Book Title: Atit ki Kuch Sthankwasi Aryaye
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की कुछ स्थानकवासी आर्याएँ -भंवरलाल नाहटा (बीकानेर) भगवान महावीर ने स्त्री-जाति की तत्कालीन दुरवस्था देखकर उन्हें मोक्ष-मार्ग की अधिकारिणी बनाया और चतुर्विध संघ में साध्वी और श्राविका को पुरुषों के समकक्ष स्थान दिया । गत ढाई हजार वर्षों में लाखों महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में उन्नत दशा प्राप्त की। भगवान महावीर के समय में ही उनसे छत्तीस हजार साध्वियों ने दीक्षा ली। सती चन्दनवाला, मृगावती आदि अनेकों ने केवलज्ञान पाकर मुक्ति प्राप्त की। उनके बाद भी अगणित तेजस्वी साध्वियों ने जैन संघ के महान् धुरंधर आचार्यों को जिनशासन सेवा में समर्पित करने का महान् कार्य किया । आर्य रक्षित को वज्रस्वामी से पूर्वो का अभ्यास करने के लिए उनकी धर्म-प्राण माता ने ही प्रेरित कर भगवती दीक्षा दिलाई थी। याकिनी महत्तरा के प्रताप से ही हरिभद्रसूरि जैसे युगप्रधान ज्योतिर्धर जिनशासन की सेवा करने में भाग्यशाली हुए। श्री जिनदत्तसूरि जैसे महान् आचार्य, युगप्रधान पुरुष का धर्मदेवोपाध्याय के पास दीक्षित कराने में भी साध्वीजी का ही महान् हाथ था। उदाहरणों की कमी नहीं, वास्तव में जैन संघ पर साध्वियों का महान् उपकार है। उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर धर्म प्रचार किया, जैन संघ के भावी स्तम्भों की जननी महिलाओं में धार्मिक संस्कार भरे। जैन संघ के उद्धार, तपश्चर्या, धार्मिक अनुष्ठानों में साध्वियों की देन स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। आज भी जैन संघ में साध्वियाँ पर्याप्त संख्या में हैं; वे विदुषी, प्रवचनकार और साहित्यकार भी हैं। जैन समाज के वर्तमान स्वरूप में उनका गौरवपूर्ण स्थान है। आधुनिक युग में जैन साध्वियों के इस बन्द पृष्ठ को खोलकर जनता के समक्ष रखना आवश्यक है, अतः उनके इतिहास पर प्रकाश डालने के लिए मेरे काकाजी अगरचन्दजी के कई लेख प्रकाशित हुए हैं। गत तीन-चार सौ वर्षों में स्थानकवासी समाज का उदय हुआ और उसमें भी अनेक साध्वियां अतीत में हुई जिनके ज्ञानपक्ष पर प्रकाश डालने वाली कोई सामग्री प्राप्त नहीं है, पर त्याग-तपश्चर्यादि क्रियापक्ष पर प्रकाश डालने वाली अनेक कृतियाँ विविध ज्ञान भण्डारों व हमारे संग्रह में विद्यमान हैं । सन् १९६६ में मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन ब्यावर से अगरचन्दजी के सम्पादकत्व में ऐतिहासिक काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ, उसमें भी पाँच कृतियाँ साध्वियों से सम्बन्धित हैं। हमारे संग्रह में और भी कई कृतियाँ अप्रकाशित हैं, उन सब का सक्षिप्त सार जनता के समक्ष रखा जाना आवश्यक समझकर यह लेख लिखा जा रहा है। (१) 'काव्य