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भगवान् महावीर के जीवन सूत्र
जीवन जीने की कला के मर्मज्ञ आचार्य विनोबा भावे ने एक बार जीवन की परिभाषा करते हुए कहा थारसायन शास्त्र की भाषा में पानी का सूत्र है - HO (एच-टू-ओ) यानी दो भाग हाइड्रोजन और एक भाग आक्सीजन मिलकर पानी बनता है। इसी प्रकार जीवन का सूत्र है - MA (एम-टू-ए) दो भाग, मेडीटेशन ( चिन्तन-मनन) और एक भाग एक्टीविटी ( प्रवृत्ति ) | पहले विचार फिर आचार
भगवान् महावीर ने केवल तत्त्वों का ही उद्बोधन नहीं दिया अपितु ऐसे जीवन सूत्र भी दिये हैं जिसमें आप्लावित होकर श्रद्धालु अपने जीवन को सर्वांगीण बना सकता है। इसके लिए आवश्यक है - ज्ञान और क्रिया का समन्वय, मधुर सत्य से जुड़ाव, विवेकपूर्वक धर्म क्रिया का आचरण । प्रस्तुत है - जैन जगत् के सुप्रतिष्ठित विद्वान् श्री श्रीचंद जी सुराना 'सरस' का युगानुकूल आलेख ।
- सम्पादक
मानव जीवन और पशु जीवन में यही एक मुख्य भेद है कि पशु जीवन केवल प्रवृत्ति प्रधान है । उसमें क्रिया होती है, किन्तु चिन्तन नहीं। जबकि मानवीय जीवन चिन्तन प्रधान है। उसमें क्रिया होती है, किन्तु चिन्तनपूर्वक । विचार, मनन, ज्ञान यह मानवीय गुण हैं। मनुष्य जो कुछ करता है, पहले सोचता है। जो पहले सोचता है, उसे बाद में सोचना, पछताना नहीं पड़ता। वह खूब सोच-विचार कर, समझकर अपनी प्रवृत्ति का लक्ष्य निश्चित करता है । प्रवृत्ति की प्रकृति निश्चित करता है और प्रवृत्ति का परिणाम भी। उसके पश्चात् ही वह प्रवृत्ति करता है । इस प्रकार मानव की प्रत्येक प्रवृत्ति/ एक्टीविटी में पहले चिन्तन-मनन अर्थात् मेडिटेशन किया जाता है ।
१. दशवैकालिक ४ / ६० २. सूत्रकृतांग १२/११ ३. उत्तरा २/६३
भगवान् महावीर के जीवन सूत्र
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जैन संस्कृति का आलोक
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जीवन के इस सहज नियम को भगवान् महावीर ने 'पढमं नाणं तओ दया" के सरल सिद्धांत द्वारा प्रकट किया है । भगवान् महावीर का दर्शन क्रियावादी दर्शन है । वह क्रिया, प्रवृत्ति एवं पुरुषार्थ में दृढ़ विश्वास रखता है । किन्तु क्रिया के साथ ज्ञान का संयोग करता है । 'आहंसु विज्रा चरणं पमोक्खं ? -विद्या और आचरण के मिलन से ही मुक्ति होती है । साधु के लिए, आचार्य के लिए जो विशेषण आते हैं उसमें एक मुख्य विशेषण हैविज्रा-चरण सम्पन्ना या विज्जा-चरण पारगार - अर्थात् ज्ञान एवं क्रिया से सम्पन्न एवं क्रिया के सम्पूर्ण भावों को जानने वाले। इससे पता चलता है कि भगवान् महावीर का क्रियावाद ज्ञानयुक्त क्रियावाद है । अज्ञान या अविवेक पूर्वक की गई क्रिया 'क्रियावाद' नहीं है, वह 'अज्ञानवाद' या मिथ्यात्व है। जिसकी दृष्टि स्पष्ट है, जिसका विवेक जागृत है जो अपने द्वारा होने वाली प्रवृत्ति के परिणामों पर पहले ही विचार कर लेता है, वह ज्ञानी है । भगवान् कहते हैं - णाणी नो परिदेवए वह ज्ञानी कर्म करके फिर शोक या चिंता नहीं करता इसलिए - णाणी नो पमायए । ज्ञानी कभी अपनी प्रवृत्ति में, अपने आचरण में / आचार में प्रमाद नहीं करता। न तो वह आलस्य करता है और न ही नियम विरुद्ध आचरण ।
४. आचारांग ३/३
श्रीचन्द सुराना 'सरस'
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
