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: ४५७ : आत्मसाधना में निश्चयनय की उपयोगिता श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
आत्मसाधना में निश्चयनय की उपयोगिता
* श्री सुमेरमुनिजी
जैन दर्शन में निश्चयनय और व्यवहारनय की चर्चा काफी विस्तार व गहराई से की गई है । दोनों नयों को दो आँखों के समान माना गया 1 कोई व्यक्ति व्यवहारनय को छोड़कर केवल निश्चयनय से अथवा निश्चयनय का परित्याग कर केवल व्यवहारनय से वस्तु को जानना - समझना चाहे तो वह समीचीन बोध से अनभिज्ञ ही रहेगा। दोनों में से किसी एक का अभाव होगा तो एकाक्षीपन आ जायेगा । अतः वस्तु को यथार्थ रूप से समझने के लिए दोनों नयों का सम्यग्बोध होना नितान्त जरूरी है । दोनों नयों का अपनी-अपनी भूमिका पर पूरा-पूरा वर्चस्व है । इस बात को हम जितनी गहराई से समझेंगे उतनी ही वह अधिक स्पष्ट हो जायेगी और बोध से भावित हो सकेंगे ।
निश्चयनय की परिभाषा
आपके मन-मस्तिष्क में एक प्रश्न खड़ा हो रहा होगा कि निश्चयनय और व्यवहारनय क्या है ? तो लीजिए पहले इसी प्रश्न का समाधान प्राप्त करें। निश्चयनय वह है- जो वस्तु को अखण्ड रूप में स्वीकार करता है, देखता व जानता है । जैसे आत्मा अनन्त गुणों का पुंज है, अनन्त पर्यायों का पिण्ड है, निश्चयनय उसे अखण्ड रूप में ही जानेगा -देखेगा | मतलब यह है कि किसी भी द्रव्य में जो भेद की तरफ नहीं देखता, जो शुद्ध अखण्ड द्रव्य को ही स्वीकार करता है, वह निश्चयनय है । निश्चयनय में विकल्प नहीं दीखेंगे, संयोग नजर नहीं आएंगे। निश्चयनय संयोग की ओर नहीं झांकता । उसकी दृष्टि में पर्याय नहीं आते । वह न शुद्ध पर्यायों की ओर झांकता है और न अशुद्ध पर्यायों की ओर ही ।
एक उदाहरण के द्वारा समझें । एक पट्टा तख्त है । निश्चयनय इसे पट्टे के रूप में देखता है । इस नय की आँख से यह पट्टा ही नजर आएगा। पट्टे में कीलें भी हैं, पाये भी हैं, और लकड़ी के टुकड़े भी हैं, पर निश्चयनय इन संयोगों या विभेदों को नहीं देखेगा । वह पट्टे को अखण्ड पट्टे के रूप में ही देखेगा ।
एक पुस्तक है । निश्चयनय की दृष्टि से जब हम पुस्तक को देखेंगे तो हमें पुस्तक ही नजर आएगी। क्योंकि निश्चयनय केवल पुस्तक के रूप में ही उस पुस्तक को स्वीकार करेगा । ऐसे देखा जाय तो उस पुस्तक में अलग-अलग अनेक पन्ने हैं । इन पन्नों पर अक्षर भी अंकित हैं, काली स्याही का रंग भी है । ये सब कुछ पुस्तक के अंग होते हुए भी निश्चयनय पुस्तक के इन सब अवयवों को नहीं देखता । उसकी दृष्टि अवयवी - पुस्तक की ओर ही रहेगी ।
निश्चयrय संयोगों को नहीं देखता
एक बात और समझ लें । वह यह है कि निश्चयनय की निगाह संयोगों पर नहीं जाती । जैसे पानी में मैल है, उसमें गन्दगी या मिट्टी मिली हुई है। निश्चयनय जल को जल के रूप में ही देखेगा । वह जल के साथ में मिली हुई गन्दगी, मिट्टी या मैल को नहीं देखता । वह जब भी देखेगा, जल को ही देखेगा । वह यह भी नहीं देखेगा कि यह जल किस जलाशय, नदी या समुद्र का है । यह खारा है या मीठा । निश्चयनय की आँख पर्यायों या संयोगों को कतई नहीं देखती ।
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|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
चिन्तन के विविध बिन्दु : ४५८ :
व्यवहारनय का लक्षण
व्यवहारनय वह है, जो पर्यायों, या संयोगों को देखता है। व्यवहारनय पानी को केवल पानी के रूप में नहीं देखता । वह पानी के साथ मिले हुए मैल या गन्दगी को देखेगा। वह यह भी विचार करता है कि यह पानी कहाँ का है। खारा है या मीठा। व्यवहारनय-संयोगों और पर्यायों से युक्त पानी को देखेगा । उससे शुद्ध जल नहीं दीखेगा।
व्यवहारनय का स्वरूप
व्यवहारनय की दृष्टि से तो हम अनादिकाल से अभ्यस्त हैं । अनादिकाल से हमारी आत्मा संयोग-सम्बन्ध को लेकर संसार में यात्रा करती आ रही है। हमारी आत्मा का कषाय के साथ संयोग है, कर्म के साथ संयोग है और योगों के साथ भी संयोग है । व्यवहार दृष्टि से आप देखेंगे तो ये सब संयोग नजर आयेंगे । व्यवहारनय की दृष्टि से देखें तो आत्मा आठ कर्मों से, चार कषायों से एवं कार्मण शरीर से तथा योगों से युक्त दीखेगा। परन्तु निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा को देखेंगे तो वह आठ कर्मों, तीन योगों एवं कषायों से रहित शुद्ध रूप में नजर आएगी। निश्चयनय की निगाह कर्मों, पर्यायों, योगों, कषायों आदि के संयोगों पर नहीं पड़ती। वह शूद्ध, बुद्ध स्वभावरूप आत्मा पर ही पड़ेगी।
व्यवहारनय एवं निश्चयनय का विषय
अत: निश्चयनय का विषय शुद्ध आत्मा है, जबकि व्यवहारनय का विषय अशुद्ध आत्मा है। व्यवहारनय की आंख से संयोग ही संयोग दिखाई देंगे। व्यवहारनय की दृष्टि से अनन्तभत भी देखेंगे या अनन्त भविष्य भी देखेंगे तो संयोगयुक्त नजर आएगा। किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से एकमात्र आत्मा ही नजर आएगी।
निश्चयनय ही आत्मकल्याण के लिए उपादेय
यहाँ एक बात और समझनी है कि आत्म-कल्याण से सीधा सम्बन्ध किस नय का है ? जो व्यक्ति आत्मकल्याण करना चाहता है, या मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए किस नय का उपदेश दिया जाना चाहिए ? कौन-सा नय मोक्ष या आत्मकल्याण में साधक है, कौन-सा बाधक है ? वास्तव में देखा जाय तो निश्चयनय ही आत्मकल्याण के लिए साधक है। मानसशास्त्र का एक नियम है कि जो जिस रूप में जिस चीज को देखता है, वह वैसा ही बन जाता है, वह उसी रूप में ढल जाता है। चन्द्रमा का लगातार ध्यान करने या देखने वाले व्यक्ति का स्वभाव प्रायः सौम्य या शीतल हो जाता है। इसी प्रकार जब निश्चयनय की दृष्टि से व्यक्ति आत्मा को देखता है तो वह उसके निर्मल, शुद्ध स्वभाव को ही देखेगा और निरन्तर-अनवरत शुद्ध स्वभाव की ओर दृष्टि होने से आत्म-विशुद्धि भी बढ़ती जाती है । स्वभाव दृष्टि (निश्चयनय) से देखने पर यह कुत्ते की आत्मा है, बिल्ली की आत्मा है, गाय की आत्मा है या मनुष्य की आत्मा है। यह पापी है या धर्मात्मा है । यह निर्धन या धनाढ्य आत्मा है, आदि ये विकल्प बिलकुल ओझल हो जायेंगे। इससे यह लाभ होगा कि निश्चयदृष्टि वाला साधक पवित्र, निर्मल, शुद्ध स्वरूपमय दृष्टि का होने से इन उपयुक्त पर्यायों पर नजर नहीं डालेगा। वह प्रत्येक आत्मा को सिर्फ आत्म-द्रव्य की दृष्टि से देखेगा । इस कारण न किसी आत्मा पर उसके मन में राग आएगा और न द्वेष ही। जब रागद्वेषात्मक विकल्प छूट जायेंगे तो आत्मा में होने वाली अशद्धि या मलीनता भी नहीं होगी। कितना
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: ४५६ : आत्मसाधना में निश्चयनय की उपयोगिता श्री जैन दिवाकर-स्मृति-न्य
सुन्दर उपाय है-आत्मा को शुद्ध, निर्मल एवं पवित्र बनाये रखने का । निश्चयनय की दृष्टि में ही यह चमत्कार है, जादू है कि वह आत्मा को राग-द्वेष या कषायों से मलिन नहीं होने देता।
एक-दूसरे पहलू से भी निश्चयदृष्टि पर विचार करें तो ज्ञात होगा कि इसको अपना लेने पर आत्मा की जो पर्यायें हैं, वे नजर नहीं आयेंगी। जैसे कई लोग अपने को हीन या अधिक मानने लगते हैं कि मैं पापी हूं, मैं पण्डित हूँ, मैं मूर्ख हूँ इत्यादि विकल्प निश्चयनय की दृष्टि वाले साधक में नहीं स्फूरित होते । उसकी दृष्टि में एकमात्र शुद्ध व अखण्ड आत्मा ही स्फुरित होती है।
'एगे आया': निश्चयनय का सूत्र
स्थानांग सूत्र में निश्चयनय की दृष्टि से 'एगे आया' का कथन है। इसके दो अर्थ घटित हो सकते हैं । एक अर्थ तो यह है कि हाथी की, कुत्ते की, चींटी की या मनुष्य की, सभी प्राणियों की आत्मा एक समान है। यह विकल्प और संयोग से रहित शुद्ध आत्मा निश्चयदृष्टि वालों को ही प्रतीत हो सकती है, व्यवहारदृष्टि वालों को नहीं। जब व्यक्ति विश्व की सम्पूर्ण आत्माओं को एकरूप देखेगा तो उसकी दृष्टि में कोई पापी, घृणित या द्वेषी नजर नहीं आएगा और न ही किसी के प्रति उसका राग, मोह, आसक्ति या लगाव होगा।
‘एगे आया' का दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है, आत्मा अनन्त पर्यायात्मक, अनन्त गुणात्मक अथवा अनेक सम्बन्धों से युक्त होते हए भी एक है। आत्मा एक अखण्ड द्रव्य है। चाहे पर्याय शुद्ध हो या अशुद्ध, निश्चयनय की दृष्टि में ग्राह्य नहीं होती। वह तो सिद्ध भगवान की आत्मा की निरुपाधिक शुद्ध पर्यायों को भी ग्रहण नहीं करता। इसलिए निश्चयनय की दृष्टि आत्मा को शुद्धता व निर्मलता की ओर प्रेरित करती है।
व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा के आठ प्रकार स्थानांगसूत्र में आगे चलकर व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा के आठ प्रकार बताये हैंद्रव्य-आत्मा, कषाय-आत्मा, योग-आत्मा, उपयोग-आत्मा, ज्ञान-आत्मा, दर्शन-आत्मा, चारित्र-आत्मा और वीर्य-आत्मा। क्योंकि व्यवहारनय की दृष्टि आत्मा के संयोगजन्य भेदों, पर्यायजनित प्रकारों को ही पकड़ती है। वह एक शुद्ध, अखण्ड, निरुपाधिक आत्मा को नहीं पकड़ती । निश्चयनय की दष्टि वाला साधक इन आठ प्रकारों में से सिर्फ द्रव्य रूप आत्मा को ही ग्रहण करेगा। वह इधरउधर के विकल्पों या पर्यायों के बीहड़ में नहीं भटकेगा।
निश्चयदृष्टि आत्मशुद्धि के लिए उपादेय शास्त्रों में निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों नयों से आत्मा का कथन मिलता है। इस पर से यह फैसला करना है कि निश्चयनय की दृष्टि से चलना अधिक हितकर हो सकता है या व्यवहारनय की दृष्टि से ?
अगर आपको यथार्थ रूप में अपना आत्म-कल्याण करना है तो अपने असली, अखण्ड शुद्ध स्वरूप को देखने का अभ्यास करना होगा। तभी आत्मा शुद्ध से शुद्धतर और निर्मल से निर्मलतर होती जाएगी। और एक दिन वह स्वर्णिम सबेरा होगा कि आत्मा ही परमात्मा के रूप में स्वयं प्रकट हो जायेगा । यह सब निश्चयनय की दृष्टि को अपनाने से ही हो सकता है । क्योंकि धर्मशास्त्रों का यह नियम है कि 'देवो भूत्वा देवं यजेत्' अर्थात् दिव्य रूप होकर ही देव की पूजा या प्राप्ति कर सकता है। इस दृष्टि से निश्चयनय की दृष्टि वाला साधक परम विशुद्ध ज्ञायिक स्वभाव को प्राप्त कर परमात्मस्वरूप को उपलब्ध हो जाता है।
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| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
चिन्तन के विविध बिन्दु : ४६० :
निश्चयदृष्टि के अभ्यास का अवसर
___ अनादिकाल से हमारी आत्मा संसार में परिभ्रमण करती आ रही है। चौरासी के चक्कर से मुक्त नहीं हो पाई । इसका मूल कारण है-निश्चय दृष्टि से पराङ मुख होना । व्यवहारनय के आश्रय से संयोग ही संयोग परिलक्षित होता आया है। आत्मा पुद्गल संयोगी और विभाव पर्याय में पड़ा हुआ दृष्टिगोचर हुआ । पुद्गल को देखा तो वह भी अशद्ध और संयोगी नजर आया। क्योंकि व्यवहार दृष्टि में पड़ा हुआ प्राणी शुद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का अवसर कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। किन्तु जो प्राणी निश्चयाश्रित है वही शद्ध स्वरूप की ओर झाँकता है। उसी के आश्रय से परिमुक्त व परमात्मस्वरूप का बोध व दर्शन कर पाता है, न कि व्यवहार दृष्टि से । अतएव निश्चयदृष्टि, यथार्थ दृष्टि को विस्मृत नहीं कर उसी का लक्ष्य बनाया जाय और सतत अभ्यास किया जाय । ज्ञेय के लिए दोनों नय : उपादेय के लिए निश्चयनय
जहाँ तक प्रत्येक पदार्थ को जानने का सवाल है, वहाँ तक दोनों नयों की दृष्टियों से प्रत्येक पदार्थ को सर्वांश रूप में भली-भांति जानना चाहिए। अर्थात्-दोनों नयों को भली-भाँति जानना चाहिए। किन्तु कल्याण साधते समय दोनों में से किसी एक नय का आश्रय लेना पड़े तो निश्चयनय का आश्रय लेना चाहिए, व्यवहारनय का आश्रय श्रेयस्कर नहीं होता। आत्म-कल्याण की साधना के समय व्यवहारनय का आश्रय छूट ही जाता है। नय का कार्य : वस्तु को जानना है
नय जानने का विषय है। केवल सुनने का विषय नहीं है। वस्तु को भली-भाँति जानने का काम नय करता है। कोई यह शंका उठाए कि नय जब जानने का ही काम करता है तो हमें शुद्ध को ही जानना चाहिए, अशुद्ध को जानने से क्या लाभ है ? अशुद्ध को जानकर क्या करना है ? इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-'अशुद्धनय को भी जानना तो अवश्य चाहिए। अशुद्धनय का स्वरूप जाने बिना शुद्ध नय को कैसे अपना सकेंगे? दोनों नयों से वस्तु को जानना तो चाहिए; किन्तु आत्म-कल्याण साधना के समय अपनाना और अभ्यास करना चाहिए निश्चयनय की दृष्टि का। निश्चयनय की दृष्टि में वस्तु का प्रकाशात्मक पहल
___आत्मा को शुद्ध, निर्मल एवं विकार रहित बनाने के लिए भी निश्चयनय की दृष्टि से उसके प्रकाशात्मक पहलू को देखने और उधर ही ध्यान जोड़ने की जरूरत है। व्यवहारनय की दृष्टि से हम किसी वस्तु को देखेंगे या उस ओर ध्यान जोड़ेंगे तो वह अशुद्ध रूप में ही नजर आयेगा, अन्धकार का पहलू ही हमें दृष्टिगोचर होगा। बुराई को छोड़ने के लिए बुराई की तरफ ध्यान देंगे तो धीरे-धीरे संस्कारों में वह बुराई जम जाएगी। उसका निकलना कठिन हो जाएगा। बुराई को निकालने का गलत तरीका
एक जगह हम एक मन्दिर में ठहरे थे। वहाँ चर्चा चल पड़ी कि बुराई को छोड़ना हो तो हमें क्या करना चाहिए? अगर हम किसी बुराई को छोड़ना चाहते हैं तो पहले उस बुराई की ओर हमारा ध्यान जाएगा, हम प्रायः यह देखने की कोशिश करेंगे कि हममें कौन-सी बुराई, कितनी मात्रा में है ? उस बुराई को हटाते समय भी बार-बार हमारा ध्यान उस ओर जाएगा कि बुराई कितनी घटी है, कितनी शेष रही है ? क्या बुराई निकालने का यह तरीका ठीक है ?"
