Book Title: Atmsudhar ka Sadhan Pratikraman Author(s): Mofatraj Munot Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/229782/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 263 आत्मसुधार का साधन - प्रतिक्रमण श्री मोफतराज मुणोत जो श्रावक-श्राविका विधिपूर्वक प्रतिक्रमण नहीं कर पाते हैं, उनके लिए माननीय श्री मुणोत साहब ने आत्मावलोकन, कृत दोष की स्वीकृति, प्रायश्चित्त, क्षमाभाव एवं पुनः दोष न दोहराने के संकल्पपूर्वक आत्मसुधार हेतु इस लेख में महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन किया है। -सम्पादक प्रतिक्रमण जैनधर्म में आत्मशुद्धि हेतु एक उच्च आध्यात्मिक प्रक्रिया है। जो श्रावक-श्राविका नियमित रूप से विधिपूर्वक प्रतिक्रमण करते हैं वे धन्य है । मैं विधिपूर्वक नियमित प्रतिक्रमण नहीं कर पाता हूँ, किन्तु यह अवश्य स्वीकार करता हूँ कि आत्मशुद्धि के लिए प्रतिदिन प्रतिक्रमण आवश्यक है। दिनभर की घटनाओं के पश्चात् रात्रि में जब विश्राम का समय हो तो उससे पूर्व शान्त अवस्था में यह चिन्तन करना चाहिए कि मैंने दिनभर में क्या भूलें की और क्यों की? क्या मैं ऐसा संकल्प ले सकता हूँ कि आगे से ऐसी भूल न करूँ ? प्रतिदिन आत्मसुधार (Self Correction) हेतु इन तीन अवस्थाओं से हमें गुजरना चाहिए१. आत्मावलोकनपूर्वक अपनी भूल, दोष या गलती का अनुभव। २. उसकी शुद्धि हेतु पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त या क्षमाभाव । ३. पुनः वैसी भूल, दोष या गलती न करने का संकल्प । प्रतिक्रमण का पाठ बोलकर प्रतिक्रमण भले ही किया जाए, किन्तु जब तक आत्म विश्लेषण एवं दोष को पुनः न करने का संकल्प शान्त चित्त से न हो, तब तक व्यक्ति आत्मशोधन के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता। बारह व्रतों में लगे दोषों की विशुद्धि करने के साथ आत्मोन्नति हेतु प्रतिदिन आत्म- - विश्लेषण भी आवश्यक है। व्यक्ति को यह पता होना चाहिए कि उसकी क्या कमजोरियाँ हैं, तभी वह उनके निवारण का प्रयत्न कर सकता है एवं आत्मशुद्धि की दिशा में आगे बढ़ सकता है। जो अपने दोषों को देखने का प्रयास ही नहीं करता, वह उन्हें न करने का संकल्प भी नहीं ले सकता तथा उसकी आत्मशुद्धि भी नहीं हो सकती। अपनी भूल स्वीकार करने की हिम्मत न हो तो सुधार संभव नहीं, क्योंकि अपनी भूल को व्यक्ति स्वयं ही सुधार सकता है। यदि मैं अपनी भूल को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं रखता हूँ तो मुझमें सकारात्मक परिवर्तन की संभावना ही नहीं है। दोष की सहज स्वीकृति होने पर एवं पुनः उस दोष को न दोहराने का संकल्प होने पर व्यक्ति में परिवर्तन अवश्य आएगा। कई व्यक्ति कहते हैं- मुझे गुस्सा आता ही नहीं, जबकि वे गुस्सा करते Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 115.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी रहते हैं, तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति में सुधार नहीं हो सकता। ___आत्मसुधार के लिए अपने दोष को स्वीकार कर उसका विश्लेषण करना चाहिए। सोचना चाहिए कि यह दोष अभी भी मैं क्यों करता हूँ? गलत विचार अभी भी मेरे मस्तिष्क में क्यों आता है? क्यों ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार एवं लोभ जागते हैं? इस प्रकार आत्म-चिन्तन आवश्यक है। दुनिया में कुछ तो ऐसे लोग भी हैं जो सारी जिन्दगी इस बात को सिद्ध करने में ही लगा देते हैं कि वे गलत नहीं हैं, जबकि वे गलत होते हैं। जिद्दीपन एवं दुराग्रह के कारण व्यक्ति आत्मशुद्धि की ओर अथवा कहें कि प्रतिक्रमण की ओर उन्मुख नहीं हो पाता। ___ अहंकार और लोभ के कारण कभी हम किसी पर क्रोध करते हैं, किसी के साथ छल-कपट करते हैं, किसी को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। कभी अपने कमजोर पक्ष को भी बलवान बनाने की कोशिश करते हैं। कभी झूठ का सहारा लेते हैं तो कभी हिंसा पर उतर आते हैं। दिनभर में इस प्रकार का व्यवहार हम आवेश में आकर कर बैठते हैं। किन्तु शाम को जब कुछ शान्त हों, तो अपने आपकी आलोचना अवश्य करनी चाहिए। उसी से बोध होता है कि मैं कहाँ गलत था और कहाँ नहीं। अपनी गलती को गलती मान लेने में अपना हित है। वही आत्मशुद्धि का सूत्र है।। __ कभी-कभी आग्रह के कारण सही बात को स्वीकार न करके अहंकार के कारण दूसरे को दबाने की सोचते हैं, किन्तु बाद में ठण्डे दिमाग से सोचना चाहिए कि क्या उसका कहना सही था? यदि सही हो तो उसे स्वीकार कर लेने के लिए तत्पर रहना चाहिए। अहं के टकराव के कारण सत्य से विमुख होना उचित नहीं। अनेकान्तवाद की दृष्टि से सोचना चाहिए- क्या दूसरे के दृष्टिकोण में सत्य का बल है? यदि दूसरा सही हो तो अपनी भूल को स्वीकार करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए। ऐसा न हो कि हम एक भूल को छिपाने के लिए अन्य अनेक भूलें करते रहें। अहंकारी एवं जिद्दी प्रवृत्ति के लोग अपनी भूल को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, अतः उनमें सुधार की भी कोई गुंजाइश नहीं रहती। __ भावना शुद्ध हो तो दोष की संभावना कम रहती है। दोष पहले भावों में आता है, फिर वह क्रियात्मक रूप लेता है इसलिए भावों को शुद्ध रखने के लिए प्रत्याख्यान स्वरूप संकल्प की भी आवश्यकता होती है। ___ मैं प्रतिदिन इस प्रकार का प्रतिक्रमण करने का प्रयास करता हूँ और सोचता हूँ कि मेरी क्या कमजोरियाँ हैं। उन कमजोरियों एवं दोषों को दूर करने का प्रयत्न भी करता हूँ। मैं तो यह समझता हूँ कि Pratikramana is the tool for self correction (प्रतिक्रमण आत्मसुधार का साधन है)। -संयोजक, संरक्षक-मण्डल, अ.भा. श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ मुणोत विला, वेस्ट कम्पाउण्ड लेन, ६३-के, भुलाबाई देसाई रोड़, मुम्बई(महा.)