संग्रह' में मूलांजी की सज्झाय, मयांजी का संथारा, वसंतोजी का संथारा, चलरूजी की सज्झाय और सती पदमण बाई सम्बन्धी काव्य छपे हैं। उनके संक्षिप्त सार के साथ-साथ अप्रकाशित कृतियों में से सती हस्तुजी, सती अमरांजी, सती मयाकुँवरजी, सती प्रेमाजी और सती गोरांजी (अपूर्ण) का परिचय भी यथा प्राप्त संक्षेप में दिया जा रहा है। एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ये सब कृतियाँ न तो किसी साक्षर की रचना है और न किसी विद्वान की ही लिपि की हुई है, अतः उनमें पद-पद पर त्रुटियों, अशुद्धियों की भरमार है, अतः उनसे सार-ग्रहण कर ही जनता के समक्ष रखना उपयुक्त है। हमें इनकी भाषा या काव्य-सौष्ठव पर लक्ष न देकर केवल रचनाकार की तपस्विनियों के प्रति अभिव्यक्त भक्ति पर ही ध्यान देकर ऐतिहासिक तथ्य ग्रहण करना है। स्थानकवासी समाज की ऐतिहासिक सामग्री बहुत ही कम प्रकाश में आई है । उसको संग्रहीत कर प्रकाशित करने पर ही उसका इतिहास लिखा जा सकेगा। विनयचन्द ज्ञान भण्डार, जयमल ज्ञान भण्डार, अमर जैन ज्ञान Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत को कुछ स्थानकवासी आर्याएँ १५५ . ...... .. . . 0 0 भण्डार, भिणाय, लीमडी (सौराष्ट्र) आदि के स्थानकवासी ज्ञान भण्डारों की सामग्री शीघ्र ही प्रकाश में लायी जाय तो अत्यधिक श्रेयस्कर होगा। हमें तेरह महासतियों की कुछ गीत व ढालें अपूर्ण मिले हैं। उनकी पूरी कृतियाँ नहीं मिल पायी हैं । यदि कहीं प्राप्त हों तो हमें सूचित किया जाय । १ सती पदमण सरस्वती नमस्कार कर कवि पदमणी सती का गुण गाता है। नागोर (नगीन) में श्री पूज पधारे, रतलन, पदमण और करमेती तीनों वन्दनार्थ चली। बीकानेर की बाट में झीणी खेह उड़ती है, कपड़े मैले और देह निर्मल होती है । तीन प्रदक्षिणा से गुरु वन्दन किया। सासू ने पदमण से कहा-बहु, हमारे घर में रहो, आठम चौदस उपवास करो, गरम पानी पीओ, अपना धर्म करो। रतलन ने कहा-तुम्हारा घर मिथ्यात्वी है, तुम्हें संताप होगा। सती ससुराल गई, सासू ने घर का भार सौंपा। सासू ने कहा---पुत्र को खेलाना। पदमण ने कहा-मेरे पुत्र होने के भ्रम में न रहना। सती को सात तालों में बन्द कर दिया। सासजी पटसाल में और ससुर मालीये में सोया था। नेतसी भी मालीये में सोया था, सती पास में बैठी थी। बातचीत के दौरान नींद आ गई। देवता आकर खड़ा हुआ, कहा--तुम निश्चित हो गई हो, तुम्हारे लिए यही अवसर है, ऊपर से डाको । सती उठकर सात डागले डाक कर दीवाल फांद कर उपाश्रय जा पहुँची । शील के प्रसाद से न तो कुत्ता भोंका, न कोई रास्ते में मिला। दरवाजा खोलकर अन्दर भी दीपक जलाया। तीन घोड़ियाँ पलान कर बीकानेर पहुंचा दिया। भौजाइयाँ पाँव पड़ी। दो घड़ी पिछली रात में झिरमिर मेह बरसने पर नेतसी जगे, सती न देखकर सात डाग ले और लोहाडा की भीत, सौगंधिक की हाट व इधर-उधर सब जगह खोज की । न मिलने पर नेतसी को साह बापलराय ने कहा-कुपुत्र, तुम्हें धिक्कार है, सती घर से निकल गई, तुम्हारा घर का सूत्र भग्न हो गया। नेतसी ने शाह जीवराज के घर पत्र भेजा-सती आपके घर गई, मेरा क्या हवाल होगा? साह जीवराज ने पत्र भेजा-सती हमारे यहाँ आ गई। आप वैराग्य धारण करें। सती शिरोमणि पदमणल ने कलिकाल में नाम रखा [गाथा २५ प्रथम ऐतिहासिक काव्य संग्रह पृष्ठ २१६] २ हसतुजी सती वीरप्रभु ने ज्ञाता सूत्र में गुरु-गुरुणी का गुणगान करने से तीर्थंकर गोत्र उपार्जन होता यह बतलाया है । चन्दनबाला जैसी सती हस्तुजी धन्य है जिसने जिनेश्वर के ध्यान द्वारा आत्मा को उज्ज्वल किया । जोधा के राज्य में वोहरा विरमेचा बसते हैं अथवा हर जोर में जोधराजजी निवास करते हैं। उनकी स्त्री इन्दु के कोख से पुत्रीरत्न जन्मा, ज्योतिषियों ने हस्तुजी नामकरण किया। वयस्क होने पर बराबरी का सगपण देखकर झंवर मुंहता के यहाँ नागोर में उसका विवाह कर दिया। पति का आयुष्य पूर्ण हुआ, विशेष शोक संताप न कर शान्त रहे। गुरुणी वरजुजी जो सूत्र सिद्धान्त के ज्ञाता थे, उनके उपदेश से हस्तुजी को वैराग्य उत्पन्न हो गया। पीहर ससुरालवालों को समझा बुझा कर हस्तुजी दीक्षित हो गई। शास्त्राभ्यास और गुरुणीजी की बड़ी वैयावच्च की । वरजुजी महासती के स्वर्गवासी होने पर हस्तुजी उनके पट्ट पर विराजे। ये तपस्या खूब करती। विगय त्याग था, गुड़, खांड़, मिठाई, रसाल कुछ भी न लेकर ४२ दोषरहित आहार लेती । सतरे भेद संयम, नववाड युक्त ब्रह्मचर्य पालन करने वाली हस्तुजी महासती धन्यधन्य है । [इसकी २ ढाल हैं। पहली ढाल में गाथा १६ हैं और दूसरी ढाल में ५ गाथाएँ एक पत्र में आई हैं, अपूर्ण प्रति पत्र की है।] ३ सती अमराजी मारवाड के अराइ (?) नगर में नेबेसिंगजी की स्त्री गुलाबाई के यहाँ अमराजी का जन्म हुआ। आपका गोत्र आंचलीया था। सरपाचेवर (?) में रांकों के यहाँ विवाह हुआ। ससुर का नाम सोजी माहाजी (?) और पति का नाम थानसिंहजी था। सबके साथ अत्यन्त प्रीति थी। एक बार सरपाचेवर में महासती अजवांजी पधारे । अमराजी उनके उपदेश से वैराग्यवान होकर दीक्षा लेने के लिए सास-ससुर से आज्ञा मांगी। सास-ससुर ने घर में रहकर यावज्जीवन श्रावकव्रत पालते रहने का निर्देश किया पर संयम की उत्कट अभिलाषा थी, रांकों का बड़ा परिवार था, सब ने मना की। इसके बाद अमराजी अराइ अपने पीहर आई, आज्ञा मांगने पर माता-पिता व सभी आंचलिया परिवार ने चारित्र दिलाने से अस्वीकार किया, किसी का कथन न माना और किसनगढ़ पत्र भेजा। [पत्री अपूर्ण] चौथी ढाल अपूर्ण । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड . ४ सती मयाकुंवरजी सती मयाकुंवरजी ने सामगढ़ के ओसवाल जीवराजजी की पत्नी उत्तम सती के कोख से जन्म लिया। सं० १८१४ में आर्या सुखांजी सामगढ़ पधारे। उनके उपदेश से आपने चौदह वर्ष की अवस्था में दीक्षा ले ली। श्री पूज्य मनजी और नाथूरामजी जैसे गुरु मिले, उसके कार्य सिद्ध हुए। आर्या रूपांजी और सुखांजी मिलीं। दादा गुरुणी के दर्शनों की उत्कण्ठा थी। सं० १८१५ का चातुर्मास बूंदी किया। आंखों की नजर घट गई। चातुर्मास के बाद बिहार कर कोटा रामपुरा आये। सुखांजी महाराज से समता भाव पूर्वक तपश्चर्या करने के भाव व्यक्त किये । सुखांजी ने कहा-धौर्य रखो, अवसर आने पर तपस्या करना । मयाकुंवरजी ने कहा- मेरे चढ़ते परिणाम हैं। एक महीने तक बेले-बेले पारणा किया। जब उन्होंने दीपचन्दजी का संथारा सुना तो तपस्या का रंग चढ़ा और पंचोले-पंचोले पारणा करते हुए ध्यान में लवलीन होकर बैठे रहते, सूत्र की स्वाध्याय करते । तेंतीस पचोले करने के पश्चात दही, बुरा, मिश्री के अतिरिक्त चार विगय का त्याग कर दिया। पंचेंद्रिय दमन करते हुए संयम साधना में दिन में बैठे ही रहते । साढ़े बारह महीने में ६१ पंचोले हुए। देह की शक्ति घटी। गुरुणी सुखांजी तथा गुरु बहिन अजवांजी, खेमजी, मीठुजी ने पूर्ण सहायता व सेवा की। सं० १८१७ मार्गशीर्ष सुदि ७ के दिन स्वयं संथारा कर दिया। कोटारामपुरा में चतुर्विध संघ इकट्ठा हुआ। मयाजी का संथारा सुन श्री पूज्यजी ने जीवराजजी रामचन्द्रजी के साधु को विहार कराया। संथारे पर लक्ष्मीचन्दजी पधार गए। रामचन्द्रजी सूत्र-व्याख्यान करते। आगरा से साह भोलानाथजी ने आकर सेवा की। भावा खुशालचन्दजी ने भी सेवा बजाई। ५५ दिन तीविहार में और १३ प्रहर चौविहार अनसन संथारा गुरु रामचन्द्रजी के मुख से सिद्ध हुआ। मिती माघ सुदि ३ के दिन सूर्योदय के समय स्वर्ग गति प्राप्त की। श्रावक साह मल ने यह ४१ गाथा महासती मयाकुंवरजी की सज्झाय रची। सं० १८१७ में कोटा रामपुरा में श्री पूजजी मनजी की शिष्या जेठाजी शिष्या रूपाजी शिष्या सुखांजी की शिष्या मयाकुंवरजी की सज्झाय लिखी। ५ सती पेमाजी पेमाजी सतियों में सरदार थी। काया की शक्ति घट गई, वेदना बढ़ी। साधु सुन्दरजी को बुलाया। हाथ ऊँचाकर संथारा का पच्चक्खाण किया। मिती आषाढ़ बढ़ी १२ को संथारा किया। मुहणोतों का यश फैला। क्षमत क्षामणा करते हुए पौने चार प्रहर का संथारा आया। सं० १७६१ में बाई नगरि ने यह ४० गाथा की सज्झाय पूर्ण की। [दूसरा पत्र गा-२४ से है आदि विहीन] ६ सतो मयाजी ढुंढाड देश में दुधु नगर है जहाँ मयाजी ने अवतार लिया। आपके पिता सुखरामजी और माता वीरादेजी थी। बयस्क होने पर आपकी सगाई की। विवाहित हो साबडदा आये। कितने ही काल सांसारिक सुख भोगा। फिर पति का वियोग होने से संसार की अस्थिरता भासित हुई। सती संभाजी के उपदेश से दीक्षा की भावना हुई और गोपीपर में जाकर दीक्षा ली, रंभाजी के पास शास्त्राभ्यास किया । [दोहे [] आगे ५२ गाथा की ढाल में अरिहंत-गणधर-भगवान को व पूज्य नाथूरामजी को नमस्कार कर मयाजी का गुण वर्णन किया है। पूज्य नथमलजी स्वामी भोजराजजी पट्टधर हैं और विद्वान व्याख्यानदाता और संयमी हैं । दुधू नगर में राजा जीवणसिंह के राज्य में प्रजा सुख से निवास करती है। वहाँ.मयाजी ने सुखरामजी की भार्या वीरां दे की कोख से जन्म लिया । भाई भौजाई भतीजे परिवार पूरा था। कितने ही वर्ष सांसारिक सुख भोगकर रंभाजी के पास दीक्षित हुए । स्वाध्याय ध्यान में लवलीन रहते तीन लाख ग्रन्थ (परिमाण शास्त्र) लिखे। सती मयाजी ने खूब तपस्या की, उपवास, बेलों-तेलों की गिनती नहीं सतरह अठाइयाँ कीं। शुद्ध चारित्र पालते हुए बत्तीस वर्ष बिताए। अपनी आयु शेष जानकर पुस्तक पात्रों से मोह हटाकर सती मगनाजी को सौंप दिए । आलोयणा पूर्वक निःशल्य होकर श्रावण बदि ६ मंगलवार को तिविहार संथारा कर दिया। सती ने पूज्य भोजराज जी की विनयपूर्वक बड़ी सेवा की। स्वामी गोरधन जी जोबनेर में चातुर्मास स्थित थे। सती मयाजी का संथारा सुनकर दूधावती पधारे । सती मयाजी ने मगनाजी, लिछमाजी को पास बुलाकर पूज्य जी की आज्ञा में रहते शिक्षा मानने का निर्देश किया। इन दोनों शिष्याओं ने गुरुणी की बड़ी सेवा की। गांव के श्रावक आये। लोगों ने शीलव्रत, रात्रि भोजनत्याग, कंदमूल त्याग एवं व्रत उपवासादि अनेक प्रकार के त्याग प्रत्याख्यान किये । सं० १८६३ मिती आसोज सुदी ७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत को कुछ स्थानकवासी आर्याएँ १५७ - ++......... . ... शनिवार के दिन ढाई महीने का संथारा पूर्ण कर स्वर्गवासी हुए। 'मनसुख काला' उन्हें बारंबार वंदन करता है। सं० १८६३ आश्विन शुक्ला १० को चन्द्रवार के दिन कवि मनसाराम ने यह रचना की। [ऐतिहासिक काव्य संग्रह पृ० २०५ में प्रकाशित ७. सती मूलांजी सं १७८६ में मूल नक्षत्र में आपने जन्म लिया । आपके पिता सरूपचन्द जी और माता का नाम फूलांजी था । आर्या अनोपांजी के फतैपुर पधारने पर आपने चार महीने सेवा की। दीक्षा का भाव हुआ, प्रतिक्रमण सीख कर दीक्षा की बात की। मन में चिंता हुई कि मेरा बड़ा भाई विदेश में है, ससुराल वाले मिथ्यात्वी हैं। मूलांजी की इस चिता में अन्न खाने पर भी अरुचि हुई देकखर छोटे भाई ने आज्ञा दे दी । सं १८१० के मृगसर बदि २ के दिन दीक्षा ग्रहण थी। अनेकों व्रत पच्चखाण किये । दीक्षा के अनंतर विहार कर ५ वर्ष देश में रहे । फिर बीकानेर चौमासा किया। जयपुर, कोटा, शेरगढ़ में विचरे । कोटा चौमासा में विषम ज्वर की व्याधि हुई परन्तु तपस्या के प्रभाव से ज्वर दुर हुआ । फागी आये, तिवाडी की आज्ञा न होने से किशनगढ़ चातुर्मास किया। इस प्रकार आठ चौमासे उग्र विहार करते बीते । सं० १८१६ में बीकानेर पधार कर हरजी कमलजी के दर्शन किए । सं० १८२० में नाथूरामजी का चौमासा हआ। सती मूलांजी ने करबद्ध होकर तपचर्या करने की भावना व्यक्त की। गुर्वाज्ञा से बेले-बेले पारणा, फिर तेले पारणे, इस प्रकार संग्राम में उतर कर कर्म खपाने के लिए पाँच-पाँच उपवास और चार विगय का त्याग किया। जब शरीर क्षीण हो गया तो संथारा लेकर बीकानेर में आश्विन सुदि ११ को तिविहार के पच्चक्खाण किए। सत्रह दिन तिविहार और सात प्रहर चौविहार संथारा पूर्ण कर कार्तिक बदि १२ के पिछले प्रहर स्वर्गवासी हुए ! बसत (संभवत: नीचेवाली घटना) कवि ने स० १८२१ कार्तिक सुदी १४ को इस ३७ गाथा की सज्झाय बनाई [ऐ० का० सं० पृ० २०३] ८. सती वसन्तोजी सांथा गाँव के ब्राह्मण टोडरमल की पत्नी विरजावती की कोख में वसंतोजी ने जन्म लिया। गरुणीजी के पास दीक्षा लेकर ग्राम नगर में विचरण करते हुए आगरा नगर पधारे। सती बसन्तोजी ने बहुत तपस्या की। सं० १८८६ मिति श्रावण सुदि रविवार के दिन कर्मों का क्षय करने के लिए अनशन कर दिया। श्री सीमंधर स्वामी को वन्दनापूर्वक पूज्य श्री वैणसुख जी के मुंह से संभार ‘पयन्नाशास्त्र सुना। सती बसन्तो जी ने भावपूर्वक भाद्र शुक्ल २ सोमवार को तृतीय प्रहर में लाभ के चौघडिये में देह त्याग की। सती ने अपने माता पिता और कुल को उज्ज्वल कर स्वर्गवास किया । कवि आसकरण ने २६ गाथा की सज्झाय में सती के गुण गाए । [ऐ० का० सं० पृ० २११] ९. महासती चतरुजी नगर गाँव में संगी सरूपचन्द के यहाँ सती चतरुजी ने जन्म लिया । बाल्यकाल से गुरुओं के समागम से धार्मिक संस्कार थे। महासती अमरुजी महाराज के पास दीक्षा लेकर शास्त्राभ्यास किया। आपने देश विदेश में विचर कर बहुतों का उपकार किया। शारीरिक शक्ति घट जाने से गढ़ में स्थिर ठाणा विराजे । उपवास, छट्ठ, अष्टम बहुत किए । आठों प्रहर स्वाध्याय ध्यान में रत रहते । कार्तिक बदि १० के दिन आपने तीनों आहार का त्याग रात्रि के पिछले प्रहर में मन ही मन किया। चनणाजी महाराज ने कहा अभी धैर्य रखें, शीघ्रता न करें। चतरुजी ने कहा--पूज्य महाराज नहीं फरमावेंगे तो चौहिवार कर दूंगी। चतुर्विध संघ एकत्र हुआ। कूचामन से अमेदमलजी महाराज पधारे, गुरु बहिनों और जनाजी, झमीजी, शिष्याओं ने बड़ी सेवा की। श्राविकाओं ने छट्ठ, अट्ठम किए, रतनाबाई ने तो संथारा पर्यन्त तिविहार पच्चक्खाण किया। मिती मिगसर सुदि १२ के दिन अनशनपूर्वक संथारा पूर्ण हुआ। ५३ वर्ष की आयु पाई। ३४ वर्ष संयम पालन किया । हरखबाई ने २१ गाथा में यह सज्झाय रची। [ऐ० का० सं० पृ० २१४] १०. सती गोरांजी सरस्वती को नमस्कार कर गुरुणीजी के गुण गाते कवि कहता है कि लाहोर के खत्री कुल में सती गोरांजी ने जन्म लिया। यौवन वय में वैराग्य वासित होकर उन्होंने जन्म सफल किया। गुरु श्री लालचन्दजी शहर जहानाबाद पधारे । गुरुवाणी सुनकर नश्वर संसार की अस्थिरता ज्ञात कर दीक्षा लेना निश्चय किया। उन्हें आणंदांजी जैसी गुरुणी मिली, गुरु वचनों से संयम पथ की ओर बढ़ी। [अपूर्ण पत्र] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रत्य: अष्टम खण्ड + + +++++++++++++++++++++++...' ++ ++++ ++ +++++++++ ++ + ++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++ ++++ ++ ++++ ह ११. गीगां सती - इनका एक विहार पत्र हमारे संग्रह में है जिससे मालूम होता है कि उन्होंने सं० १८३० वैशाख बदी ५ को जोधपुर में पूज्य श्री जयमलजी और रायचन्दजी के पास दीक्षा ली थी। इनकी गुरुणी लाछांजी थीं। इनके चौमासे इस प्रकार हुए-सं० १८३० जोधपुर, १८३१ पाली, १८३२ नागोर, १८३३ मेडता, १८३४ नागोर, १८३५ तीवरी, १८३६......", १८३७ रीयां, १८३८.......", १८३६ गगडाण, १८४० डेह, १८४१ जोधपुर, १८४२ रीयां, १८४३ पीपाड, १८४४ जोधपुर, १८४५ जोधपुर, १८४६ पाली, १८४७ पीपाड, १८४८ नागोर, १८४६ मेडता, १८५० जोधपुर, १८५१ बीकानेर, १८५२ पीपाड, १८५३ जोधपुर, १८५४ सैर (नागोर), १८५५ सैर (नागोर), १८५६ जोधपुर, १८५७ पाली, १८५८ मेडता में ठाणा ५ से चातुर्मास किया। इन चातुर्मासों में अन्य दीक्षाओं का व कितने ठाणों से चातुर्मास हुआ वह भी उल्लेख है । १२. डाही सती इनके सम्बन्ध में बाई रेखादे से नागबाई ने "डाही सती भास' लिखी है जिसका सार आगे दिया जा रहा है डाही सती की भास २१ गाथाओं में बाई रेखादे की वीनती से नागबाई ने रची है। सर्वप्रथम आदिनाथ और गणधर-सरस्वती को प्रणाम कर डाहीजी सती के गुणगान का उपक्रम किया है। सं० १६५० फाल्गुन शुक्ला ११ गुरुवार के दिन इस महासती का जन्म मरुधर देश के आडवा गाँव में हुआ था। आपके पिता लुंकड गोत्रीय पेथड-सा के पुत्र हंसराज थे जिनकी धर्मपत्नी हर्षमदे शील में सीता जैसी थी, वह आपकी जन्मदात्री थी। डाहीजी, साह भोजा के यहां छाछलदे सती की कुलवधू थी अर्थात् उनके पुत्र के साथ विवाहित थी जिसका नाम इस भास में नहीं है । चरित्र नायिका ने अपने विनय गुण से उभय पक्ष की शोभा बढ़ाई । ज्ञान वैराग्य की प्रबलता से संयम ग्रहण करने के लिए सारे कुटुम्ब की अनुमति पाकर सं० १६७२ माघ सुदी ७ के दिन पूज्य श्री जसवन्तजी के कर-कमलों से दीक्षित हुई। आपको सती मनकीजी की शिष्या घोषित की गई। आप गुणवान थी, शिष्य परिवार बढ़ा । डाहीजी ने ४२ वर्ष पर्यन्त सिंह की भाँति संयम पालन किया, आपकी ज्ञानवान शिष्याओं ने अच्छी सेवा की। ___आर्या ढाहीजी के संथारे का अवसर ज्ञात कर श्री पूज्यजी के दीप्तिवान् शिष्य सहसकर्ण वन्दना कराने के लिए निवली नगर पधारे। संघ से परामर्श कर सतीजी का उत्साह देखकर सं० १७१३ ज्येष्ठ सुदी १५ को संथारा कराया, तीन प्रहर का तिविहार और फिर चार प्रहर का चौविहार प्रतिपक्ष सोमवार को प्रातःकाल संथारा सिद्ध हुआ। साह केशव, जीवजी, रासिंघ ने प्रचुर द्रव्य व्यय कर उत्सव-महोत्सव किए। श्री पूज्य धनराजजी के शासन में श्रावण शुक्ल गुरुवार के दिन जीवदया प्रतिपाल श्रावकों की सेवा प्रशस्त थी, उस समय बाई रेखादे की विनती से नागबाई ने यह भास जोड़ कर बनाई। GANA - - ---