Book Title: Bhamashaha Kavadiya Author(s): Ramvallabh Somani Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/211535/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामवल्लभ सोमानी भामाशाह कावड़िया भामाशाह कावड़िया मेवाड़ के महाराणा प्रताप और अमरसिंह (प्रथम) के प्रधान मंत्री थे। स्वाधीनता के दिव्य पुजारी महाराणा प्रताप ने अपने देश की रक्षा के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया था। इस कार्य में उसकी प्रजा उसके प्रधान एवं अन्य लोग भी सहायक थे। भामाशाह के पिता भारमल ओसवाल जाति के कावडिया गोत्र के थे। वे मूलरूप से अलवर में रहते थे इनकी योग्यता, लगनशीलता देखकर महाराणा सांगा ने इन्हें रणथंभोर दुर्ग में लगा दिया था। महाराणा उदय सिंह के समय में वे वहां किलेदार नियुक्त हो गये। कुछ समय बाद यह परिवार चितौड़ आ गया। चितौड़ में महाराणा प्रताप ने भामाशाह को अपना प्रधान बनाया। उसके द्वारा जारी किये गये कई दान पत्रों में भामाशाह का नाम भी अंकित है। हल्दीघाटी के युद्ध में भामाशाह ने अपना अपूर्व शौर्य प्रदर्शित किया था। शाहवाजखां द्वारा कुंभलगढ़ आदि क्षेत्र जीतने के बाद प्रताप बहुत ही परेशान हो गये। उन्होंने एक बार मेवाड़ छोड़ने का निर्णय ले लिया। उस समय भामाशाह ने अपना सारा धन लाकर महाराणा के सामने रख दिया। उसने कहा कि मेरा यह धन देश की रक्षा के लिए काम आवे इससे अच्छा मेरा क्या काम होगा । लुंका गच्छीय पदावली जिसे 17वीं शताब्दी में लिखा गया था, और इसे नागपुरीय लुकागच्छीय पदावली के नाम से जाना जाता है, में भामाशाह के परिवार का विस्तार से उल्लेख है। इसमें लिखा है कि भामाशाह ने लुकागच्छ के प्रचार के लिए जी तोड़कर कोशिश की। आज भीलवाड़ा, चितौड़ एवं राजसमन्द जिले में कोई भी मन्दिर मानने हीरक जयन्ती स्मारिका वाला जैन श्रावक नहीं है। मैने अपने गांव गंगापुर (भीलवाड़ा) में रहते हुए लगभग 25 वर्ष की उम्र तक किसी बिना मुंहपत्ती वाले जैन साधु को नहीं देखा था । मैं पहली बार जब सुमेरपुर गया तब वहां बिना मुंहपत्ती वाले जैन साधुओं को देखा तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने वहां लोगों से पूछा कि इनके मुंहपती क्यों नहीं है तो उन्होंने बताया कि आप शायद मेवाड़ से आये हो। यहां तो मुंहपत्ती वाला कोई साधु नहीं है। मेवाड़ में बाईस सम्प्रदाय के फैलाव का मुख्य श्रेय भामाशाह को है। इनके निरन्तर प्रयास से ही यह सम्प्रदाय बड़ी तेजी से फैला बाईस सम्प्रदाय के कई साधुओं जिन्हें इन्होंने अपना आश्रय दिया था, मेवाड़ के एक-एक गांव में घूम-घूम कर अपना प्रचार किया था। आज मेवाड़ की स्थिति यह है कि यहां सैकड़ों प्राचीन जैन मन्दिर है। कई सुन्दर कलापूर्ण मूर्तियां है किन्तु इनके ताले बंद रहते हैं। एक समय मन्दिर की पूजा कोई पुजारी आकर के करता है। इन्हें पूजा के बाद बंद कर दिया जाता है। यह सब भामाशाह के निरंतर प्रयास के कारण ही हुआ है। भामाशाह और ताराचंद दो सगे भाई थे। भामाशाह मेवाड़ का प्रधान मंत्री रहा था और ताराचंद गोड़वाड़ प्रदेश का हाकिम ताराचंद बड़ा ही कलाप्रेमी था। उसके साथ कई गायिकायें आदि भी सती हुई थीं। उसकी मृत्यु सादड़ी में वि. सं. 