Book Title: Bar Bhavna
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लाभानन्द (आनन्दघन )जी-कृत बार भावना ॥ विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीआनन्दधनजी महाराज, मूळ साधुपदनुं नाम मुनि लाभानन्द हतुं, . ते वात सर्वविदित छे. अवधूतस्वरूपी योगी तरीके तेमणे पोतानु, गच्छमतथी पर एवं 'आनन्दघन' एवं नाम अपनाव्युं होय, तेम बनवाजोग छे. एमना नाम तथा गच्छ आदि विशे खूब लखायुं छे, चर्चा थई छे, तेथी ते वातो अहीं अप्रस्तुत छे. १७मा शतकना, एक योगीनी अथवा साधक संतनी कक्षाना तेओ जैन मुनि हता ए वात निर्विवाद सर्वसम्मत छे. __एमणे रचेल स्तवन चोविशी (२२ स्तवनो) तथा पदबहोंतेरी - एम बे रचनाओ उपलब्ध तथा प्रसिद्ध छे. ते उपरांत तेमनी कोई रचना अद्यपर्यन्त जाणवामां आवी नथी. विद्वान् अने अन्वेषण-दृष्टि-सम्पन्न मित्र मुनि श्रीधुरन्धरविजयजी महाराजे, ताजेतरमां, फुटकळ पानांमांथी, आ योगी पुरुषनी एक नवीनअप्रगट/अज्ञात रचना शोधी काढी छे, ते अत्रे यथामति सम्पादित करी आपवामां आवे छे. आ रचनानुं नाम छे बार भावना. आ रचनामां कर्ताए क्यांय पोतानुं नाम निर्देश्युं नथी. परन्तु पत्रना अने रचनाना छेडे आपेलपुष्पिकामां "इति बार भावना आत्मस्वरूपा लाभानन्दजीकृता समाप्ता" एवी पंक्ति छे, तेना आधारे आ रचना तेमनी होवानुं नक्की थई शके छे. वळी, आ आखी रचनानी भाषा तथा शब्दगुंथणी जोता, आवं क्लिष्ट अने मार्मिक प्रतिपादन करवानुं आनन्दधनजी सिवाय कोई- गजु नहि, तेथी पण आना कर्ता तेओ ज होय - बीजा कोई लाभानन्द नहीं - एम नक्की करी शकाय तेम छे. प्रतिनो, अथवा कृतिनो प्रारम्भ जरा विलक्षण रीते थयो छे : "अथ अवधुकीर्तिलिख्यते". आ अवधुकीर्ति एटले शुं होय ? 'अवधु द्वारा कीर्तन' अथवा 'अवधु माटे कीर्तन' एवो अर्थ थई शके खरो. पण अवधु शब्दनी आ रीतनी हाजरी, कर्ता लाभानन्दजीनी विलक्षण आन्तरिक/आत्मिक भूमिकानो संकेत जरूर आपी जाय छे. ३९ कडीओमां व्यापेली आ रचनानो विषय जैन-प्रसिद्ध अनित्यादि Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 मा . अनुसन्धान ३५ बार भावनाओ, तार्तिक स्वरूपवर्णन छे. कर्ताए प्रथम कडीथी सीधुं भावनानिरूपण ज आदरी दोधुं छे; आरम्भनी तथा अन्तनी प्रचलित औपचारिकताओमां तेओ पडता नथी. आ पण तेमनी नि:स्पृह उच्च भूमिका- सूचक छे... भाषा मारु-गूर्जर अथवा मारवाडीप्रधान हिन्दी छे. बे ज छन्दोनो उपयोग कर्यो छे : दुहो तथा छन्द. आ छन्द ते सम्भवत: कुण्डलिया होय तेवू मने लागे छे. चोक्कस तो जाणकारो कही शके. आनन्दघन-साहित्यना प्रेमीओ तथा अभ्यासीओने बराबर जाण छे के तेमनी भाषा केटली गहन-गम्भीर, मार्मिक अने अल्पाक्षरी होय छे. आपणे एम धारीए के बार भावना तो प्रसिद्ध विषय छे, तेने तो सुगमताथी समजी-उकेली शकाय, तो अवश्य थाप खाई जवाय तेवू छे. द्रव्यानुयोगना विषयने आ लघु कृतिमां तेमणे ठांसी ठांसीने एवो तो भरी दीधो छे के अभ्यासीओ निरन्तर ऊंडु मन्थन कर्या ज करे, अने तोय तत्त्वनो ताग मळे के ना मळे ! प्रसंगोपात्त, एक वात जणाववी अत्रे प्रस्तुत थई पडशे के 'गुजराती साहित्य कोश (मध्यकाल)' जेवा सन्दर्भ ग्रन्थमा 'लाभानन्द' नामक कविनुं अधिकरण ज नोंधायुं नथी. हा, 'आनन्दघन'ना अधिकरणमां, तेमनुं नाम 'लाभानन्द' होवानो उल्लेख जरूर छे, पण ते नामनुं जुदुं अधिकरण नथी. कांनी सर्व रचनाओ 'आनन्दघन' ए नामथी ज मळे छे, तेथी ज आम हशे एम मानी शकाय; साथे एम पण नक्की थाय के 'लाभानन्द' नामना अन्य एक पण कवि मध्यकालमां थवानुं नथी नोंधायु, तेथी पण आ रचना आनन्दघनजीनी ज छे एम सिद्ध थाय छे. आ रचनानी भाषा स्तवनो/पदोनी भाषा करतां वधु कठिन छे. बनारसीदास वगेरे अध्यात्मविदोए प्रयोजेली भाषा प्रायः आ प्रकारनी छे. तेथी ते प्रकारनी कृतिओ-भाषाना तज्ज्ञो ज आना शब्दार्थ पकडी शके. अने ते पकडाय तो ज यथार्थ पदच्छेद आदि थाय. अत्यारे तो यथामति नकल करी मूकी छे. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेब्रुआरी - 2006 बार भावना ॥ ॥५०॥ अथ अवधुकीर्तिलिख्यते ।। दोहा ॥ ध्रुव वस्तु निश्चल सदा अथ भाव प्रज्याव ।' स्कंधरूप जो देखीइं पुदगलतणो विभाव ॥१॥ जीव सुलक्षणा हो मो प्रतिभासिओ आज परिग्रह परतणा हो तासुं को नहि काज । कोई काज नांहि परहुं सेती सदा ऐंसो जांनी चेतनरूप अनुप निज धन ताहिसें सुख मानीइं ॥ पिय पुत्त बंधव सयल परियण पथिक संगी पेखणा सम नांण दंसणस्यउं चरित्तहें रहें जीव सुलक्षणा ।।२।। असरण वस्तु ज परिणवन सरण सहाइ न कोय । अपनी अपनी सकतिके सबे विलासी जोय ॥३॥ छन्द ॥ मरणा जाणे आयुहे कायर सोइ होय मोह व्यापए तासहो सरण विसोइ जोय । नवि सरण जोवहि अप्प सोहही सत्य छै न जु भासही पहिचांन कृत क्रम-भेद न्यारे शुद्ध भाव प्रकासहि ॥ जिम धाय बालक अन्नभेदी बाहिर मारग सम धरे जीवतव्य तासौ देह पोषी मरण सेती को डरें ॥४॥ दोहा ॥ संसाररूप को वस्तु नांहि ए भेदभाव अग्यांन । ग्यांनदृष्टि धरि देखि जियरे सबे सिद्धि समान ॥५॥ ए संसार ही भाव हो परसुं कीजें प्रीति जहां सुखदुख मानीइं हो देखि पुदगलकी रीति । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 अनुसन्धान ३५ पुदगल-द्रवकी रीति देखी सुख दुख सब मानिया चहुं गति चौरासी लख जोनि आपणा पद जानिया ॥ यह अपनो पद शुद्ध चेतनमांहि दिट्ट जु दीजीई अनादि नाटक नटत पुग्गल तासुं प्रीत न कीजीई ।।६।। दोहा ॥ एक दशा निज देखिके अप्पा लेहु पिछानि । नानारूप विकल्पना सो तुं परकी जांनि ||७|| बोलत मोलत सोवता थिर मोनें जागंत । आप सभावि एक पुनि जिति तिति अन नभंत |८|| हंस विचक्षणा हो विचार एकता आस जम्म ण किनि धर्यो हो मरणा को नहि पास । मरण किसकि न जम्मु धरिओ सुरग नरकें को गयो अनंत बल वीर्य सुक्ख जाके दुख कहि कि न सो गयो ।। निज सहजनंद सुजाव अपनें थिर सदा चिदगुण घणा धरि धांन जोया नहि रूप दोया जानि हंस विचक्षणा ॥९॥ दोहा ॥ अण अण सत्ता धरें अन्न अण परदेस । अन्न अन्न थिति मंडिया अन न अंन प्रवेस ॥१०॥ हंस सयानडा हो अप्पा अन्न हि जोय सव्व सहावई हो मलियो किसहिं न कोय नवि कोय मलियो किसही सेती एक खेत अवगाहिया परदेस पर करें नांहिं नियत लक्षण बांहिया सोभा बिराजित सो भूषित एक समें पयांनडा कोइ नांहि साहिब अउर सेवक हंस सयानडा ॥११॥ . दोहा ॥ निम्मल गति जिय अप्पनी जेहो जांनि अयास अयास छि जड जांनि तुंहु वेयए अप्प पयास ॥१२।। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेबुआरी - 2006 19 हंसा निम्मला हो जाणहु अप्पसरीर रोग न व्यापें हो दुःख न दारिद पीर पीरा न व्यापें दुःख दारिद रोग निकट न आवहि ग्यांन दंसणस्यौं चरित्तह शुद्ध अप्पा भांवहि मल मूलधारी अति बिथारी जाति पुग्गल ति भला निज देह तेरी सुखह केरी जानि हंसा निम्मला ॥१३।। दुहा ॥ आश्रव बंध अप्पा नहि अप्पा केवल नांण जो इन भावें अनुसरें तो निम्मल होइ विहांण ॥१४|| केवल मल परि वंजियो जं हिसो चाहिअ णाय तिसो सबरस संचरें परें न कोइ जाय ॥१५॥ आश्रव एहुं जिया हो पुग्गल कौंण उपजाव सहि जहि होइ जिया हो ताकी सकति सुहाव सुभाव सक्ति सब तासु केरी देखि मूढो मान ए यह सकल रतना में जूं कीनी नांहि कोइ आन ए तिस भर्म बुद्ध सौ आपु अरुझें एक खेतहि वासओनादि काल विभाव ऐंसौं सोइ जांणि जियडे आश्रओ ॥१६॥ दोहा ॥ यहुं जिउ संवर अप्पणो अप्पा अप्प मुणेय । जो संवर पुग्गलतणो कुमतिरोध हवेय ॥१७॥ सुभाउ रूप जो दिढे हे जाणे गुण परिनाय । सो जिय संवर जोणि तुं अपणें पदें स नाय ॥१८॥ छन्द ।।. संवर एह जिया हो अपने पद हि विचारि जो परदव्व जिया हो ताकी नांहि संचार संचार नांहि परदरवकेरो पद हि आप विचारीइं पंडित गुण सौं भयौ परचौं मूढ दोष निवारइ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 सहज परणत भई परगट किम होहि करम कदंबरो अनाहि वस्तु सहाइ परणवें जांणि जियडे सबरो ॥ १९ ॥ दोहा ॥ पयोगी अपने पयोगसौं त्यारे जांणत भोग । यापें देखन सकति हे ताकी धारण योग ||२०|| यह योग की रीति हें मलि मलि करे संयोग । तासौं निरजरा कहत हें बिछुरे होय वियोग ||२१|| अनुसन्धान ३५ छन्द ॥ निज्जरा तासकी हो कम्मह तणा संयोग थिति पूरी भइ हो लागें होत वियोग होत वियोग तस कौन राखें गवन दहदिशि धावहि पिछलें निवास होय असो आगें अउर न आवहि यह सकल पुदगल - दरबकेरी मिलन बिछरन आसकी ज्ञानदृष्टि धरे देखि चेतन होय निज्जरा तासकी ||२२|| दोहा ॥ सकल दरब त्रिलोक में मुनि कि पटंतर दीन जोग जुगति कर थप्पिया निश्चय भाव धरीन ||२३|| छन्द ॥ तिनुं लोक एहो ही परमकुटि सुखवास मुनि जोग दीयें हो सिद्ध निरंजन भास सिद्ध निरंजन भास तिनकों सहज लीला किजीइं तिस कुंटिमांहिं जु भावधारा बाहिर पर जें न दीजीइं किस गुरु नांहि कोइ चेला रहें सदा उदासओ आलोक मध्य जु कुरी रचना तीन लोक सुखवासओ ||२४|| दोहा ॥ किरिया धर्म न होय धर्म करो बे धर्म करो धर्म तु जांणण वस्तु हैं ग्यांनदृष्टि धरि जोय ॥ २५ ॥ करण करावण ग्यान नांहि पढण अरथ नहि ओर ग्यांन दिट्टे नहि उपजें मोहातनि झकोर ॥ २६॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 फेब्रुआरी - 2006 सोरठि - धर्म न पढियां होय धर्म न काया तप तपे धर्म न दीइं दान धर्म न पूजा जप जपे ॥२७॥ दोहा ॥ दांन करो पूजा करो तप जप करो दिन राति इक जांण न वस्तु बिसरी यन करणी मदमाति ॥२८॥ धर्म वत्थुसहाव हो जो पहिचांणो कोय ताहि अवर क्यों पूजीई हो सहज उपजें सोय ||२९|| धर्म जु निर्मल हो जाणहु वत्थु-सहाव आप हि धम्मिया हो धर्म हि आप सहाव आपणो सभाव हि धर्म जांणो जांणि धर्मी आपहु संकलप विकलप दूर टरकै यह निज कर थापहु विवेक व्रत निज निज हीयें धरके तिहि सहित सोभित सब कला अनादि वस्तु-सहाव ॲसो जांनि धर्म जु निर्मला ॥३०॥ दोहा । दुलभ परको भाव ताकी प्रापति हैं नहि जो अपणो हि सभाव सो क्यों दुर्लभ जांणीइं ॥३१॥ हंस न दुलभा हो मुकति सरोवरतीर इंदिरहित जिया हो पीवहु निरमल नीर निरमल नीर पाइ तिरस भांजे बिरह व्याकुल सो नहि सुगम पंथ हि पथिक चालें सप्त भइमहि को नहि आतम सरोवर ज्ञान सुख जल मुकति पदवि सुलभो सुक्षेत पंथसु ससय गवनों जन हि जांनि सुदुलहो ॥३२॥ दोहा ॥ सो सुंणि बारह भावना अंतरगति उल्लास सो सम्मदिट्ठि जीवडा समें समें पर भास ॥३३॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अनुसन्थान 35 बाहिर योगा परिणमन अंतरगति परमत्थ सो तिस पंडित जांण तुं ओर सवे अकयत्थ // 34 / / सुद्रव्य खेत्र सुकालसुं सो सभाव सम लीण सहज शक्ति परगट भइ आनन भासें दीन // 35|| गुण सत्ता के जांण ते सात भइ चहुअ ओर विनु जानें अॅसी हुति जित. तित लागत सोर // 36 / / सोर गयो चिहुं चोरको बिती निसा अपाण गुण सत्ताके जाणतें निरमल दृष्टि विहान // 37|| कर्म सुभाव उदय गत समें समरस लीन माखी भूत थित्या थकिं देखें ग्यांन प्रविण // 38 / / अकथ कहां[नी] ग्यांनकी कहण सुणण की नाहि आपही पे पाइई जब देखें घटमांहिं // 39 // इति बारभावना आत्मस्वरूपा लाभानंदजी कृतः // समाप्तः / कडी क्र. शब्द अर्थ प्रज्याव सम पर्याय सम्यक् धावमाता आत्मा महेलात/हवेली धाय अप्पा मोलत पयांनडा संबरो पयोगी/पयोग वत्थुसहाव संवर प्रयोगी/प्रयोग वस्तुस्वभावो धर्मः भय