Book Title: Atmagyani Shrimad Rajchandra
Author(s): Nalinaksh Pandya
Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210217/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मज्ञानी श्रीमद् राजचंद्र भक्ति और आध्यात्मिक प्रवृत्ति की ऐसी विरासत छोड़ जाने वाला यदि कोई संन्यासी होता तो इसमें नई बात नहीं थी, पर इस गुरु के बारे में आश्चर्य इस बात का है कि वह एक गृहस्थाश्रमी व्यापारी था और उसने केवल ३३ वर्ष की अल्पायु में ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी थी। श्रीमद् का जन्म सन् १८६७ में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वयस्क होने पर बम्बई में वे हीरेजवाहिरात के व्यापार में साझेदारी से जुड़े थे। अपने अंतिम एक-दो वर्षों को छोड़कर जीवन का अधिकतर समय उन्होंने व्यापार में ही बिताया था। तथापि -नलिनाक्ष पंड्या आध्यात्मिक ज्ञान व सिद्धि के जिस उच्च स्तर तक वे वल्लभ विद्यानगर, गुजरात पहुँच पाये थे इसका कारण उनकी अन्तःस्थ आध्यात्मिकता थी। सात वर्ष की आयु में उन्हें जातिस्मरण हुआ था। उन्नीसवीं शताब्दी में गुजरात में तीन महान पुरुष तभी से उनमें वैराग्य भाव उदय होने लगा था। उनकी हुए थे। एक थे वेदिक परंपराके उद्धारक महर्षि दयानंद बौद्धिक क्षमता भी असाधारण थी। १३ वर्ष की आयु में सरस्वती, जिनका जन्म मोरबी रियासत के टंकारा गाँव उन्होंने अष्टावधान का प्रयोग कर दिखाया था। इस में औदीच्य ब्राह्मण परिवार में हुआ था। दूसरे थे भारत क्षमता को निरन्तर विकसित करके वे शतावधानी बन सके थे। बम्बई में उन्होंने शतावधान के कुछ प्रयोग भी लब्ध-प्रतिष्ठ मोढ वणिक परिवार में पैदा हुए थे। तीसरे किये थे, जिन्हें आत्मसाधना में बाधक मानकर बाद में महापुरुष जो हुए वह थे मोरबी राज्य के ववाणिया ग्राम बंद किया था। के रायचंद भाई मेहता, जो श्रीमद् राजचंद्र के नाम से यह श्रीमद् की ज्ञानपिपासा ही थी जिसने उनको वेद, सुप्रसिद्ध हुए। दयानंद ने धर्मोद्धार की दिशा दिखाई, हात वेदान्त, गीता, भागवत, कुरान, जेन्द अवेस्ता और जैन गांधीजी हमें राष्ट्रोद्धार के मार्ग पर ले गये, और श्रीमद् आगमों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया था। इस राजचंद्र आत्मोद्धार के पथ-प्रदर्शक बने । प्रकार विविध धर्म-धाराओं के ज्ञाता होने पर भी वे शास्त्रश्रीमद के आत्मनिष्ठ जीवन एवं चितन का उनके पंडित न बने रहकर आध्यात्मिक अनुभति में विश्वास परिचय में आने वालों पर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा था रखते थे। इसीलिए वे विचारधारा के वाद-विवाद को कि अपने अल्पायु में भी वह अनेक भक्त और अनुयायियों व्यथ मानते थ आर आत्मदशन व आत्मप्रतीति पर बल का समदाय छोड गये थे. जिनके द्वारा स्थापित संस्थाएँ देते थे। श्रीमद् के आत्मज्ञान से प्रभावित होने वालों में आज भी कई स्थानों पर उनके विचारों के प्रसार में प्रवृत्त महात्मा गांधी भी थे। युवावस्था में जब उन्हें किसी हैं । ये स्मारक-संस्थाएँ ववाणिया, वडवा, खंभात, अगास, आध्यात्मिक समस्या का सामना करना पड़ा था तब गांधी ईडर, राजकोट, उत्तरसंडा, नरोडा, नार, सुणाव, का