1654 में हुई थी। वहां एक शिलालेख भी लग रहा है। इसे मैंने कई वर्षों पूर्व प्रकाशित कर दिया है (मरूधर केसरी अभिनन्दन ग्रन्थ में प्रकाशित) । इस शिलालेख के प्रारम्भ में भारमल एवं उसकी पत्नी कर्पूर देवी का उल्लेख है उसके द्वारा सादड़ी (गोडवाड़) में एक बावड़ी और बाग बनाने का भी उल्लेख है । यह स्थान घाणेराव के मार्ग पर है। उसने कई ग्रन्थों की सादड़ी में प्रतिलिपि करायी थी । इनमें गोराबादल चौपाई बहुत सुप्रसिद्ध है। ताराचंद को आज भी सादड़ी बहुत याद किया जाता है। में भामाशाह की मृत्यु वि.सं. 1656 माधसुदि 11 के दिन इक्कावन वर्ष आयु में हुई थी। “वीर विनोद" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि भामाशाह ने कई बड़ी एवं छोटी लड़ाइयां लड़ी थीं। उसके बाद उसका पुत्र जीवाशाह मेवाड़ का प्रधान मंत्री रहा था ऐसा प्रतीत होता है कि जीवाशाह के बाद इस परिवार को वह सम्मान नहीं दिया गया, जो भामाशाह को मिला था लेकिन वि. सं. 1912 में ओसवालों की न्यात में उदयपुर में इन्हें पहले तिलक करने का आदेश महाराणा स्वरूपसिंह ने दिया था। इस सम्बन्ध में एक परवाना दिया जिसका अंश इस प्रकार से "स्वस्ति श्री उदयपुर सुभे सूधानेक महाराणा श्री स्वरूप सिंह जी आदेशात कावड़िया जैचंद कुणनो, वीरचंद कस्य अप्रंच थारा, बड़ावा भामों कावड़ियां है राज म्है साम धमासुं काम चाकरी करी जीं की मरजाद से ठेठ सू म्यांह महाजनां की जातम्ह बाबनी तथा चोका का जीमण वसीम पूजा होवे जीम्हें पहले तलक थारे होतो हो सो अगला बेणीदास नगरसेठ करसो कर्यो अर वे दर्याफूत तलक थारे नहीं करबा दीदो। आबरू विद्वत् खण्ड / ७९ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साल सी दीखी सो नगे कर सेठ प्रेमचंद ने हुकम की दो सो वे भी अरज करी आ न्यात म्हे हक सर मालुम हुई सो अब तलक माफक दस्तूर के थे थारो करायो जास्यो आगे सूं थारे वंस को होवेगा जीके तलक हुवा जावेगा पंचाने बी हुकम कर दी यो है सो पेली तलक थारे होवेगा प्रधानजी मेहता सेरसींध सं. 1912 जेठ सुदि 15 बुधे" ___ यह दानपत्र बहुत ही महत्व का है। इसमें यह वर्णित है कि न्यात के सम्मेलन में जब सब पंच इकट्ठे होवें तो पहले पहले तिलक भामाशाह के वंशज कावड़िया गोत्रवालों के किया जायेगा। इसके बाद अन्य लोगों को। इसमें यह लिखा है कि पहले से कावड़ियों के ही तिलक होता आया था किन्तु महाराणा स्वरूप सिंह के समय नगर सेठ ने इसमें आपत्ति की और उसने अपने पहले तिलक लगाने को कहा। इस पर कावड़ियों ने महाराणा से शिकायत की, इस पर यह निर्णय दिया गया। बाईस सम्प्रदाय की पट्टावली जिसमें भामाशाह का वर्णन नागौर के लुकाकच्छ की है। इसमें वर्णित है कि देपागर नामक एक साधु ने भामाशाह को अपने धर्म के प्रति आस्थावान बनाया है इसके बाद भामाशाह ने इसके प्रचार के लिए दिन-रात पूरी कोशिश की। जगह-जगह और जिलों के हाकिमों को निर्देश दे दिये। इससे इसके प्रचार में महत्वपूर्ण सफलता मिली। राजस्थान में या भारत के किसी राज्य में ऐसा उदाहरण नहीं है जिसमें राज्य के एक मंत्री ने किसी धर्म प्रचार के लिए ऐसा महत्वपूर्ण कार्य किया हो। अत: भामाशाह का नाम देश भक्ति के साथ धर्म प्रचार की दृष्टि से अद्वितीय है। एस-3-ए, सत्य नगर झोरवाड़ा, जयपुर (राज.) हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड /80