्रम की भव्य प्रतिमा निर्मित है। १६ ऐसी ही एक अन्य प्रतिमा 'माता का मन्दिर' पर भी देखी जा सकती है ।१७ यहीं के सूर्य मन्दिर १ पर बनी चर्तुभुजी मूर्ति में राक्षस नमुचि भगवान् का दाहिना पैर पकड़े प्रदर्शित है और बांया पैर ऊपर उठा है ! सामने निचले भाग पर बलि द्वारा वामन को दान देने का दृश्य अंकित है (चित्र ४) । त्रिविक्रम की एक प्रतिमा बुचकला के प्रसिद्ध पार्वती मन्दिर के एक आले में विद्यमान है । चित्तौड़गढ़ के कुम्भ स्वामी मन्दिर पर भी त्रिविक्रम की एक प्रतिमा बनी है।१७ अकसरा (गुजरात) में स्थित विष्णु के एक देवालय की विभिन्न ताकों में गरुड़ासीन लक्ष्मी नारायण, वराह आदि मूर्तियों के साथ त्रिविक्रम की भी एक खण्डित मूर्ति विद्यमान है । १८
भुवनेश्वर (उड़ीसा) के अनन्त वासुदेव मन्दिर के उत्तरी अोर के एक प्राले में त्रिविक्रम का चित्रण प्राप्त है।१६ यहीं के प्रसिद्ध लिंगराज मन्दिर के चारों ओर निर्मित छोटे छोटे देवालयों में अन्य देवी-देवताओं के साथ त्रिविक्रम की भी प्रतिमा मिलती है । २०
कुरुक्षेत्र (पंजाब) से त्रिविक्रम की एक महत्वपूर्ण मूर्ति उपलब्ध है ! इसमें वे चक्र पुरुष तथा शंख पुरुष नामक आयुध-पुरुषों सहित खड़े हैं । नीचे दोनों ओर लक्ष्मी और भूमि है। किनारों पर नाग
१२. शिवराममूर्ति, सी०, ज्योग्रेफिकल एण्ड क्रोनोलोजिकल फेक्टर्स इन इण्डियन प्राईक्नोग्राफी, ऐन्शियन्ट
इन्डिया, जनवरी, १९५०, नं० ६, पृ० ४१ १३. ऐनुअल रिपोर्ट, प्रक्यिोलोजिकल सर्वे ऑफ इन्डिया, १६०९-१०, पृ० ६७ १४. एलीमेन्टस ऑफ हिन्द प्राईक्नोग्राफी, I, i, पृ० १६४, चित्र, LII, I १५. ओसियां के देवालयों में त्रिविक्रम के चित्रण के लिए देखें ऐ० रि०, प्रा० सर्वे ऑफ इन्डिया,
१६०८-०६, पृ-११३ १६. प्रा० स० अॉफ इन्डिया, फोटो एल्बम, राजस्थान, चित्र नं० १२८१/५८ १७. व्ही, चित्र नं० १२५३/५८ १७ अ०, व्ही, २२६१/५५ १८. मजूमदार, ए० के०, चालुक्याज ऑफ गुजरात, पृ० ३८१ १६. दी उड़ीसा हिस्टोरिकल जर्नल, १९६२, X, नं० ४, पृ० ७१ २०. बैनर्जी, आर० डी०, हिस्ट्री प्रॉफ उड़ीसा, II, पृ० ३६४
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२५८ ]
भारतीय मूर्तिकला में त्रिविक्रम
नागिन का चित्रण है । मस्तक के दोनों ओर ब्रह्मा, शिव तथा गजारूढ इन्द्र हैं । प्रतिमा के ऊपरी भाग में एक पंक्ति में सप्तऋषि विराजमान है ।२१
काशीपुर (उत्तरप्रदेश)से प्राप्त प्रतिहारकालीन त्रिविक्रम को मूर्तिकार ने शिल्परत्न के अनुसार दाहिने पैर से आकाश नापते चित्रित किया है। उनके हाथों में क्रमशः पद्म, गदा, और चक्र हैं। नीचे वाले बायें हाथ में, जो खण्डित हो गया है, सम्भवतः शंख ही था ।२२ त्रिविक्रम के ऊपर उठे पैर के नीचे का दृश्य दो भागों में बना है-प्रथम में मुकुटधारी राजा बलि२3 छत्रधारी वामन के दाहिने हाथ में कमण्डलु से जल गिरा रहे हैं । बलि के इस कार्य से असन्तुष्ट शुक्राचार्य वहीं मुह फेरे खड़े हैं। इनके शरीर पर धारण किया हुअा वस्त्रयज्ञोपवीत स्पष्ट है। दूसरे भाग में वामन के पीछे बलि को पाश से बांधे एक सेवक बना है ! मूर्ति पर्याप्त रूप से सुन्दर है (चित्र ५) ।२४
