Book Title: Arhat na 34 Atishayo Vishe
Author(s): Trailokyamandanvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ९७ अर्हतना ३४ अतिशयो विशे - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय हमणां पूज्य गुरुभगवन्त आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराजे पोताना संग्रहमांथी, चोत्रीस अतिशयोने वर्णवती अक कृति प्रतिलिपि करवा माटे मने आपी. मुनि भक्तिविजय शास्त्रसंग्रह(जैन आत्मानन्द सभा) भावनगर-नं. १०४६/ १नी प्रतनी ओ फोटोकोपी हती. प्रतिलिपि दरमियान शुद्धीकरण माटे समवायाङ्ग सूत्र जोयुं तो ख्याल आव्यो के कृतिमां मूकायेला ३४ सूत्रो अने तेमनो स्तबकार्थ अनुक्रमे समवायाङ्गगत चतुस्त्रिंशत्स्थानक अने तेनी अभयदेवसूरिजी कृत टीका, थोडंक अशुद्ध अनुलेखन मात्र छे. मतलब के आ कृति कोई स्वतन्त्र रचना नथी, पण उतारो ज छे अने तेथी तेनुं सम्पादन-प्रकाशन करवानुं रहेतुं नथी. पण आ सन्दर्भे अर्हत्ना ३४ अतिशयो अंगे जे थोडीक वातो विचारवा जेवी लागी ते अहीं नोंधवी छे. आपणे त्यां अत्यारे ३४ अतिशयो नीचे मुजब गणावाय छे. ४ जन्मजात अतिशयो १. प्रभु, शरीर नीरोगी अने निर्मल होय छे, अद्भुत रूप धरावतुं होय छे. २. श्वासोच्छ्वास कमल जेवो सुगन्धी होय छे. ३. लोही अने मांस - गायना दूध जेवा सफेद अने दुर्गन्ध रहित होय छे. ४. आहार अने नीहार चर्मचक्षुथी अदृश्य होय छे. ११ कर्मक्षयथी थनारा अतिशयो X१५. समवसरणमा ओक योजन जेटली जग्यामां ज करोडो करोडो देव, मनुष्य अने तिर्यंचो रही शके. ६. अर्द्धमागधीमां देशना आपे. ओ देशना देव, मनुष्य अने तिर्यंचोने १. आ निशानी करेला अतिशयो समवायाङ्गजीमां नथी. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ ___ पोतपोतानी भाषामां समजाय. ओक योजन सुधी ओ देशना संभळाय. ७. मस्तकनी पाछळ भामण्डल सर्जाय. ८. रोग न थाय. (आ अने हवे पछीना ७ अतिशयो ‘१२५ योजन सुधी' समजवाना छे.) ९. वैरभाव न थाय. १०. उपद्रव न थाय. ११. मारि न थाय. १२. अतिवृष्टि न थाय. १३. अनावृष्टि न थाय. १४. दुर्भिक्ष न पडे. १५. पोताना के बीजाना देश के राजा तरफथी भय न आवे. देवकृत १९ अतिशय १६. आकाशमां धर्मचक्र चाले. १७. आकाशमां चामर वींझाता रहे. १८. आकाशमां पादपीठिकासहित उज्ज्वल स्फटिकमय सिंहासन होय. १९. आकाशमां त्रण छत्र होय. २०. आकाशमां रत्नमय ध्वज होय. ४२१. सुवर्णकमल उपर ज पग मूके. ४२२. सुवर्ण, रौप्य अने रत्नमय त्रण गढवाळु समवसरण होय. X२३. समवसरणमां प्रभुनी त्रण प्रतिकृतिओ रचाय, जेथी प्रभु चतुर्मुख लागे. २४. अशोकवृक्ष होय. २५. कांटा ऊंधा थई जाय. ४२६. वृक्षो नमन करे. ४२७. दुन्दुभिनाद थाय. २८. वायु सुखद होय. ४२९. पक्षीओ प्रदक्षिणा आपे. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ ३०. सुगन्धी पाणीनी वृष्टि थाय. ३१. पंच वर्णनां पुष्पोनी वृष्टि थाय. ३२. वाळ, दाढी, मूछ अने नख न वधे. *३३. ओछामां ओछा १ करोड देवो भगवाननी सेवामां रहे. ३४. छओ ऋतुओ इन्द्रियोना विषयोने अनुकूल रहे. हवे आपणे समवायाङ्गमां ३४ अतिशयोनुं जे निरूपण छे तेनी प्रस्तुत प्ररूपणा साथे तुलना करीशुं अने त्यारबाद तेना फलितार्थो विशे विचारीशुं. समवायाङ्गजीमां सौप्रथम अरिहन्तोना शरीर साथै सम्बन्धित ५ अतिशयोपूर्वोक्त नं. ३२ अने नं. १-४ क्रमशः नोंधाया छे अने त्यारबाद तेओनी विभूति दर्शावनारा १५ अतिशयोनुं वर्णन छे. ६. ७. ८. ९. ९९ आकाशमां वर्ततुं के प्रकाशमान चक्र होय. (तुलना - पूर्वोक्त नं. १६) आकाशमां वर्ततां के प्रकाशमान त्रण छत्र होय. (नं. १९) प्रकाशमान बे श्वेत चामर होय. (नं. १७) आकाश जेवा स्वच्छ स्फटिक रत्ननुं पादपीठ साथेनुं सिंहासन होय. (नं.१८) १०. अत्यन्त ऊंचो, नानी नानी हजारो पताकाओथी सुशोभित इन्द्रध्वज भगवाननी आगळ चाले. (नं. २०) ११. ज्यां ज्यां भगवान ऊभा रहे ते बेसे त्यां त्यां यक्षनिकायना' देवो पत्र, पुष्प अने पल्लवथी लची पडेलुं अने छत्र, ध्वजा, घण्टा तेमज पताकाओथी सुशोभित अशोकवृक्ष रचे छे. (नं. २४) १२. मस्तकथी थोडाक पाछळना भागमां प्रभामण्डल सर्जाय छे के जे अन्धकारमा पण दशे दिशाओने प्रकाशित करे छे. (नं. ७) १३. जमीन समतल अने रमणीय बनी जाय छे. (X) १४. कांटा ऊंधा थइ जाय छे. (नं. २५) १५. ऋतुओ अनुकूल बनी जाय छे. (नं. ३४) १. अत्रे 'आगासगं' शब्दना आ बे अर्थो टीकामां सूचवाया छे. २. अत्रे मूळमां 'जक्खा देवा' पाठ छे, तेने अनुसरीने आ अर्थ लख्यो छे, टीकाकार भगवन्ते तो 'तक्खणादेव' ओवो पाठ स्वीकारीने 'तत्क्षणमेव' ओवो अर्थ कर्यो छे. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनुसन्धान-५७ १६. शीतल, सुखद अने सुरभित पवनथी चारे बाजुनी ओक योजन जेटली जमीन स्वच्छ थइ जाय छे. (नं. २८) १७. झीणां फोरां वाळी वृष्टि द्वारा धूळ, रजकण व. दूर थइ जायछे.१ १८. जलज अने स्थलज, पांच वर्णना अने ऊर्ध्वमुख पुष्पोनो जानुप्रमाण ढगलो थाय छे. (नं. ३१) १९. अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप अने गन्धनो अभाव थाय छे. (X) २०. मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, अने गन्धनो प्रादुर्भाव थाय छे.२ (X) त्यारबाद भगवानना अन्य व्यक्तिओ पर के प्रकृति पर प्रभाव दर्शावनारा १४ अतिशयो समवायाङ्गजीमां नोंधाया छे२१. भगवाननो स्वर हृदयाह्लादक अने योजनगामी होय. २२. भगवान अर्धमागधी भाषामां देशना आपे. २३. ते अर्धमागधी भाषा आर्य अने अनार्य मनुष्यो, पशु, पक्षी, सरीसृप सर्वेने पोतानी हितकारी, कल्याणकारी अने सुखद भाषापणे परिणमे. (देशनाने लगता आ त्रणे अतिशयोनो समावेश अत्यारे एक ज अतिशयमां करवामां आवे छे. (जुओ नं. ६) । २४. पूर्वे जेओने वेर बंधायेलुं छे तेवा देवो, असुरो, नागकुमारो, सुपर्णकुमारो, यक्षो, राक्षसो, किंनरो, किंपुरुषो, गरुडो, गन्धर्वो अने महोरगो; अर्हत्ना चरणोमां प्रशान्त मन वाळा थइने धर्म सांभळे छे. (नं. ९) २५. अन्यतीर्थिको पण भगवानने वन्दन करे छे.