विठा, जी ने प्रत्यक्ष या पत्र के माध्यम से श्रीमद् से मार्गदर्शन भादरण, वसो, बोरसद, वटामण, धामण, सडोदरा, ( सभी प्राप्त किया था। इस तथ्य को स्वीकार करते हुए गांधीजी गुजरात में ), आहोर (राजस्थान ), हंपी ( कर्णाटक ), ने श्रीमद् राजचंद्र को अपना आध्यात्मिक गुरु बताया । बम्बई, देवलाली ( महाराष्ट्र), इन्दौर (म० प्र०) और यद्यपि श्रीमद् की निष्ठा जैन धर्म के प्रति थी, फिर मोम्बासा ( केन्या, अफ्रीका) में स्थित हैं। भी उनमें सांप्रदायिक संकीर्णता का नितांत अभाव था । [ ८७ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका कारण उन्हें सभी प्रमुख धर्मों का अध्ययन होने के एषणाएं नहीं थीं। यदि कोई अभीप्सा थी तो वह साथ-साथ संभवतः यह भी था कि उनके पिता सनातन- आत्मदर्शन की थी, जैसा कि उनके एक पत्र से प्रकट धर्मी दशा श्रीमाली वणिक थे और माता जैनी थी। होता है : 'रात्रि और दिवस केवल परमार्थ का ही वास्तव में श्रीमद को उसी धार्मिकता में विश्वास था जो मनन रहता है। आहार भी वही है, निद्रा भी वही है, सांप्रदायिकता से परे हो। उन्होंने लिखा है : 'संसार में शयन भी वही है, स्वप्न भी वही है, भय भी वही है, भोग. मान्यता भेद के बंधनों से तत्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। भी वही है, परिग्रह भी वही है, चाल भी वही है, आसन सच्चा सुख व आनंद इनमें नहीं है।' कई प्रसंगों पर भी वही है। अधिक क्या कहें। अस्थि, मांस और मज्जा श्रीमद् ने वेदान्त, श्रीकृष्ण, जनक विदेही, शंकराचार्य, को एक ही रंग चढ़ा हुआ है। रोम मात्र जैसे उसी के वामदेव, शुकदेव, नारद भक्ति सूत्र, योग वासिष्ठ, जड़भरत, विचार में रत है, और इस कारण से न कुछ देखना भाता कबीर, मीरा, नरसिंह मेहता, सुंदरदास आदि के दृष्टान्त है, न कुछ संघना भाता है; न कुछ सुनना भाता है, न दिये हैं. जो उनकी असांप्रदायिक समदर्शिता के परिचायक कछ चखना भाता है और न ही स्पर्श करना भाता है। न हैं। वस्तुतः उनके विचारों में आध्यात्मिक विषयों के बोलने की चाह है, न मौन रहने की ; न बैठने की चाह है, बारे में मौलिक चिंतन पर आधारित सत्यान्वेषी दृष्टि न जगने की: न खाने की चाह है, न भखे रहने की : न दिखाई देती है। असंग की चाह है, न संग की; न लक्ष्मी की चाह है, न स्वयं आत्मोन्मुखी होने की वजह से जैसे-जैसे अपने अलक्ष्मी की; ऐसी स्थिति है। तथापि इसके प्रति कोई अनुभवों के प्रकाश में वे जीवन को समझते गये, श्रीमद् आशा या निराशा के भाव की अनुभूति नहीं होती।' उन विचारों को कागज पर या डायरी में लिखते गये। श्रीमद की आत्मानुभूति की उत्कंठा उनकी इन काव्ययदि कोई दूरस्थ व्यक्ति भी अपनी किसी समस्या का पंक्तियों में सुचारू रूप से अभिव्यक्त हुई हैं : • आध्यात्मिक समाधान चाहता तो वे पत्र के द्वारा मार्ग अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे, दर्शन देते थे। इसी कारण महात्मा गांधी के शब्दों में क्यारे थईशं बाह्यान्तर निग्रंथ जो? कहें तो उनकी लेखनी की यह असाधारणता है कि उन्होंने सर्व सम्बंधन बंधन तीक्ष्ण छेदीने, सिर्फ वही लिखा जो स्वयं अनुभव किया हो। उसमें कहीं विचरशुं कब महरपुरुषने पंथ जो ? कृत्रिमता नहीं है। दूसरों को प्रभावित करने के लिए उन्होंने एक पंक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नहीं पाया ।' भक्ति को वे आत्मसाधना का श्रेष्ठ साधन मानते श्रीमद् द्वारा लिखित इन फुटकर नोट और पत्रों के थे : 'अनेक दृष्टि से विचार करने पर मैं इस दृढ़ निर्णय रूप में ही उनके अधिकतर विचार संग्रहित हैं। तदुपरांत पर पहुँचा हूँ कि भक्ति माग ही सर्वोपरि है ।' आत्मज्ञान उनकी तीन रचनाएँ 'मोक्षमाला', 'भावनाबोध' और के लिए उतना ही आवश्यक वे आत्म निष्ठों के सत्संग को 'आत्मसिद्धिशास्त्र' हैं। 'मोक्षमाला' में धार्मिक समस्याओं मानते थे। उनकी दृष्टि में सत्संग वह है जिससे आत्मको जैन दर्शन के आधार पर समझाया गया है. 'भावना- सिद्धि हो सके। उत्तम शास्त्र में निरंतर दत्तचित्त रहना बोध' में आत्मश्रेयार्थी के लिए उपयोगी मार्गदर्शन है. भी उनके मत से सत्संग ही है। तथा आत्म सिद्धिशास्त्र' में आत्मदर्शन विषयक विचारों को संसार व्यवहार के प्रति श्रीमद् निर्लिप्त थे : 'संसार के पद्य में समझाया गया है। चूंकि श्रीमद की मातृभाषा प्रति हमें परम उदासीन भाव है । यदि यह संसार सुवर्णका गुजराती थी, उनका समूचा साहित्य गुजराती भाषा में है। बन जाये तो भी हमारे लिए तृणवत रहेगा और केवल श्रीमद् की कृतियों में स्पष्ट रूप से झलकने वाला तत्त्व परमात्मा की विभूति के रूप में भक्ति-धाम बना रहेगा।' उनकी तीव्र आध्यात्मिक उत्कंठा है। यही कारण है कि उनके इसी अनासक्ति भाव की वजह से वे भिन्न व स्वयं गृहस्थाश्रमी होने पर भी उनमें कोई सांसारिक विरोधी लगने वाली व्यापार और धर्म की प्रवृत्तियों का ८८ ] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मिलन कर सके थे। अपनी दुकान में व्यापारी सौदों देखने के साथ ही पहचान जायेगा, क्योंकि पूर्ण आत्मज्ञान की बातचीत करने के तुरन्त पश्चात् वे आध्यात्मिक में न केवल स्वयं का अपितु अन्य के व्यक्तित्व का ज्ञान पाठ, लेखन या चर्चा में सहजता से लीन हो सकते थे। भी स्वतः निहित है। अपनी विरल हिन्दी काव्य-रचना श्रीमद की इस लाक्षणिकता से मुग्ध होकर गांधीजी ने में श्रीमद् ने कहा है : लिखा है कि 'जो लाखों के सौदों की बातचीत करके शीघ्र जब जान्यो निज रूप को, तब जान्यो सब लोक / ही आत्मज्ञान की गहन बातें लिखने में खो जाये उसकी नहि जान्यो जिन रूप को, सब जान्यो सो फोक / / जाति व्यापारी की न होकर शुद्ध ज्ञानी की ही हो हमारे देश में प्राचीन काल में कई ऋषि, मुनि, साधु सकती है। आदि हो गये हैं जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त किया था, पर ___ अपनी व्यावसायिक सफलता से श्रीमद ने यह सिद्ध इसके लिए उन्होंने सांसारिक बंधनों को त्यागकर अरण्यकर दिया था कि मनुष्य नीतिमान रहकर भी व्यापार कर वास किया था, जबकि श्रीमद संसार एवं संसार के सकता है। व्यापार-वाणिज्य में प्रचलित अप्रामाणिकता मोहमायारूपी प्रलोभनों के बीच जलकमलवत रहकर के सम्बन्ध में उनका कहना था कि शद्ध आत्मज्ञानी को अर्वाचीन युग में आत्मज्ञान पा सके थे। यही उनकी सबसे ठगना असंभव है। पूर्ण आत्मज्ञानी धोखेबाज व्यक्ति को बड़ी सिद्धि थी। .