दीनाजपुर से प्राप्त विष्णु (त्रिविक्रम) की एक अन्य प्रतिमा मूर्तिकला की दृष्टि से विशेष महत्त्व की है। यहां वे सांप के सात फरणों के नीचे खड़े हैं तथा गदा व चक्र पूर्ण विकसित कमलों पर प्रदर्शित हैं । डा० जे० एन० बैनर्जी के विचार में यह विष्णु प्रतिमा महायानी प्रभाव से प्रभावित है,२५ क्योंकि इन आयुधों को कमल पर रखने का तरीका मञ्जुश्री और सिंहनाद लोकेश्वर की प्रतिमाओं की भांति है।
___ उपर्युक्त वरिणत घुसाईं, प्रोसियां, काशीपुर आदि स्थानों से प्राप्त प्रतिमाओं में त्रिविक्रम के ऊपर उठे पैर के ऊपर एक विचित्र मुखाकृति (grinning facs) मिलती है ! यह विद्वानों में काफी विवाद का विषय रहा है ! गोपीनाथ राव ने वराहपुराण को उधत करते समय विचार व्यक्त किया था कि जब त्रिविक्रम ने स्वर्ग नापने के लिए अपना पैर ऊपर उठाया तो उसके टकराने से ब्रह्माण्ड फट गया और उस टूटे ब्रह्माण्ड की दरारों से जल बहने लगा। यह मूख सम्भवतः ब्रह्माण्ड की उस अवस्था को दर्शाता है ।२६ कालान्तर में डा० स्टेल्ला क्रेमरिश,२७ डा० आर० डी० बेनर्जी, डा० जे०
२१. ऐ० रि०, प्रा० स० प्रॉफ इन्डिया, १६२ । २२३, पृ. ८६ २२. 'पद्म कौमोदकी चक्र शंख धत्त त्रिविक्रमः ॥७॥ २३. इसके विपरीत बादामी की गुफा में इसी प्रकार के बने एक अन्य दृश्य में राजा बलि का वामन को
दान देते समय शीश मुकुट रहित है। २४. राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, नं० एल-१४३ २५. हिस्ट्री ऑफ बंगाल I, पृ० ४३३-४३४ २६. "That when the foot of Trivikrama was Lcifted to measure the heaven
world, the Brahmanda burst and cosmte water began to pour down through the clefts of the broken Brahmanda, This face is perhaps meant to represent the Brahmanda in that condition,"
एलर्लामेन्ट्स प्राफ हिन्दु पाईक्नोग्रफी, I, i, पृ० १६७ २७. दो हिन्दु टेम्पिल, II, पृ० ४०३-४०४
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ब्रजेन्द्र नाथ शर्मा
२५६ ]
एन० बेनर्जी २८ और श्री सी० शिवराममूर्ति आदि ने इसे राहु बताया है । इन विद्वानों के अनुसार मध्यकालीन कला में राहु का इस प्रकार चित्रण किया जाता था । नीचे दिये नैषधचरित के श्लोक से भी इस मत की पुष्टि होती है । २६
30
उत्तरी भारत की भांति दक्षिणी भारत में त्रिविक्रम की प्रतिमाएं बादामी की गुफा नं० ३ (छठीं श० के उत्तरार्ध ), ३ महाबलिपुरम् के गणेश रथ ( ७वीं श० ई०) तथा अलोरा ८वीं श० ई०) ३१ आदि अनेक स्थानों में उत्कीर्ण मिलती है ! ३२ इन प्रतिमात्रों में महाबलिपुरम् वाली प्रतिमा विशेष रूप से उल्लेखनीय है ( चित्र ६) । यह अष्टभुजी प्रतिमा अपने छः हाथों में चक्र, गदा, खड्ग तथा शंख, खेटक, धनुष प्रादि प्रायुध धारण किए है। दो रिक्त हाथों में दाहिना हाथ वैखानसागम के अनुसार ऊपर उठा है तथा साथ वाला बांया हाथ उठे हुए बाएं पैर के समानान्तर है । प्रतिमा के दोनों और पद्मासन पर चतुर्भुजी शिव एवं ब्रह्मा का चित्रण है तथा नीचे सूर्य एवं चन्द्र का अंकन हैं । ऊपर मध्य में वराहमुखी जाम्बवन त्रिविक्रम की विजय पर हर्षध्वनि कर रहा है और ऊपर वर्णित ओसियां की प्रतिमा की भांति नमुचि राक्षस भगवान् का दाहिना पैर पकड़े है ।
दक्षिण भारत में, मैसूर में हलेबिद के प्रसिद्ध होयसलेश्वर मन्दिर पर निर्मित त्रिविक्रम की प्रतिमा भी कम महत्व की नहीं है (चित्र ७ ) । मध्यकालीन होयसल कलां प्रत्यधिक सुसज्जित मूर्तियों एवं कोमल अलंकरण के लिए सर्वत्र विख्यात है । प्रस्तुत प्रतिमा काशीपुर की प्रतिमा की भांति ही शिल्परत्न के अनुसार है । त्रिविक्रम के उठे दाहिने पैर के ऊपर ब्रह्मा है, जो उसे गंगा के पवित्र जल से धो रहे हैं । नीचे बहती गंगा स्पष्ट रूप से दीखती है । कुशल कलाकार ने इसे नदी का रूप देने के लिए इसमें मछली एवं कछुयों का सुन्दरता से चित्रण किया है। पैर के नीचे प्रालीढासन में गरुड़ है, जिसके हाथ प्रञ्जली मुद्रा में हैं । त्रिविक्रम के बाएं पैर के समीप चामरवारिणी सेविका है । प्रतिमा के ऊपरी भाग में जो लतायें आदि हैं, उनका आशय सम्भवतः कल्पवृक्ष से है । इस प्रतिमा के देखने मात्र से ही मूर्तिकार की उच्चतम कार्यकुशलता का सहज ही में आभास हो जाता है ।
२८. दी डेवलपमेन्ट श्रॉफ हिन्दु ग्राईक्नोग्राफी, पृ० ४१६ २६. माँ त्रिविक्रम पुर्नाहि पदेते कि लगन्नजनिराहु रूपानत् । कि प्रदक्षिणनकृद्ामि पाशं जाम्बवान दित ते बलिबन्धे ||
- नैषध चरित, २१, ६६
३०. गोपीनाथ राव, ऐलीमेन्टस श्रॉफ हिन्दु श्राईक्नोग्राफी, पृ० १७२ चित्र L ३१. वही, पृ० १७४, चित्र LI
३२. इस सम्बन्ध में हम त्रिविक्रम (८वीं श० ई०) की एक कांस्य प्रतिभा को भी ले सकते हैं जिसमें वे बायें पैर से आकाश नापते प्रदर्शित किये गए हैं । प्रस्तुत प्रतिमा सिंगनल्लूर ( जिला कोयम्बटूर ) के एक प्राचीन मन्दिर में अब भी पूजी जाती है । शिवराममूर्ति, सी, साऊथ इन्डियन ब्रान्जेज, पृ० ७१; चित्र १५०
