Book Title: Bharatiya Chintan me Dan ki Mahima
Author(s): Babulal Jain
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211544/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय चिंतन में दान की महिमा बाबूलाल जैन 'उज्ज्वल' बम्बई सम्पादक - समग्र जैन चातुर्मास-सूची जैनएकता-संदेश... भारत के समस्त धर्मों में, इस तथ्य में किसी भी प्रकार देने वाला भी दबाव से ही देता है। आज के समाज की स्थिति का विवाद नहीं है कि 'दान' एक महान् धर्म है। दान की भेद- ही इस प्रकार की हो गई है कि लेना भी पड़ता है और देना भी प्रभेद व्याख्या एवं परिभाषा चाहे विभिन्न हो सकती है, परन्तु पड़ता है। न लेने वाला प्रसन्न है और न देने वाला ही। यही 'दान' एक प्रशस्त धर्म है, इस सत्य में जरा-भी अन्तर नहीं है। कारण है कि 'दान' शब्द से पूर्व कुछ विशेषण जोड़ दिए गए हैं - दान-धर्म उतना ही पुराना है, जितनी मानवजाति है। दान का जैसे - 'करुणादान', 'अनुकम्पादान' एवं 'कीर्तिदान' आदि। पर्व रूप सहयोग ही रहा होगा। सह-अस्तित्व के लिए परस्पर वैदिक षडदर्शनों में दानमीमांसा - सहयोग आवश्यक भी था। समाज में सभी प्रकार के व्यक्ति । होते थे - दर्बल भी और सबल भी। अशक्त मनष्य अपने जीवन वैदिक परम्परा में षड्दर्शनों में सांख्य-दर्शन और वेदांत को कैसे धारण कर सकता है? जीवन धारण करने के लिए भी दर्शन ज्ञान प्रधान रहे हैं। दोनों में ज्ञान को अत्यंत महत्त्व मिला शक्ति की आवश्यकता है। शक्तिमान मनुष्य ही अपने जीवन है। वहाँ आचार को गौण स्थान मिला है। वेदमूलक षड्दर्शनों में को सचारू रूप से चला सकता था और वह दर्बल साथी का एक मीमांसादर्शन को छोड़कर शेष पाँच दर्शनों में दान का कोई सहयोग भी कर सकता था। यह सहयोग समानता के आधार पर महत्त्व नहीं है, न उसका विधान है, न उसकी व्याख्या ही की गई किया जाता था और यह किसी प्रकार की शर्त के किया जाता है। था। न तो सहयोग देने वाले में अहंभाव होता था और न सहयोग श्रमण-परम्परा में दानमीमांसा पाने वाले में दैन्य-भाव होता था। भगवान महावीर ने अपनी भाषा में परस्पर के इस सहयोग को 'संविभाग' कहा था। संविभाग वेदविरुद्ध श्रमणपरम्परा में तीन सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं - का अर्थ है - सम्यक रूप से विभाजित करना। जो कछ तम्हें जैनबौद्ध और आजीवक। आजीवक-परम्परा का प्रवर्तक उपलब्ध हआ है वह सब तम्हारा अपना ही नहीं तो गौशालक था। वह नियतिवादी के रूप में भारतीय दर्शनों में साथी, पड़ौसी का भी उसमें, सहभाव था सहयोग रहा है। बहुचर्चित एवं विख्यात था। उसकी मान्यता थी कि जो भाव महावीर के इस 'संविभा' में न अहं का भाव है और न ही नियत हैं, उन्हें बदला नहीं जा सकता। आज के इस वर्तमान युग दीनता का भाव। इसमें एकमात्र समत्व भाव ही विद्यमान है। में आजीवक-सम्प्रदाय का एक भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, अतः लेने वाले के मन में जरा भी ग्लानि नहीं है, क्योंकि वह अपना दान के सम्बन्ध में गौशालक के क्या विचार थे, कुछ भी कहा ही हक ग्रहण कर रहाहै और देने वाला भी यही समझ रहा है कि नहीं जा सकता। उसके नियतिवादी सिद्धांत के अनुसार तो उसकी मैं यह देकर कोई उपकार नहीं कर रहा हूँ। लेने वाला मेरा। विचारधारा में दान का कोई फल नहीं है। अपना ही भाई है, कोई दूसरा नहीं है। बौद्ध-परम्परा में आचार की प्रधानता रही है। इस परम्परा बाद में आया 'दान' शब्द। इसमें न सहयोग की सहृदयता में शील को प्रधानता दी गई है। मनुष्य-जीवन में उत्थान के लिए है और न संविभाग की व्यवस्था एवं दार्शनिकता ही है। आज जितने भी प्रकार के सत्कर्म है, वे सब शील में समाहित हो जाते के युग में 'दान' शब्द काफी बदनाम हो चुका है। देने वाला दान । हैं। बुद्ध ने शील को बहुत ही महत्त्व दिया है। दान भी एक देता है अहंकार में रहकर और लेने वाला ग्रहीता लेता है, सिर सत्कर्म है, अत: यह भी शील की ही सीमा के अंदर आ जाता नीचा करके। देने वाला अपने को