Book Title: Bhagwat Rachna kal Sambandh me Jain Sahitya ke Kuch Praman
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागवत के रचना काल के सन्दर्भ में जैन साहित्य के कुछ प्रमाण भागवत हिन्दू परम्परा का एक अति महत्त्वपूर्ण और श्रद्धास्पद ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से श्रीकृष्ण और उनके परिजनों के जीवनवृत्त का उल्लेख हुआ है। इसी ग्रन्थ में सर्वप्रथम गोपियों के साथ उनकी रासलीला का भी उल्लेख है । इसी आधार पर विद्वानों ने इसे महाभारत से परवर्ती माना है। इसके रचनाकाल को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। जहाँ परम्परागत विद्वान इसे वेद व्यास की कृति मानकर इसका रचनाकाल ईसा से भी तीन हजार वर्ष पूर्व मानते हैं वहीं कुछ पाश्चात्य परम्परा से प्रभावित विद्वान इसको बोपदेव की रचना मानकर इसका रचनाकाल ईसा की तेरहवीं शती मानते हैं। इससे भी आगे बढ़कर कुछ विद्वानों ने इसके रासलीला वाले अंश को सोलहवीं शती का सिद्ध किया है। प्रस्तुत आलेख में हम जैन साहित्य में भागवत के उल्लेखों के आधार पर इसके रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार करेंगे। जैन ग्रन्थ नन्दीसूत्र (ई. की पाँचवी शती) में श्रुत के दो भेदों - सम्यकश्रुत और मिथ्याश्रुत की चर्चा उपलब्ध होती है। इस चर्चा के प्रसंग में ग्रंथकार ने मिथ्याश्रुत से सम्बन्धित ग्रन्थों के नामों का भी उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भागवत का भी उल्लेख हुआ है। भागवत के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद रहा हैं वे उसे ईसा पूर्व से लेकर ईसा की नवीं शती के मध्य रचित मानते हैं। फिर भी सामान्य अवधारणा उसे पाँचवीं शताब्दी के पश्चात् का ग्रन्थ मानती है । ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उभरकर सामने आता है कि या तो हम भागवत का रचनाकाल लगभग पाँचवीं शती से पूर्व मानें या फिर नन्दीसूत्र को पाँचवीं शती के उत्तरार्ध के बाद का ग्रन्थ मानें। किन्तु दूसरा विकल्प इसलिए सम्भव नहीं है कि नन्दीसूत्र का रचनाकाल लगभग पाँचवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सुनिश्चित ही है। उसके रचयिता देववाचक को देवर्धिगणि का गुरु माना गया है। देवर्धिगणि का अस्तित्व वीर निर्वाण संवत् ९८० अर्थात् ई. सन् ४५३ में वल्लभी वाचना के समय था, यह एक सुनिश्चित सत्य है। अतः नन्दीसूत्र के रचनाकाल को ईसा की पाँचवीं शताब्दी के पूर्वार्ध से नीचे नहीं लाया जा सकता। प्रश्न यह उठता है कि क्या भागवत की रचना नन्दीसूत्र की रचना के पूर्व हो चुकी थी। निश्चय ही Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागवत के रचना काल के सन्दर्भ में जैन साहित्य के कुछ प्रमाण : १४३ अधिकांश विद्वत् वर्ग इसी मत का है कि भागवत की रचना पाँचवीं शताब्दी से बहुत परवर्ती है। इस प्रकार यदि हम नन्दीसूत्र में भागवत के उल्लेख को स्वीकार करते हैं तो हमें दो विकल्पों में से किसी एक को स्वीकार करना होगा। या तो हम यह माने कि नन्दीसूत्र के काल में भागवत का अस्तित्व था या यह माने कि नन्दीसूत्र की रचना पाँचवीं शती के बाद हई। इस समस्या के सन्दर्भ में हमने गहराई से विचार किया। प्रस्तुत