हमने कहा-"यह तरीका बिलकुल गलत है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी यह तरीका यथार्थ नहीं है। यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है कि जिस वस्तु का बार
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: ४६१ आत्मसाधना के निश्चयनय की उपयोगिता श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ
बार रटन किया जाएगा, जिसे पुनः पुनः स्मरण किया जायगा, जिसका बार-बार चिन्तन-मनन किया जाएगा, वह धीरे-धीरे संस्कारों में बद्धमूल हो जाएगी। उदाहरण के तौर पर किसी व्यक्ति को क्रोध का त्याग करना है और वह बार-बार कोष का चिन्तन करता है, स्मरण करता है या उसकी ओर ध्यान देता है तो क्रोध हटने के बजाय और अधिक तीव्र हो जाएगा। क्रोध उसके संस्कारों के साथ घुल-मिल जाएगा। एक व्यक्ति शराब बहुत पोता था। उसकी पत्नी अपने पति की शराब की आदत पर उसे बहुत झिड़कती थी। परिवार के लोग भी उसकी शराब पीने की आदत के कारण उससे घृणा करते थे। अन्य लोग भी बार-बार उसे टोकते रहते थे। इस पर उसने शराब पीने का त्याग कर दिया । किन्तु उसी दिन शाम को ही समय पर उसे शराब की याद आयी । मन
में बहुत ललक उठी कि चुपके से जाकर शराब पी लूं। फिर उसे पत्नी और परिवार की डाँटफटकार की याद आयी। कुछ समय बाद फिर शराब पीने की हूक उठी, उसने अपनी प्रतिज्ञा को याद किया— मैंने शराब पीने की शपथ ली थी, पर वह तो सबके सामने शराब पीने की शपथ थी । एकान्त में जाकर अकेले में चुपके से थोड़ी शराब पी ली जाय तो क्या हर्ज है ? और फिर जिस किस्म की शराब मैं पीता था, उस किस्म की शराब पीने की मैंने शपथ ली है, दूसरे किस्म को शराब पी लूं तो क्या हानि है ? किन्तु फिर पत्नी के झिड़कने वाली क्रूर मुख मुद्रा, परिवार की बौखलाहट आदि आँखों के सामने उभर आयी। उसने उस समय शराब पीने का विचार स्थगित कर दिया । किन्तु रातभर उसे शराब के विचार आते रहे । स्वप्न भी ढेर सारे आये शराब पीने के कि वह स्वप्न में शराब की कई बोतलें गटगटा गया। सुबह उठा तो शरीर में बहुत सुस्ती थी । दिन भर शराब का चिन्तन चलता रहा। आखिर रात में चुपचाप शराब की दुकान पर चला गया। एक कोने में जाकर बैठ गया । उसने इशारे से बढ़िया किस्म की शराब का आर्डर दिया । दो प्याले शराब के पेट में उड़ेल दिये। घर जाकर चुपचाप बिस्तर पर सो गया। यह क्रम सदा चलने लगा। उसने अपने मन में यह सोचकर सन्तोष कर लिया कि मैंने जो शराब पीने की प्रतिज्ञा की है, वह अमुक किस्म की और सबके सामने न पीने की है । मैं अब जो शराब पीता हूँ वह बढ़िया किस्म की तथा चुपचाप अकेला पीता हूँ। इसमें मेरी प्रतिज्ञा में कोई आंच नहीं आती। इस प्रकार शराव का बार-बार स्मरण एवं चिन्तन करने से वह पहले की अपेक्षा अधिक शराब पीने लगा ।
हाँ तो, इसी प्रकार बुराई का बार-बार स्मरण करने, चिन्तन करने से वह नहीं छूट सकती, वह तो संस्कारों में और अधिक घुल-मिल जाएगी एवं प्रच्छन्न रूप से होने लगेगी। इस तरीके से तो धीरे-धीरे मनुष्य उसका आदी बन जाता है ।
यही बात आध्यात्मिक दृष्टि से विचारणीय है। किसी को क्रोध छोड़ना है, अभिमान छोड़ना है, माया व लोभ छोड़ना है तो वह कैसे छोड़ेगा ? कौन सा तरीका अपनायेगा, इन चारों कषायों को छोड़ने के लिए? अगर अपना उपयोग या ध्यान बार-बार क्रोधादि कषायों के साथ जोड़ेगा, इसी का चिन्तन-मनन चलेगा, इन्हीं की उधेड़बुन में मन लगता रहेगा तो कषाय के छूटने के बजाय और अधिक दृढ़ व बढ़ते जायेंगे आत्म-परिणति शुद्ध होने के बजाय क्रोधादि के बारबार विचार से अशुद्ध-अशुद्धत्तर होती चली जायेगी । पूर्वापेक्षा और अधिक रूप से कषाय की गिरफ्त में जकड़ जायेंगे जैन दर्शन का यह दृष्टिकोण रहा है- 'अविच्चुई धारणा होई' जिस वस्तु का पुनः पुनः स्मरण किया जाता है, वह कालान्तर में धारणा का रूप ले लेती है, संस्कारों में जह जमा लेती है । भगवान महावीर से जब क्रोधादि चारों कषायों से छूटने का कारण पूछा गया तो उन्होंने आत्मा के मूल स्वभाव की दृष्टि से समाधान दिया-