उपकारी मानता है और लेने हा वाला अपने को उपकृत। लेने वाला बाध्य होकर लेता है और बौद्ध धर्म में बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए जिन दस oriwordarbaridwardrowdrawbridwardwordwardwari M २५ideorardwaridwardwidwardririonitonitonitoridabrand Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पतीन्द्र सूरिस्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार --- पारमिताओं का वर्णन किया गया है, उनमें से एक पारमिता दान भी कल्याण हो और ग्रहीता का भी कल्याण हो। दाता स्वार्थ - को भी माना गया है। दान के सम्बन्ध में बुद्ध ने 'दीघनिकाय' में रहित होकर दे और पात्र भी स्वार्थशून्य होकर ग्रहण करे। वह कहा है कि 'सत्कारपूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो, मन से दान, जिसके देने से दाता के मन में अहं-भाव न हो और लेने दान दो, दोषरहित पवित्र दान दो' इस प्रकार के दान को पवित्र वाले के मन में दैन्यभाव न हो। इस प्रकार का दान विशुद्ध दान दान कहा गया है। बुद्ध ने कहा है कि श्रद्धा से दिया गया दान है। यह दान ही वस्तुतः मोक्ष का कारण है। न देने वालों पर प्रशस्त दान है। यदि दान में श्रद्धा-भाव नहीं है, तो वह दान तुच्छ किसी प्रकार का भार और न लेने वालों को किसी प्रकार की दान है। धर्म का दान सब दानों से बढ़कर है। धर्म का रस सब ग्लानि। यह भव बंधन काटने वाला दान है। यह भव-परम्परा रसों से श्रेष्ठ है। का अंत करने वाला दान है। जैन-परम्परा में भी दान को एक सत्कर्म माना गया है। इसी प्रकार ब्राह्मण और आरण्यक-साहित्य में भी दान जैन-धर्म न एकांत क्रियावादी है न एकांत ज्ञानवादी है और न को विशेष महत्त्व दिया गया है। रामायण, महाभारत एवं संस्कृत एकांत श्रद्धावादी ही है। श्रद्धा, ज्ञान और आचरण इन तीनों के महाकाव्यों में भी दान के विषयों में काफी विस्तार से वर्णन करते समन्वय से ही मोक्ष की संप्राप्ति होती है, फिर भी जैन धर्म को हुए दान की महिमा का उल्लेख किया है। सभी ने दान को उत्कृष्ट आचार-प्रधान कहा जा सकता है। ज्ञान कितना भी ऊँचा हो, दान कहा है। कवि कालिदास, तुलसी, कबीर, रहीम आदि कवियों यदि साथ में उसका आचरण नहीं है, तो जीवन का उत्थान नहीं ने भी दान की महिमा सुन्दर ढंग से कही है। हो सकता। जैन परम्परा में सम्यग् दर्शन सम्यग् ज्ञान और भारत के धर्मों के समान बाहर से आने वाल धर्मों - भारत के धर्मों के समान ब सम्यग चारित्र को मोक्ष-मार्ग कहा गया है। दान का सम्बन्ध ईसाई और मस्लिम धर्मों में भी दान का बडा ही महत्त्व माना चरित्र से ही माना गया है। आहारदान, औषधिदान और अभयदान गया है। इन धर्मों में दान की महिमा का ही वर्णन नहीं किया आदि अनेक प्रकार के दानों का वर्णन विविध ग्रंथों में उपलब्ध गया, बल्कि दान पर बल भी दिया गया है। दान के अभाव में होता है। भगवान महावीर ने 'सूत्रकृतांग' में अभयदान को सबसे ईसा मनुष्य का कल्याण नहीं मानते। बाइबिल में दान के विषय श्रेष्ठ दान कहा है। में कहा गया है कि तुम्हारा दायाँ हाथ जो देता है, उसे बायाँ हाथ 'अभयदान' ही सर्वश्रेष्ठ दान है। दूसरे के प्राणों की रक्षा ही न जान सके, ऐसा दान दो। कुरआन में दान के सम्बन्ध में बहुत अभयदान है। आज की भाषा में इसे ही जीवनदान कहा गया है। ही सुन्दर कहा गया है कि प्रार्थना ईश्वर की तरफ आधे रास्ते भगवान महावीर ने कहा है कि 'मेघ चार प्रकार के होते हैं - एक तक ले जाती है। उपवास महल के द्वार तक पहुँचा देता है और गर्जना करता है, पर वर्षा नहीं करता। दूसरा वर्षा करता है, पर दान से हम अन्दर प्रवेश करते हैं । जिसमें दान देने की शक्ति है। गर्जना नहीं करता। तीसरा गर्जना भी करता है और वर्षा भी उसके पास देने को कुछ भी नहीं और जिसमें देने की शक्ति न करता है। चौथा न गर्जना करता है और न ही वर्षा करता है। मेघ हो, वह सब कुछ देने को तैयार रहता है। अत: दान देना उतना के समान मनुष्य भी चार प्रकार के होते हैं - कुछ बोलते हैं, देते सरल नहीं है, जितना समझ लिया जाता है। दान से बढ़कर नहीं। कुछ देते हैं, किन्तु कभी बोलते नहीं। कुछ बोलते भी हैं और अन्य कोई पवित्र धर्म नहीं है। एक कवि ने बहुत ही सुन्दर कहा देते भी हैं। कुछ न बोलते हैं, न देते ही हैं। इस कथन से दान की है कि दान से सभी प्राणी वश में हो जाते हैं, दान से शत्रुता का महिमा एवं गरिमा स्पष्ट हो जाती है। जैनपरम्परा में धर्म के चार नाश हो जाता है। दान से पराया भी अपना हो जाता है। दान अंग स्वीकार किए गये हैं - दानशील, तप एवं भाव। इनमें दान ही महिमा सभी विपत्तियों का नाश कर देता है। इस प्रकार समस्त मुख्य एवं प्रथम है। 'सुखविपाकसूत्र' में दान का ही गौरव गाया साहित्य दान से भरा पड़ा है। दान की परम्परा संसार में भूतकाल में गया है। भी थी। वर्तमान में भी है और भविष्य में भी हमेशा विद्यमान रहेगी। भगवान महावीर ने बहुत सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है। जैन-परम्परा में आचार्य अमितगति के द्वारा लिखा गया 'मधादायी' और 'मधाजीवी'। दान वही श्रेष्ठ है, जिससे दाता का एक ग्रंथ 'अमितगति-श्रावकाचार' में बड़े विस्तार के साथ दान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन-साधना एवं आचार - की मीमांसा की गई है। ग्रंथ में लिखा है कि दान, पूजा, शील दान के फल के सम्बन्ध में आचार्य ने बहुत सुन्दर कहा और उपवास भवरूप को भस्म करने के लिए ये चारों ही आग है, जैसे - मेघ से गिरने वाला जल एकरूप होकर भी नीचे के समान है। पूजा का अर्थ है जिनदेव की भक्ति। भाव के आधार को पाकर अनेक रूपों में परिणत हो जाता है, वैसे ही स्थान पर पूजा का प्रयोग आचार्य ने किया है। दाता के कुछ एक ही दाता से मिलने वाला दान विभिन्न - उत्तम, मध्यम और विशेष गणों का भी आचार्य ने अपने ग्रंथ में उल्लेख किया है - जघन्य पात्रों को पाकर विभिन्न फल वाला हो जाता है। अपात्र विनीत हो, भोगों से नि:स्पृह हो, समदर्शी हो, परीषहसही हो, को दिए गए दान के बारे में कहा गया है कि जिस तरह कच्चे प्रियवादी हो, मत्सररहित हो, संघवत्सल हो और सेवापरायण भी घड़े में डाला गया जल अधिक देर तक नहीं टिक पाता और होना चाहिए। दान की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य ने घड़ा भी फूट जाता है, वैसे ही गुणहीन अर्थात् अपात्र को दिया कहा है कि जिस घर में से योगी को भोजन न दिया गया हो। उस गया दान भी निष्फल हो जाता है और लेने वाला नष्ट हो जाता गृहस्थ के भोजन से क्या प्रयोजन? कुबेर की निधि भी उसे मिल है। जाए, तो क्या? आचार्य ने अपने ग्रंथ में चार प्रकार के दानों का वर्णन योगी की शोभा ध्यान से होती है, तपस्वी की शोभा संयम किया है - अभयदान, अन्नदान, औषधदान एवं शास्त्रदान। शोभा दान से होती है। जो भोजन करने से पूर्व साधु के आगमन की प्रतीक्षा करता है, साधु का लाभ न मिलने पर भी वह दान का भागी है। दान के चार भेद कहे हैं - अभयदान, अन्नदान, औषधदान एवं ज्ञानदान। अन्नदान को आहारदान भी कहा जाता है और सबसे श्रेष्ठ दान कहा गया है। मंगलपाठ में भी दान की महिमा का वर्णन किया गया है - "भवि भावन भाविये, भावे कीजे दान / दान से आज पूरे भारत की सभी तरह की संस्थाएँ जीवित उत्तम पात्र कहा गया है। देशव्रतधारक श्रावक को मध्यम पात्र में कछ नहीं बचेगा। दान भकाल में भी दिया जाता था. वर्तमान कहा है। अविरतसम्यग दृष्टि को जघन्य पात्र कहा गया है। में भी दिया जाता है और भविष्य में भी दिया जाता रहेगा। कबीर विधिपूर्वक दिया गया थोड़ा दान भी महाफल प्रदान करता ने कहा भी है - है, जिस प्रकार धरती में बोया गया छोटा-सा वट-बीज भी समय चिड़ी चोंच भर ले गयी, नदी न घटियो नीर, पर एक विशाल वृक्ष के रूप में चारों ओर फैल जाता है, जिसकी दान देने से धन न घटे, कह गए दास कबीर / छाया में हजारों प्राणी सुख भोग करते हैं, उसी प्रकार विधि-सहित दान की महिमा सर्वोपरि है,सभी दानों में अभयदान सर्वोपरि छोटा-सा दान भी महाफल देता है। जय जिनेन्द्र