प्रसंग में हमें नन्दीसूत्र के मूल-पाठ में ही दो पाठान्तर देखने को मिले हैं। आचार्य मलयगिरि ने नन्दीसूत्र की वृत्ति (ईसा की तेरहवीं शती) में जो मूल पाठ दिया है उसमें स्पष्ट रूप से भागवत का उल्लेख है किन्तु जब हम नन्दीचूर्णि (ईसा की सातवीं शती) का मूलपाठ लेते हैं तो उस पाठ में स्पष्ट रूप से भागवत का उल्लेख नहीं है। इससे ऐसा लगता है कि नन्दीसूत्र के मूल पाठ में भागवत का उल्लेख एक परवर्ती घटना है जो उसमें नन्दीचूर्णि के भी पश्चात् प्रविष्ट किया गया है। वस्तुतः भागवत का उल्लेख उसमें आठवीं शताब्दी के पश्चात् एवं तेरहवीं शताब्दी के पूर्व ही कभी प्रक्षिप्त किया गया है। क्योंकि आठवीं शती में हरिभद्र भी नन्दीवृत्ति के मूल पाठ में भागवत का उल्लेख नहीं करते हैं। इस चर्चा से यह भी फलित होता है कि आगमों के पाठ निर्धारण में जब भी वृत्तियों, टीकाओं और चूर्णियों के पाठ में अन्तर हो तो हमें चूर्णिगत पाठों को ही प्राचीन एवं प्रमाण मानकर निर्णय लेना होगा। यहाँ हम यह कह सकते हैं कि मलयगिरि की वृत्ति (ई. तेरहवीं शती) में मूल पाठ में जो भागवत आदि का उल्लेख हुआ है वह निश्चय ही एक परवर्ती काल में किया गया प्रक्षेप है और मूल ग्रन्थ का अंग नहीं है। इसी क्रम में हमने हरिभद्र सूरि (ईसा की आठवीं शती का पूर्वार्ध) की नन्दीसूत्र की वृत्ति के मूलपाठ को भी देखा, वह पाठ भी चूर्णि के पाठ के अनुरूप ही है, उसमें भी भागवत का उल्लेख नहीं है। इससे यह फलित होता है कि जैन स्रोतों के आधार पर भागवत की रचना ई.सन की आठवीं शताब्दी के पश्चात् और ई.सन् की तेरहवीं शती के पूर्व अर्थात् दोनों के मध्य कभी भी हुई होगी। याकिनीसूनु हरिभद्र के काल तक अर्थात् ईसा की आठवीं शती के पूर्वार्द्ध तक भागवत की रचना नहीं हुई थी अन्यथा चूर्णिकार जिनदास (७वीं शती) और आचार्य हरिभद्र (८वीं शती) अपनी सूचियों में कहीं तो उसका उल्लेख करते ही। श्री शान्तनुविहारी द्विवेदी ने कल्याण के भागवत अंक में भागवत की रचना को व्यासकृत सिद्ध करते हुए उसका रचनाकाल आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। किन्तु उन्होंने अपने पक्ष में जो भी प्रमाण Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ प्रस्तुत किये हैं वे ईसा की आठवीं शती के पूर्व नहीं जाते। उन्होंने मध्वाचार्य, रामानुज, हेमाद्रि, शंकराचार्य, चित्सुखाचार्य आदि के ग्रन्थों से जो प्रमाण प्रस्तुत किये हैं वे भी उसे ईसा की आठवीं शती के पूर्व सिद्ध नहीं करते। उन्होंने अपने पक्ष के समर्थन में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के सरस्वती भवन की एक प्राचीन हस्तप्रत का छायाचित्र भी प्रस्तुत किया है उसकी शारदा लिपि प्राचीन है, वह पड़ी मात्रा की पन्द्रहवीं-सोलहवीं शती के जैन हस्तप्रतों की देवनागरी लिपि के लगभग समरूप है। अधिक से अधिक उनसे सौ वर्ष पूर्व की हो सकती है। आचार्य शंकर को जो वे ई.पू. पाँचवी शती में स्थापित करते हैं, वह मत भी प्रमाणों के आधार पर विचार करने वाले विद्वानों को मान्य नहीं है। उन्होंने राजशाही जिले के जमालगंज स्टेशन से पाँच किलोमीटर दूर स्थित पहाड़पुर से उपलब्ध राधाकृष्ण की मूर्ति का उल्लेख करके यह बताना चाहा है कि राधाकृष्ण की उपासना प्राचीन है। यह सत्य है कि पहाड़पुर ( वटगोहली) से ईसा की पाँचवीं शती के कुछ पुरातात्त्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं, उसमें इसी काल का पंचस्तूपान्वय का जैन अभिलेख भी है। किन्तु वहां से प्राप्त सभी सामग्री पाँचवी शती की है, यह मान लेना उचित नहीं है। मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से जो जैन अवशेष प्राप्त हुए थे वे ई. पू. दूसरी शती से ईसा की ग्यारहवीं शती तक के हैं। अतः यह सम्भव है कि वह राधाकृष्ण की मूर्ति परवर्ती काल की हो। जहां तक राधाकृष्ण की उपासना की प्राचीनता का प्रश्न है, श्रीमद्भागवत में भी मात्र गोपियों का उल्लेख है, राधा का कोई उल्लेख नहीं है। अतः राधा की संकल्पना तो भागवत के भी बाद की है। जैन ग्रन्थों में कृष्ण और प्रद्युम्न के उल्लेख लगभग ईसा की तीसरी चौथी शती से वर्तमान युग तक हुए हैं, यहीं नहीं इस सम्बन्ध में सोलहवीं - सत्रहवीं शती तक जो स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गये उनमें भी राधा का कोई उल्लेख नहीं है। जैन स्रोतों से राधा की उपासना की प्राचीनता सिद्ध नहीं होती है । मेरा आलेख मात्र जैन स्रोतों पर आधारित है, विद्वानों से अपेक्षा है कि वे अन्य साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक स्रोतों के आधार पर इसका काल निर्णय करें। जहाँ तक भागवत के रचना काल का प्रश्न है जैन स्रोतों के आधार पर वह आठवीं शती के बाद का ही ग्रन्थ सिद्ध होता है। सन्दर्भ : १. "से किं तं मिच्छासु ? जं इमं अन्नाणिएहिं मिच्छादिडिएहिं सच्छंदबुद्धिम इविगप्पिअं, तं जहा - भारहं रामायणं भीमासुरूक्खं, कोडिल्लयं सगडभद्विआओ खोड (घोडग ) मुहं कप्पसिअं नागसुहुमं कनगसत्तरी वइसेसिअं बुद्धवयणं तेरासियं काविलिअं Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागवत के रचना काल के सन्दर्भ में जैन साहित्य के कुछ प्रमाण : 145 लोगाययं सद्वितंतं माढरं पुराणं वागरणं भागवं पायंजली पुस्सदेवयं लेहं गणिअं सउगरूअं नाडयाई अहवा बावत्तरिकलाओ चत्तारि अ वेआ संगोवंगा।" नन्दीसूत्र मलयगिरि की टीका का मूलपाठ, आग सुत्ताणि सटीक भाग 30, सं. मुनिदीपरत्नसागर - आगम श्रुत प्रकाशन, अहमदाबाद पृ.१८७ 2. “से कि तं मिच्छसुतं? मिच्छसुत्तं जं इमं अण्णणिएहि मिच्छद्दिट्टिएहि सच्छंदबुद्धि - मतिवियप्पियं, तं जहा-भारहं, रामायणं, भीमासुरक्खं कोडल्लयं सगभदियाओं खोडमुहं कप्यासियं नामसुहमं कणगसत्तरी वइसेसियं बुद्धवयणं वेसितं कविलं लोगायतं सदितंतं माढरं पुराणं वागरणं णाडगादी अहवा बावत्तरिकलाओ चत्तारि य वेदा संगोवंगा।" नन्दीसूत्र चूर्णि का मूलपाठ पृ. 49- प्राकृत टेक्स्ट सोसाईटी, अहमदाबाद 1966 3. “से किं तं मिच्छसुतं? मिच्छसुतं जं इमं अण्णणिएहि मिच्छद्दिडिएहि सच्छंदबुद्धि - मतिवियप्पियं, तं जहा-भारह, रामायणं, हंभीमासुरक्खं कोडाल्लयं सगभदियाओ खोडमुहं कप्पासियं नामसुहुमं कणगसत्तरी वइसेसियं बुद्धक्यणं वेसितं कविलं लोगायतं सद्वितंतं माढरं पुराणं वागरणं णाडगादी अहवा बावत्तरिकलाओ चत्तारि य वेदा संगोवंगा।" नन्दीसूत्र को हरिभद्रीय टीका का मूलपाठ - पृ. 64, प्राकृत टेक्स्ट सोसाईटी, अहमदाबाद 1966 4, कल्याण - भागवत अंक * गीताप्रेस गोरखपुर पृ. 56-59