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श्री जैन दिवाकर.म्मृति-ग्रन्थ ।
चिन्तन के विविध बिन्दु : ४६२ :
"उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं च उज्जुभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥"
-दशवैका० अ०८, गा० ३६ अगर क्रोध को नष्ट करना चाहते हो तो उपशमभाव-क्षमाभाव को धारण करलो। अभिमान को मृदुता-नम्रता से जीतो, माया (कपट) को सरलता से और लोभ को संतोष से जीतो। क्रोध को छोड़ने के लिए क्रोध का बार-बार चिन्तन नहीं करना है, मान पर विजय पाने के लिए अभिमान का स्मरण करना उचित नहीं है, माया का त्याग करने के लिए बार-बार यह रटन ठीक नहीं कि मुझे माया को छोड़ना है, और न ही लोभ को तिलांजलि देने के लिए लोभ पर मनन करने की आवश्यकता है। अन्धकार को हटाने के लिए
कोई व्यक्ति अन्धकार को मिटाना चाहता है तो क्या अंधेरे का बार-बार चिन्तन, मनन या रटने से अथवा हाथ से बार-बार अन्धकार को हटाने से वह हट जायेगा, नष्ट हो जायेगा? ऐसा कदापि सम्भव नहीं है।
एक परिवार में नई-नई बहू आयी थी। बहू बहुत ही भोली और बुद्धि से मन्द थी। घर में सास, बहू और लड़का तीन ही प्राणी थे। कच्चा घर था। मिट्टी के घड़ों में घर का सामान रखा हुआ था। एक दिन लड़का कहीं बाहर गांव गया हुआ था। रात को सास-बहू दो ही घर में थीं। किसी आवश्यक कार्यवश सास को बाहर जाना था। अत: जाते समय वह बहू को हिदायत देती गयी-"बहू ! मैं अभी जरूरी काम से बाहर जा रही है। तू एक काम करना, अंधेरे को मार भगाना और घर के आवश्यक कार्य कर लेना।" भोली बहू ने सास की आज्ञा शिरोधार्य की। रात का समय हुआ । अंधियारा फैलने लगा। बहू ने सास की आज्ञा को ध्यान में रखते हुए अपने हाथ में डंडा उठाया और उसे घुमा-घुमाकर अंधेरे को भगाने लगी। हाथ थक गये डंडा घुमाते-घुमाते, पर अँधेरा भगा नहीं। प्रत्युत और अधिक फैल गया। और डंडे के घुमाने, पटकने से घर में सामान के भरे घड़े भी फूट गये। सामान इधर-उधर बिखर गया।
सास जब आवश्यक कार्य से निपटकर घर आयी और उसने यह सब माजरा देखा तो वह दंग रह गयी। सास ने पूछा-"बहु ! ये घड़े क्यों फोड़ डाले ?"
"माताजी ! आपने अंधेरे को मार भगाने के लिए कहा था न । मैंने पहले डंडा यों ही घुमाया, पर अंधेरा भागा नहीं, तब डंडा मारना शुरू किया। अफसोस है, तब भी अँधेरा भागा नहीं, बल्कि बढ़ता ही चला गया।" बहू ने कहा ।
बहूरानी के अविवेक पर नाराजी दिखाते हुए सास बोली-“ऐसे कहीं डंडा मारने से अंधेरा भागता है ? तुने अक्ल के साथ दुश्मनी कर रखी मालूम होती है।"
"माताजी ! तो बताइए न, यह अंधेरा कैसे भगेगा, डंडे के बिना ?" ।
सास ने मुस्कराते हुए कहा-"बहूरानी ! ला, दीपक ले आ। मैं अभी बताती हूँ, अंधेरा कैसे भगाया जाता है ! बहरानी सरल थी। वह तुरन्त एक दीपक ले आयी। सास ने दीपक जलाया दीपक के प्रज्वलित होते ही घर का सारा गहन अंधकार दूर हो गया।
सास ने बहूरानी से कहा-“देखो, बहू ! अन्धकार डंडे मारने से नहीं भागता, वह तो प्रकाश से बहुत शीघ्र भाग जाता है।"
___ ठीक इसी प्रकार बुराई या विकारों का अन्धकार मिटाना हो तो बुराई या विकारों से
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। श्री जैन दिवाकर.म्मृति-न्य !