हम बिना विचारे ही करते जाते हैं या लोक दिखावे के रूप में प्रवाह में बहते जाते हैं। इसलिए हमारे क्रिया कलापों में, धार्मिक कहे जाने वाले क्रिया कांडों में न तो तेजस्विता होती है न ही हृदयस्पर्शिता होती है। विचार शून्य क्रिया हमारे आचरण को प्रभावशाली नहीं बना सकती और न ही कोई जीवन में परिवर्तन ला सकती है। जिस क्रिया व आचार के पीछे विचार नहीं है, उससे अच्छे परिणाम की क्या आशा की जा सकती है? इसलिए भगवान् महावीर का यह सबसे मुख्य जीवन सूत्र है - तत्थ भगवया परिण्णा पवेइया' - भगवान् ने यह प्रज्ञा, विवेक, विचार बताया है कि जो भी काम करो, पहले उसका चिन्तन मनन करो, विवेक करो। विवेक की रोशनी हमारे कर्म को चैतन्य और परिणामकारी बनायेगी।
__इसलिए ऐसे ज्ञानी को, चिन्तनशील को कोई उपदेश या शिक्षा की भी जरूरत नहीं रहती। उद्देसो पासगस्स णत्थि।' जो स्वयं द्रष्टा है, जो अपना मार्ग स्वयं देखता है, उसे क्या किसी दूसरे मार्ग दर्शक की जरूरत रहती है? किमत्थि उवाही पासगस्स? न विज्जइ - क्या विचारशील, विवेकशील द्रष्टा को कभी उपाधि, परेशानी या चिन्ता होती है? नहीं होती।
भगवान महावीर का यह चिन्तन हमें जीवन का सबसे पहला नियम समझाता है कि जो करो, वह विवेकपूर्वक करो। ___ दूसरी बात वे अपने ज्ञान को दूसरों पर नहीं थोपते हैं, किन्तु उसी के भीतर ज्ञान दृष्टि जगाते हैं। उसे स्वतंत्र चिन्तन, स्वतंत्र विचार करने का अवसर देते हुए कहते हैं - मइमं पास - हे मतिमान, तू स्वयं विचार कर, मैंने कहा है, इसलिए तू मानने को बाध्य नहीं है। किंतु अपनी बुद्धि की तुला पर तोलकर इसकी परीक्षा कर और फिर विश्वास कर । भगवान् महावीर का यह कथन मानव की बुद्धि पर, उसकी विचार क्षमता पर गहरा विश्वास प्रकट करता है।
अध्यात्मवादी आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - जह विसमुव जतो विजो पुरिसो ण मरणमुवयादि। जिस प्रकार औषध का ज्ञाता वैद्य विष खाता है या औषध के रूप में विष देता है तब भी उससे मृत्यु नहीं होती, अपितु वह विष औषध भी रोग का प्रतीकार करने वाला होता है। ___ आज हमारे जीवन में चिन्तन की, जागृति की, विवेक की कमी आ रही है। हम जो कुछ कर रहे हैं, उसके पीछे या तो परम्परा की लीक पीटी जाती है या रूढ़ि के रूप में
सत्य से जुड़ो ___ भगवान् महावीर का दूसरा महत्वपूर्ण जीवन सूत्र हैसया सच्चेण सम्पन्ने । सदा सत्य से जुड़े रहो। सच्चे तत्थ करेजुवक्कम । जो सत्य हो, उसमें पुरुषार्थ करो, पराक्रम करो। सत्य ही संसार में मूल-भूत शक्ति है। इसलिए सच्चस्स आणाए उवट्ठिए स मेहावी मारं तरइ। जो बुद्धिमान सत्य का आधार लेकर चलता है, सत्य का पक्ष लेता है या जीवन में सत्य का सहारा लेता है वह सब प्रकार के भयों को जीत जाता है। सब प्रकार के कष्टों से पार पहुँच जाता है। यहाँ तक कि मृत्यु को भी जीत लेता है।
भगवान् महावीर के सामने गणधर गौतम आते हैं। वे कहते हैं – भन्ते ! आनन्द श्रावक कहता है, उसे ऐसा अपूर्व अवधि ज्ञान हुआ है, जिससे वह विशाल क्षेत्र को देख सकता है, परन्तु मैंने उसे कहा है, ऐसा विशाल अवधिज्ञान श्रावक को नहीं हो सकता है, तुम्हें असत्य का
४. समयसार १/४
५. सूत्रकृतांग १५/३, आचारांग सूत्र १/१
१. आचारांग २/६ २. आचारांग ३/४ ३. आचारांग ३ ६. सूत्रकृतांग २/३/६४ ७. आचारांग ३ ८. वही
भगवान् महावीर के जीवन सूत्र |
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दोष लग रहा है । भन्ते ! क्या मेरा कथन सत्य है, या आनन्द श्रावक का कथन सत्य है ?