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________________ 260 ] भारतीय मूर्तिकला में त्रिविक्रम पूर्वी भारत में बंगाल-बिहार की पाल तथा सेन कालीन प्रतिमानों में एक उठे पैर की कुछ मूर्तियां प्राप्त हैं / 33 किन्तु अधिकांश में त्रिविक्रम को पूर्ण विकसित कमल पर समभंग मुद्रा में खड़े (स्थानक) प्रदर्शित किया गया है (चित्र 8) / इन प्रतिमाओं में आयुधों का क्रम उसी प्रकार है जैसा कि हम उपर्युक्त वणित त्रिविक्रम की अन्य मूर्तियों में देख चुके हैं। वे किरीट-मुकुट, कर्णपूर, रत्नकुण्डल, हार, उपवीत, कटिबन्ध, वनमाला, वलय, वाहुकीर्ति, नूपुर, उत्तरीय तथा परिधान आदि धारण किये हैं / प्रतिमा के पैरों के पास लक्ष्मी व जया तथा सरस्वती व विजया हैं / 34 मुख्य मूर्ति के दोनों ओर मध्य में सवार सहित गज-शार्दल, मकरमख, तथा नुत्य एवं वीणा वादन करते गन्धर्व यगल हैं। सिर पीछे की कलात्मक प्रभावली के दोनों ओर बादलों में मालाधारी विद्याधर बने हैं। सबसे ऊपर मध्य में कीर्तिमुख है। पीठिका पर मध्य में विष्णु का वाहन गरुड, दानकर्ता एवं उसकी पत्नी एवं उपासकों के लघुचित्रण हैं। इस प्रकार से ये प्रतिमायें उन प्रतिमानों से सर्वथा भिन्न हैं, जिन पर एक ही साथ बलि द्वारा वामन को दिए जाने वाले दान का तथा उसकी प्राप्ति पर त्रिविक्रम द्वारा आकाशादि नापने का चित्रण मिलता है। भगवान् विष्णु की पूजा त्रिविक्रम के रूप में प्राचीन भारतवर्ष में विशेषरूप से प्रचलित थी। इसका अनुमान हम उनकी अनेकों प्रतिमानों के अतिरिक्त साहित्य एवं शिलालेखों से भी कर सकते हैं। इनका कुछ निदर्शन हम ऊपर कर चुके हैं / शिलालेखों से दो लेख उदधृत हैं। पायासूवं (ब) लिवन्च (च) न व्यतिकरे देवस्य विक्रान्तयः सद्यो विस्मित देवदानवनुतास्तिस्त्रस्त्रि (लो) की हरेः / यासु व (ब) ह्मवितोरार्णमघसलिलं पादारविन्दच्युतं / धत्ते द्यापि जगत्र (व) यैकजनकः पुरायं स मुर्छा हरः / / 35 तथा भग्नम् पुनर्नू तनमत्र कृत्वा ग्रामे च देवायतनद्वयं यः / पितुस् तथार्थेन चकार मातुस् त्रिविक्रमं पुष्करिणीभि माञ्च // 36 33. क्रेमरिश, स्टेल्ला, पाल एन्ड सेन स्कल्पचर, रूपन, अक्टबर 1626, नं० 40, चित्र 27; भट्टसाली एन० के०, आईकनोग्राफी प्रॉफ बुद्धिस्ट ऐन्ड ब्रह्म निकल स्कल्पचर्स इन दी ढाका म्यूजियम, पृ० 105, चित्र, XXXVIII; बेनर्जी, पार० डी०, ईस्टर्न इन्डियन स्कूल ऑफ मेडिवल स्कल्पचर्स, चित्र, XLVI 34. त्रिविक्रम की कुछ प्रतिमाओं में लक्ष्मी व सरस्वती के स्थान पर प्रायुध पुरुषों का भी चित्रण मिलता है / द्रष्टव्यः जर्नल ऑफ बिहार रिसर्च सोसाइटी, 1954, 40, IV, पृ० 413 तथाागे / 35. एपिग्राफिया इन्डिका, I, पृ० 124, श्लोक 2 व्ही, XIII, पृ० 285, श्लोक 24 इस लेख के लिखने में मुझे अपने श्रद्धय गुरु डा० दशरथ शर्मा, एम० ए०, डी० लिट से विशेष सहायता मिली है, जिसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूं। लेख में पाए चित्रों के लिए मैं ग्वालियर संग्रहालय, राष्ट्रीय संग्रहालय तथा प्रा० सर्वे ऑफ इन्डिया का आभारी हूं।