४ (X) २६. अन्यतीथिको भगवाननो प्रतिवाद नथी करी शकता . (X) १. टीकाकारे आ अतिशयने 'गन्धोदकवर्षा' अवा नामे ओळखाव्यो छे. २. टीकाकार जणावे छे के आ १९-२० अतिशय बृहद्वाचना मुजब छे. स्वसम्मत अतिशयो आ छे - १९. भगवान ज्यां बेसे ते स्थान कालागुरु व. धूपनी सुगन्धथी मघमघायमान बनी जाय छे. २०. भगवाननी बे बाजुओ बे यक्षो चामर ढाळे छे. ३. टीकाकार 'सुवण्ण'नो अर्थ 'ज्यौतिषिक' अने 'गरुल'नो अर्थ 'सुपर्णकुमार' करे छे. ४. टीकाकारे आ बे अतिशय माटे आवी नोंध करी छे - "बृहद्वाचनायामिदमन्यदति शयद्वयमभिधीयते'' पण आवी नोंध कर्या पछी अन्य वाचनामां आ बेनी जग्याओ शुं हतुं ते दर्शावता नथी. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १०१ २७. उपद्रव न थाय. (नं. १०) २८. मारि न थाय. (नं. ११) २९. पोताना देशनी राजसत्ता उपद्रवकारी न बने. ३०. अन्य देशनी राजसत्ता उपद्रवकारी न बने. (बन्ने मळीने नं. १५) ३१. अतिवृष्टि न थाय. (नं. १२) ३२. अनावृष्टि न थाय. (नं. १३) ३३. दुर्भिक्ष न पडे. (नं. १४) ३४. पूर्वे उद्भवेली व्याधिओ शीघ्र शान्त थइ जाय. (नं. ८) उपरनी तुलना परथी जणाशे के अत्यारे वर्णवाता अतिशयोमांना ८ अतिशयो नं. ५, २१, २२, २३, २६, २७, २९ अने ३३ प्राचीनकाले (कम से कम समवायाङ्गनी वीर नि.सं. ९८०मां थयेली संकलना सुधी तो) ३४ अतिशयोमां नहोता ज गणावाता. आ अतिशयो ३४ अतिशयनी गणतरीमां क्यारे स्थान पाम्या ते निश्चितपणे तो कहेवू मुश्केल छे, पण विक्रमनी ११मी सदी पछीना ग्रन्थोमां आ अतिशयो, जे रोचक वर्णन मळे छे ते जोतां आ प्रवृत्ति बहु वहेली चालु थई हशे ते अनुमानी शकाय छे. जोके विक्रमनी १११२मी सदी सुधी नवा नवा अतिशयो सर्जावानी प्रक्रिया चालु हती तेम श्री अभयदेवसूरिजीओ १९-२०मा अतिशय तरीके दर्शावेली तद्दन नवी वातो परथी जाणी शकाय छे. तेओ स्वयं जणावे छे के “एते च यदन्यथाऽपि दृश्यन्ते तन्मतान्तरमवगन्तव्यम् ।" आनो संकेतार्थ ए होई शके के अर्हनी नवनवी विभूतिओ भक्ति-बहुमानपूर्वक कल्पवानी प्रक्रिया त्यारे पूरजोशमां चालु होय. समवायाङ्गजीमां आ अतिशयो, कोई विभागीकरण नथी करवामां आव्यु. टीकाकार भगवन्ते २-५ अतिशयोने भवप्रत्ययिक, २१-३४ अने १२प्रभामण्डलने कर्मक्षयजन्य अने शेष १५ने देवकृत गणाव्या छे. पाछळथी आ देवकृत अतिशयोनी संख्या वधारीने १९ करवामां आवी अने तेने लीधे केटलाक कर्मक्षयजन्य अतिशयोने कां तो भेगा करी देवामां आव्या कां तो बाकात करवामां आव्या. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनुसन्धान-५७ आ समग्र सन्दर्भे विचारतां अम लागे छे के आगमोनी रचनाकाले अर्हत्नुं वर्णन वास्तविकताने अनुलक्षीने थतुं हतुं, तेओने अन्य मनुष्योतीर्थप्रवर्तको करतां विशिष्ट कोटिना अवश्य जणावाता हता, तेओनी पासे देवोनुं आवागमन पण वर्णवातुं हतुं, पण ओ बधुं ओक हद सुधी सीमित हतुं. पाछळथी जेम बौद्धादि अन्य परम्पराओनी जेम जैन परम्परामां पण तेवा देशकालने अनुलक्षीने अर्हत्नुं चमत्कारिक वर्णन आरंभायुं होय. लौकिक, चमत्कारिक, वातो-वर्णनोथी अंजायेला लोकोने आवर्जवा माटे तेम करवू जरूरी पण हशेज. आ वर्णन माटे अर्हत्नी विविध विलक्षण विभूतिओने ३४ अतिशयोमां स्थान आपवामां आव्यु, अटलुं ज नहीं पण समावायाङ्ग जेवा आगममां आवा ३४ अतिशयो वर्णवाया छे ओम पण जणाववामां आव्यु.