भगवान् महावीर कहते हैं- “गौतम ! आनन्द श्रावक का कथन सत्य है । तुमने उसके ज्ञान का अपलाप करके उसकी अवहेलना की है । अतः जाओ उसे खमाओ । " गौतम तुरंत जाते हैं और आनन्द श्रावक को खमाते हैं । अपनी भूल के लिए पश्चात्ताप करते हैं ।
भगवान् महावीर सत्य के पक्षधर थे। एक श्रावक के सत्य कथन का अपलाप करने पर अपने प्रमुख शिष्य गणधर को भी उसके पास भेजकर क्षमा माँगने को कहा। यह घटना बताती है, सत्य के सामने कोई छोटा-बड़ा नहीं । सत्य ही महान् है । सत्य ही भगवान है । सच्चखु भवं ' जो सत्य की रक्षा करता है वह स्वयं सुरक्षित रहता है, सत्य को भी भय नहीं । उपनिषद् का प्रवक्ता ऋषि कहता है - सत्यं वदिष्यामि ऋतं वदिष्यामि, तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु मैं सत्य बोलूंगा। मैं न्याय युक्त वाणी बोलूंगा । वह सत्य मेरी और बोलने / सुनने वालों की रक्षा करे । सत्य समस्त जगत् को अभय करे ।
सत्य भी
मधुर बोलो
कहते हैं सत्य कड़वा होता है। सुनने में, बोलने में सत्य कभी-कभी कठोर व अप्रिय लगता है। इसलिए भगवान् महावीर सत्य को मानते हुए भी सत्य के साथ माधुर्य का योग करते हैं । भगवान् कहते हैं - भासियव्वं हियं सच्च - सत्य तो बोलो, परन्तु वह हितकारी हो और प्रिय हो, मधुर हो । सत्य सुनकर किसी का हृदय दुखी न हो, किसी के मन पर आघात नहीं लगे। इस बात का भी पूरा ध्यान रखना है ।
१. प्रश्न व्याकरण २
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२. ऐतरेय उपनिषद् १/३
| भगवान् महावीर के जीवन सूत्र
जैन संस्कृति का आलोक
एक तरफ प्रभु सत्य के पूर्ण पक्षधर हैं तो साथ ही लोक नीति व लोक व्यवहार को भी महत्व देकर चलते हैं । इसलिए सत्य के साथ लोक नीति को जोड़ने की बात कहते हैं - सच्चं पि होइ अलियं जं पर पीडाकरं वयणं । ४ जिस सत्य वचन को सुनकर किसी के हृदय पर चोट लगती है, दूसरों को पीड़ा होती है, ऐसा सत्य वचन असत्य की कोटि में है। वह सत्य, सत्य नहीं जो दूसरों के हृदयों पर घाव कर दे । ओए तहीयं फरुसं वियाणे - जो सत्य कठोर हो, जिसके सुनने से सुनने वाले का मन खिन्न व दुखी हो जाता है, ऐसा सत्य वचन मत बोलो ।
भगवान् महावीर का प्रमुख श्रावक है- महाशतक । अपनी पौषधशाला में बैठा है, जीवन की अन्तिम आराधना करता है, उसे अवधि ज्ञान हो जाता है। अपनी आराधना में लीन है तभी उसकी पत्नी रेवती उसके साथ अत्यन्त अभद्र दुर्व्यवहार करती है । बड़े ही अश्लील वचन बोलती है, जिन्हें सुनते, सहते महाशतक का धैर्य जबाव दे जाता है । तब वह उससे कहता है रेवती ! तू इस प्रकार के दुराचरण के कारण घोर रोगों का शिकार होगी और अन्त में मरकर प्रथम नरक में जायेगी । वहाँ भयंकर यातनाएँ भोगेगी।
पति का यह वचन सुनकर रेवती उद्भ्रांत हो जाती है - पति ने मुझे शाप दे दिया । इस प्रकार वह भयभीत होकर आकुल-व्याकुल होकर इधर-उधर भागती है । आकुलता से छटपटाती है। छाती पीटती है।
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दूसरे दिन प्रातः भगवान् महावीर गणधर गौतम को कहते हैं गौतम ! तुम जाओ और श्रावक महाशतक से कहो, उसने अपनी भार्या रेवती को पौषध में जो कठोर कर्कश वचन कहे हैं, उन्हें सुनकर उसका हृदय व्यथित हो उठा है। भले ही सत्य वचन हो, परन्तु श्रावक को इतना
३. उत्तराध्ययन १६/२३
४. प्रश्न व्याकरण २
५. सूत्र १४/२१
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
कठोर, दूसरों के हृदय को पीड़ा पहुँचाने वाला वचन नहीं स्थविर श्रमणों को ही कहते हैं – “हे श्रमणों ! तुम इस बोलना चाहिए। महाशतक से कहो वह इसकी आलोचना बाल मुनि की अवज्ञा मत करो। इसकी अवहेलना मत प्रायश्चित करे।
करो, यह बहुत सरल आत्मा है। इसी भव में मोक्ष जाने
वाला चरम शरीरी है। इसलिए इसे खमाओ, इसको जो सत्य के साथ भद्रता, मधुरता का मिलन ही, सत्य को
___ कटु वचन कहे हैं उसके लिए क्षमा मांगो।" उपादेय और लोकमान्य बनाता है। इसलिए सत्य के श्रेष्ठतम अद्वितीय साधक भगवान् महावीर भी सत्य के यह है बीज में वट की असीम संभावना का दर्शन । साथ हियं सच्चं अणवज्जं अकक्कसं - आदि नियम जोड़ वे बालमुनि के भीतर छिपी चरम शरीरी की श्रेष्ठता का देते हैं। सत्य हितकारी हो, अकर्कश हो, मधुर हो, दर्शन कराते हैं। उसकी सरलता और सहजता का सम्मान मर्मघाती न हो / मन को पीड़ाकारी न हो। ऐसा मधुर करते हैं। वर्तमान में भविष्य को देखते हैं और उज्ज्वल, हितकारी सत्य बोलने वाला लोक में यश और कीर्ति का भविष्य को उद्घाटित कर उसे संयम में उत्साहित करते हैं । भागी होता है।
और साधना में सतत आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। व्यक्तित्व में छिपी संभावनाओं के द्रष्टा
ज्ञातासूत्र में मेघकुमार का प्रसंग है - जब वह रात
भर नींद नहीं आने के कारण विचलित हो जाता है और भगवान् महावीर सर्वज्ञ थे। यह एक सत्य है। वे साधु जीवन छोड़कर वापस अपने राजमहलों में लौट जाने भूत-भविष्य के ज्ञाता थे। परन्तु इस विशिष्टता से हटकर के लिए भगवान् के पास आता है तो भगवान् उसके हम उनकी जीवन दृष्टि पर विचार करें तो यह एक सत्य भीतर की आकुलता को समझते हैं, छटपटाहट पहचानते उजागर होता है कि वे व्यक्ति के भीतर छिपी असीम हैं। परन्तु उसकी अधीरता को प्रताड़ित नहीं करते। उसे संभावनाओं को देखते थे और उनको उद्घाटित करते कठोर या अप्रिय शब्दों में लांछित नहीं करते, किन्तु थे। बीज के भीतर वट बनने की क्षमता का ज्ञान तो सभी उसके भीतर छिपी संवेदना को, सहिष्णुता को जगाते हैं। को है परन्तु उस क्षमता का सम्मान करना और उसे कुछ भी नहीं कहके उसे उसका हाथी का पिछला भव उद्घाटित करने का अवसर प्रदान करना, यह जीवन दृष्टि सुनाते हैं। बस, अपना पूर्व जीवन सुनकर ही वह जागृत किसी-किसी के पास ही होती है।
हो उठता है। अपनी भूल पर पश्चाताप करता है और अन्तकृद्दशा सूत्र में एक प्रसंग है। जब अतिमुक्तक
भगवान् के चरणों में पुनः स्वयं को समर्पित कर देता है। कुमार श्रमण भावनाओं में बहकर पानी में अपनी नाव
यह प्रसंग बताता है, भगवान् महावीर मानव-मनोविज्ञान तिराता है और स्थविर आकर भगवान् से उसकी शिकायत
की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति को भीतर से टटोलते थे, करते हैं - भन्ते ! आपका बाल शिष्य तो वर्षा के पानी में
उसकी भावनात्मक चेतना को, मूर्च्छित संवेदना को जगाकर नाव तिराता है। यह अभी अबोध है। तब भगवान्
उसे स्वयं ही जागृत होकर आगे बढ़ने का अवसर प्रदान
करते थे। अतिमुक्तक कुमार को कुछ नहीं कहते, न ही किसी प्रकार का प्रायश्चित्त देते हैं। न ही डांटते हैं, किन्तु उन इस प्रकार की अलौकिक जीवन दृष्टि ने सैकड़ों
१. उपासक दशा सूत्र
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________________ जैन संस्कृति का आलोक व्यक्तियों का भविष्य संवारा है। पापी हत्यारे अर्जुनमाली में क्षमतावीर श्रमण की तस्वीर देखते हैं। क्रूर, उग्र विषधर चंडकौशिक की जहरीली फुकारों में भी वे उसके कल्याण की संभावना सुनते हैं। इसी दिव्य दृष्टि ने पापियों को, अधमियों को साधुता और श्रेष्ठता के पथ पर बढ़ाया आज जब हम भगवान् महावीर के जीवन सूत्रों पर विचार करते हैं तो आगमों में यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरे उन जीवन सूत्रों को और घटनाओं के साथ जुड़े उस जीवन दर्शन को समझने की, स्वीकारने की जरूरत है। वही आज हमारा मार्गदर्शन करेगी और हमें अंधकार में प्रकाश का पथ दिखायेंगी। / जैन साहित्य के सुप्रतिष्ठित विद्वान् श्री श्रीचंद सुराणा ने जैन श्रमणों / साध्वियों के अनेक ग्रन्थों का संपादन एवं प्रकाशन किया है। आपने आगम साहित्य का विशेष अध्ययन किया एवं आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि सूत्रों के हिन्दी एवं अंग्रेजी में सुंदर चित्रात्मक संस्करणों का प्रकाशन किया। आप आगरा स्थित “दिवाकर प्रकाशन" के निदेशक हैं। इस प्रतिष्ठान ने दिवाकर कथा-माला के अंतर्गत चित्रात्मक जैन कथाओं का प्रकाशन कर जैन साहित्य को लोकप्रिय बनाने का अभूतपूर्व कार्य किया है। आप जैन दर्शन के गम्भीर ज्ञाता हैं। आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा प्रकाशित अनेक आगमग्रन्थों के संपादन व प्रकाशन का कार्य आप द्वारा हुआ है। 'देवेन्द्र भारती' मासिक के यशस्वी संपादक। “आदमी आत्म हत्या पर उतारू कब होता है? जब वह किसी आवेश में होता है। भावों के अतिशय आवेग के बिना आत्महत्या नहीं होती। शान्ति में आदमी मरता नहीं है। आदमी जब भी मरता है अशान्ति में मरता है। क्रोधादि में वह उत्तेजित होता है, तभी मरने को तैयार होता है। और वैसे कोई आदमी को कहते कि “मैं तुझे मार दूंगा” या “तूं मरजा” तो देखो क्या सोचता है आदमी? इसने मुझे यह कैसे कह दिया? माँ अपने बेटे को भले ही कहती रहे कि “इससे तो मर जाना ही बेहतर था तेरा" आदि-आदि। किंतु गली-मोहल्ला का कोई व्यक्ति कह दे कि “तेरा बेटा मर जाए” फिर देखो माता के मन पर क्या बीतती है? लड़ती है, झगड़ती है - “मेरा बेटा क्यों मर जाये! तूं ने कहा तो कहा कैसे? मेरा बेटा मर जाये।" माता नहीं चाहती किन्तु स्वयं कहती रहती है। घर में झगड़ों से तंग आकर कभी स्वयं के लिए तो कभी पुत्र आदि के लिए कि “मर जाता तो अच्छा था” - यह आवेश तो है ही किन्तु आवेश में भी तारतम्य, कमोवेशी रहती है। माता का आवेश मंद ही रहता है, प्रायः वह अंतर से न स्वयं मरना चाहती है न ही बच्चों को मारना।" - सुमन वचनामृत भगवान् महावीर के जीवन सूत्र Vain Education International