: ४६३ : आत्मसाधना में निश्चयनय की उपयोगिता
नहीं भागेगा । क्रोध से क्रोध नहीं मिटेगा, लोभ से लोभ नहीं हटेगा। क्रोध या लोम को हटाना हो तो क्षमाभाव या संतोषभाव को अपनाना होगा। क्षमा के आते ही क्रोध अपने आप पलायन कर जायेगा । नम्रता के आते ही अभिमान चला जायेगा। सरलता का दीपक मानस मन्दिर में जगमगाते ही माया की गाढ़ तमिर्या दूर हो जायेगी। सन्तोष का हृदय में प्रकाश होते ही लोभ नौ दो ग्यारह हो जायेगा। जिस क्षण हम अन्धकार के पथ से आँखें मंदकर प्रकाश की ओर दृष्टि जमा देंगे तो फिर उलझनें या बुराई अपने आप काफूर हो जायगी। प्रकाश का मतलब है-निश्चयनय की दृष्टि, स्वभाव दृष्टि। जब हमारा उपयोग, हमारा ध्यान आत्मा के शुद्ध, निर्मल व शाश्वत स्वभाव की ओर लग जायेगा, उसी में तन्मय हो जायेगा तो यह निश्चित है कि क्रोधादि विकारभाव स्वतः ही नहीं आयेंगे । और आत्मा अपने क्षायिक भाव को प्राप्त हो जायेगा।
विकारों के संस्कारों को कैसे भगाएं शुद्ध स्वभाव की स्थिति कोरी बातों से या केवल कहने मात्र से नहीं आयेगी आत्मा में वर्षों के जमे हुए क्रोधादि कषायभाव के संस्कार कैसे भाग जायेंगे? यह एक चमत्कार ही है कि शुद्ध स्वभाव को प्राप्त करने के बाद आत्मा में पड़े हुए अशुद्ध संस्कारों की ओर ध्यान ही नहीं दिया जायेगा। उनके प्रति एकदम उपेक्षा हो जायेगी, तो वे भी कहाँ तक ठहर सकेंगे? अपने आप अपनासा मुंह लेकर चले जायेंगे।
किसी बनिये की दुकान पर कोई बातूनी आकर बैठ जाता है, तो वह दुकान पर बैठकर खाली बातें ही बनाता है। दुकानदारी में विघ्न डालता है। ग्राहकों का ध्यान सोदा लेने से हटा देता है। अतः वह दुकानदार उसे हटाना चाहेगा। अगर सीधा ही उसे यह कहा जाय कि भाग जा यहाँ से । यहाँ क्यों बैठा है ? या उसे धक्का देकर निकालना चाहे तो यह असभ्यता और अशिष्टता होगी। असभ्यता से किसी को हटाना अच्छा नहीं लगता। तो वह दुकानदार उसे सभ्यता से भगायेगा। इसके लिए वह उससे बात ही नहीं करेगा। वह अपनी दुकानदारी में या अन्य कार्यों में लग जायेगा। जब दुकानदार उसकी उपेक्षा कर देगा तो वह आगन्तुक दुकान से अपने आप ही चला जायेगा। इस प्रकार उस बातूनी से स्वतः ही छुटकारा मिल जायेगा।
हाँ, तो यही बात विकारों को भगाने के सम्बन्ध में है। अगर मन की दुकान पर विकार रूपी वाचाल आ धमके तो उसे हटाने के लिए उससे किनारा कसी करनी ही होगी। उसके प्रति उपेक्षा भाव करना ही होगा। उसकी तरफ से ध्यान हटाकर अपने शुद्ध स्वभाव रूपी माल की ओर ध्यान लगा लेवें। इस प्रकार क्रोधादि विकारों को बिलकुल प्रश्रय नहीं देने से वे अपने आप ही चले जायेंगे।
इस तरीके या पद्धति को नहीं अपनाकर क्रोधादि विकारों को मिटाने के लिए बार-बार उनका स्मरण करेंगे और लक्ष्य देंगे तो कभी दूर नहीं होंगे।
प्रकृति का अटल नियम है कि मनुष्य जिस बात को पुनः-पुनः दुहरायेगा, वह उतनी ही मजबूत होती जायेगी। अतएव उसकी ओर का ध्यान छोड़ा जायेगा तब ही उस विकारभाव को छूटकारा मिल पायेगा।
व्यवहारनय की दृष्टि से विचार : विकल्पों का जनक व्यवहारनय की दृष्टि से अगर विकारों को हटाने के लिए विकारों की ओर ही झांकेंगे, उन्हीं के सन्मुख होंगे तो विकारों का हटना तो दूर रहा किन्तु और अधिक पैदा होते चले जायेंगे । कहते हैं-ऐलोपेथिक दवा एक बीमारी को मिटाती या दबाती है, तो अन्य नई-नई बीमारियाँ पैदा