१ केटलाक अतिशयोनुं समवायाङ्गमा जे स्वरूप हतुं तेना करतां घणुं जुदुं वर्णन, पण करवामां आव्यु. जेमके- इन्द्रध्वज के सिंहासनना वर्णनमां आवता 'आगासगं' शब्दनो अर्थ तद्दन जुदो हतो, (प्रकाशक) ओने बदले इन्द्रध्वज अने सिंहासन (आकाशगामी) आकाशमां अद्धर रहे छे' अवो अर्थ करवामां आव्यो. मारि, दुर्भिक्ष व.ना निवारणनी मर्यादा २५ योजनथी वधारीने १२५ योजननी करवामां आवी. 'भगवाननी देशना बधा वेरझेर वीसरीने ओकसाथे सांभळे' ओवा अतिशयने स्थाने 'भगवानना स्थानथी १२५ योजन सुधी कोईने वेर-विरोध न रहे' अवो अतिशय प्ररूपायो के जेनी महावीरस्वामीना जीवनमा बनेली केटलीये घटनाओ साथे विसंगति आवे छे. अन्ते, श्वेताम्बर परम्परानी ३४ अतिशयनी प्ररूपणा साथे तुलना माटे दिगम्बर परम्पराने मान्य ३४ अतिशय तिलोयपण्णत्तिने आधारे जोइशुं.. जन्मजात १० अतिशय- १. स्वेदरहितता २. निर्मलशरीर ३. दूध जेवू श्वेत रुधिर ४. वज्रऋषभनाराचसंघयण ५. समचतुरस्रसंस्थान ६. अनुपम रूप ७. नृपचम्पक जेवी उत्तम गन्ध ८. १००८ उत्तमलक्षण ९. अनन्त बल १. "चार अतिशय मूळथी, ओगणीश देवना कीध । कर्म खप्याथी अग्यार, चोत्रीश एम अतिशया समवायांगे प्रसिद्ध ।" आ गाथामां वर्णवाया प्रमाणे समवायाङ्गजीमां अतिशयो न होवा छतां अमने समवायाङ्गनी साखथी ज प्रमाणित कराय छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ १०. हित, मित अने मधुर भाषण. कर्मक्षयजन्य ११ अतिशय - ११. चारे दिशामां १०० योजन सुधी सुभिक्ष १२ आकाशगमन १३. हिंसानो अभाव १४. भोजननो अभाव १५. उपसर्गनो अभाव १६. बधानी सामे सन्मुखता १७. पडछायो न पडवो १८. निर्निमेष दृष्टि १९. विद्यासिद्धता २० नख अने रोम न वधवा २१.१८ महाभाषा अने ७०० क्षुद्रभाषा युक्त दिव्यध्वनि. १०३ देवकृत १३ अतिशय- २२. वनो फल फूलथी लची पडे २३. कांटा, रेती व. दूर करनारो सुखकारी पवन वाय छे. २४ वैरभावनो नाश थाय छे. २५. जमीन स्वच्छ अने रत्नमय बनी जाय छे. २६. मेघकुमारो सुगन्धि जलनो छंटकाव करे छे. २७. वैक्रिय सस्य देवो बनावे छे. २८. बधा ज जीवोने आनन्द थाय छे. २९. वायुकुमारो शीतल पवन चलावे छे. ३०. कूवा - तळाव निर्मल जलथी भराई जाय छे. ३१. आकाश निर्मळ थइ जाय छे. ३२. रोगो नाश पामे छे. ३३. यक्षेन्द्रोना मस्तक पर रहेला अने किरणोथी उज्ज्वल चार धर्मचक्रने जोइने लोकोने आश्चर्य थाय छे. ३४. भगवाननी चारे तरफ ५६ सुवर्णकमल, १ पादपीठ तेमज विविध प्रकारनां पूजन द्रव्यो होय छे. (जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश-१, पृ. १३७) (३) आदिनाथस्तव ( ते धन्ना... ) विशे अनुसन्धान-२४, पृ. १ - ३मां 'ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि'नुं आवर्तन धरावतुं आदिनाथ प्रभुनुं अत्यन्त भाववाही स्तोत्र छपायुं छे. आ स्तोत्रने अक हस्तप्रत साथे मेळवी जोतां केटलाक पाठान्तरो मळ्या ते अत्रे नोंधवामां आवे छे. * मुद्रित - वाचना अने हस्तप्रत - वाचनाना गाथाक्रममां ७मी गाथाथी नीचे मुजब भिन्नता छे. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनुसन्धान-५७ ह.क्र. गाथा रंजंतो वणराई नमिविनमी रायाणो गयपुर सेयंसराइणो अद्धतेरसकोडीओ छट्ठठुमदसमदुवालसेहिं लंबंतबाहुजुयलो तह पुरिमतालनयरे पउमेसु ठविअचलणो तिअसासुरमज्झगओ ते धन्ना कयपुन्ना धन्नेहिं तुमं दीससि मिच्छत्ततिमिरवामो. अट्ठावयंमि सेले * हस्तप्रत-वाचनामां बे गाथा वधारे छे.* गाथा-१७ - "बंधवरहियाण पुणो, सरणविहीणाण देहतवियाण । जक्खाहि पीडियाणं, जिणिंदवरसासणं सरणं ॥" गाथा २१ "दिट्ठो सि जेहिं सामिय जेण न दिट्ठो सि तिहुयणाणंदो । ताण भवकोडिदुलहो मणुअभवो निप्फलो जाउ ॥" *मुद्रित-वाचनानी वीसमी गाथामां बे गाथानां चरणोनी भेळसेळ थइ गइ छे. हस्तप्रतमां नीचे मुजब पाठ छे : "इअ चवण-जम्म-निक्खमण-नाण-निव्वाणकालसमयंमि । जेहिं सयं चिय दिट्ठो ते धन्न सुपुन्नया पुरिसा ॥ इय संथुओ सि जिणवर ! दढमूढअयाणएण हियएण । तं कुणसु नाभिनंदण ! पुणो वि जिणसासणे बोही(हिं) ॥" * जो के आ बन्ने गाथा पाछळथी उमेराई होवानो सम्भव छे. xआ पाठ प्रमाणे अनी पहेलाना 'सुमंगलासुनंदाए'ने सामासिक पद गणवू पडे. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०११ गाथाक्र. ( मुद्रित ) १ २ ३ ४ ५ ७ ८ ९ x 10 10 10 १० ११ १३ १४ १६ १७ * केटलांक पाठान्तरो मु.वा. बालत्तणिमि देवी तिअसलोगंमि मिहुणनरेहिं जगग्गुरू ०महिम० सिबिअविमाणारूढो दिक्खसममि सिद्धत्थवणं धन्ना तह नाहमल्लीणा छिरिद्धि ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि गयपुर सेयंसराइणो विहरतो ० कोडीओ मुक्का सुर० तवंतो ०महिमा गहिओ पउमेसु ठविअचलणो धन्ना कयपुन्ना केवल(ल्ल?)नाणसमये अहन्नेहिं ह.वा. बालत्तणंमि देवीइ* तिअसलोगेहिं मिहुणेहिं पुणो जगगुरू ० महम० सिबियाविमाणरूढो दिक्कालं मि सिद्धत्थवणे वनवासे तुह देव ! संलीणा इच्छियरिद्धि गरुआण न निष्फला सेवा गयपुरनयरे सिज्जंसरायणो पारंतो ० कोडी मुक्का उ सुर० चरंतो ०महिमाइ गओ पउमे चलण ठवंतो विहरतो १०५ सुकयत्था केवलनाणसमग्गो अहम्मेहं Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५७ जयनाह ईय नाह उम्मीलीऊण उमि(म्मि)ल्लिऊण चउदसभत्तेण मुक्खमणुपत्तो दसहिं सहस्सेहिं समणसहिओ दसहि सहस्सेहि समं निव्वाणगमणकाले ०अयाणेण भत्तिए अयाणएण हियएण आमां घणे ठेकाणे मुद्रित पाठ करतां हस्तप्रतनो पाठ वधु उपयुक्त छे. पण सम्भव छे के मुद्रितवाचना ओ मूळ वाचना होय अने मूळ वाचनामां पाछळथी उचित फेरफार करवामां आव्या होय अने हस्तप्रत ओ परिवर्तित वाचना धरावती होय.