Book Title: Bhagavan ka Interview
Author(s): Banechand Malu
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेचन्द मालू भगवान का इंटरव्यू एक दिन कोई काम नहीं था। पर मन में कुछ आराम नहीं था। ज्यों-ज्यों लोगों की सोच रहा था। त्यों-त्यों एक सोच दबोच रहा था। जब मन नहीं माना तो पूछा उससे। पत्रकार हूं ना-डर गया मुझसे। बोला-मेरा इंटरव्यू लोगे? इच्छा तो है यदि दोगे। बोले अनन्त समय है, पूछो तुम। पर क्यों लगते हो इतने गुमसुम। पूछा-आदमी के बारे में क्या विचार है? बोले नासमझ है, पगले से आचार है। बचपन से जल्दी ऊब जाते हैं। बड़े होकर फिर बचपन चाहते हैं। धन कमाने के लिए शांति और स्वास्थ्य खोते हैं। न दिन में चैन, न रात में सोते हैं। न जाने क्या-क्या करने के सपने संजोते हैं। पर आखिर खोया स्वास्थ्य पाने को वही धन खोते हैं। और अकसर जिन्दगी में रोते ही रोते हैं। भविष्य की चिन्ता में वर्तमान भूलते हैं। जीवन ऐसा हो जाता है कि त्रिशंकु से झुलते हैं। न वर्तमान में सुख न वर्तमान में शांति। भविष्य की बात तो भविष्य देवी ही जानती। जन्म के बाद भूल जाते हैं, कि मृत्यु अवश्यंभावी है। सबके मन में चिरकाल तक जीने की लालसा हावी है। इस तरह रहते हैं जैसे कभी नहीं मरेंगे। और मरणासन्न हो जीवन में कुछ नहीं किए का अफसोस करेंगे। तभी भगवान ने हाथ में मेरा हाथ लिया। मानो ऐसा करके उन्होंने कुछ इंगित किया। मैंने सविनय कहा - भगवन! हम बच्चों को कुछ शिक्षा दो, ताकि प्रसन्न हो जाए मन। मुस्कुरा कर बोलेनहीं विवश कर सकते दूजों को कि वे तुमको प्यार करें, पर ऐसा कर दिखलाओ निज को कि दूजे तुमको प्यार करें। सब कुछ अस्त-व्यस्त सा है। कोई नहीं निश्चिंत मस्त सा है। तरक्की बहुत की है सबने। फिर भी अधूरे हैं सबके सपने। फिर बहुत की क्या परिभाषा? यह अधूरेपन की क्या भाषा? सन्तोष कहीं तो करना होगा। नहीं तो असंतुष्ट ही मरना होगा? बस यही सोचकर आराम नहीं था। मन को बिल्कुल विश्राम नहीं था। सोचा जब भगवान जग संचालक है, वह नहीं कोई निरीह बालक है। फिर सबका मन क्यों नहीं भरता है? क्यों कोई असंतुष्ट मरता है? ० अष्टदशी / 1440 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्यवान नहीं जीवन में कितना क्या-क्या पाया। मूल्यवान है जीवन मेंकितनों को गले लगाया, कितनों को अपना बनाया। अपनी दूजों से तुलना, करने की आदत छोड़ो। तुम स्वकर्मों से जाने जाओगे, सद्कर्मों से नाता जोड़ो। ओ हो - कितने सुन्दर क्षण थे वे मेरे, मैं था और केवल प्रभु थे संग। उसकी नींद हुई न हुई, पर मेरा सपना हो गया भंग। मेरा सपना हो गया भंग। कोलकाता धनवान नहीं है वह, जो भण्डारों का मालिक होता। धनवान वही है जो, इच्छाओं को सीमित रखता। प्रियजनों को घायल करते, समय नहीं लगता कुछ भी। पर किये घावों को भरने में, वर्षों लगते कभी-कभी। क्षमा-भाव रखकर तुम सबको, क्षमा-दान देना सीखो। दूजे क्षमा करें न करें, पर तुम तो क्षमा करना सीखो। धन सब कुछ पा सकता होगा, पर खुशी क्रय नहीं कर सकता। बन सकता है भवन विशाल, पर घर पैसों से नहीं बनता। मैं सुनता रहा ध्यान से सब कुछ, हो प्रतिपल प्रतिक्षण आनन्द विभोर। निज समय दे रहे हैं इतना, की कृतज्ञता ज्ञापित सविनय कर जोड़। सोच ही रहा था मिला है मौका तोप्रभु से क्या-क्या पूछू और। कि इतने में डांट पड़ी पत्नी की दिया जोर से मुझे झकझोर। बोली कब से बड़बड़ा रहे हो, नींद कर रहे मेरी भंग। 0 अष्टदशी / 1450