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________________ || श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ || चिन्तन के विविध बिन्दु : 464 : कर देती है। इसी प्रकार कषाय की बीमारी को मिटाने के लिए उसी का स्मरण करते चले जायेंगे तो उस एक बीमारी के स्थान पर अन्य अनेक विकारों का जन्म हो जायेगा। विकारों के बार-बार परिशीलन से विकारों का नाश कदापि नहीं हो सकेगा। इसलिए बार-बार यह कहा जा रहा है कि कषायभाव का परिमार्जन करने के लिए निश्चयनय की दृष्टि से शुद्ध स्वभाव का ध्यान करने की प्रबल आवश्यकता है। वही शूद्ध ध्यान धर्म ध्यान कहलाता है। पूर्ण आत्म द्रव्य का दर्शन निश्चयनय से ही जब हम निश्चयनय की आँख से देखने का प्रयास करेंगे तो आत्मा स्वभाव से नित्य, शुद्ध, बुद्ध, असंग, ध्रव एवं अविनाशी प्रतीत होगी। व्यवहारनय की आँख से देखेंगे तो आत्मा अनित्य, अध्र व, अशुद्ध नजर आयेगी। दोनों नयों में से कौन-सा ऐसा नय है जो कि आत्मा को संसारी बनाता है, जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण कराता है। मोक्ष का चिन्तन होते रहने पर भी बन्धन क्यों हाथ लगता है ? अनन्तकाल व्यतीत हो गया तथापि मोक्ष हस्तगत क्यों नहीं हुआ। अमर व शाश्वत सुख की अनुभूति से क्यों वंचित एवं नासमझ रहे। अगर थोड़ी-सी गहराई से विचार करें तो यह बात बहुत शीघ्र हल हो जाती है। इसका मूल कारण है कि हमने पर्याय को ही देखने की कोशिश की है। पर्यायों को देखने से अखण्ड आत्म-द्रव्य या कोई भी द्रव्य पूरा का पूरा नहीं दिखाई देता। क्योंकि पर्याय का काल एक समय का होता है, और वह भी वर्तमान में ही। यदि हम पर्याय को देखने जायेंगे तो एक साथ दो, तीन या और इससे अधिक दृष्टिगोचर नहीं होगी। एक क्षण या एक समय में एक द्रव्य की या एक गुण की कितनी पर्याय दिखलाई दे सकती है ? सिर्फ एक पर्याय ही दिखलायी देगी। तो एक पर्याय ही तो द्रव्य नहीं है। एक द्रव्य में अनन्त पर्यायें होती हैं / भूतकाल की अनन्त पर्याय हैं, भविष्य काल की अनन्त पर्याय होती हैं और वर्तमान काल की एक पर्याय होती हैं। ये सब पर्यायें-चाहे व्यक्त हों या अव्यक्त-मिलकर एक आत्म-द्रव्य बनता है। आत्मा एक प्रदेश को नहीं कहा जा सकता, और न दो प्रदेश को ही आत्मा कहा जा सकता है तथा न तीन, चार आदि प्रदेश को भी आत्मा कहा जा सकता है / आत्मा असंख्यात प्रदेशी है / इसी प्रकार एक गुण की अनन्त पर्याय भी आत्मा नहीं है। भूत-भविष्य-वर्तमान की समस्त पर्याय मिलकर ही अखण्ड आत्म द्रव्य बनता है।। इसी शुद्ध, अखण्ड और शाश्वत आत्म द्रव्य को देखना हो तो स्वभावदृष्टि, द्रव्यदृष्टि या निश्चयनय की दृष्टि को ही अपनाना होगा। निश्चयनय ही शुद्ध आत्मद्रव्य को देखने में समर्थ है। यही आत्म-शुद्धि में प्रबल साधक है। यही मोक्ष साधना में प्रबलतम सहायक है। इसे अपनाकर ही कर्म, कषाय, संयोग, पर्याय-संयोग आदि से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। व्यवहारनय की उपयोगिता निश्चयनय से प्रथम अपनी दृष्टि को शुद्ध बनाकर व्यक्ति व्यवहारनय की दृष्टि से साधनापथ पर चलने का प्रयत्न करेगा तो उसे मोक्ष की मंजिल तक पहुँचने में आसानी होगी / अन्यथा, वह यदि निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान प्राप्त करके वहीं अटक जायेगा। अतः व्यवहारनय की इतनी-सी उपयोगिता है। उसे माने बिना कोई चारा नहीं है। क्योंकि निश्चय शुद्ध व्यवहारनय को छोड़ देने पर तीर्थ-विच्छेद की सम्भावना है, और निश्चयनय को छोड़कर केवल व्यवहारनय का अनुसरण अन्धी दौड़ है। दोनों नयों का अपनी-अपनी जगह स्थान है, परन्तु अध्यात्मसाधक की दृष्टि मुख्यतया निश्चय नय की ओर होनी चाहिए। दोनों नय परस्पर सापेक्ष हैं।