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अप्रकाशित आरामसोहाकहा (पद्य) : एक परिचय
- डॉ० प्रेम सुमन जैन सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
एक
प्राकृत कथा साहित्य में आरामशोभाकथा महत्वपूर्ण लौकिक कथा है। जिनपूजा के महात्म्य को प्रतिपादित करने के उद्देश्य से यह कथा उदाहरण के रूप में कही गयी है । प्राकृत, संस्कृत, गुजराती एवं हिन्दी भाषा में आरामशोभाकथा को कई कथाकारों ने प्रस्तुत किया है। किन्तु मूल प्राकृत कथा अभी तक स्वतंत्र रूप से प्रकाशित नहीं हो सकी है। इस अप्रकाशित आरामसोहा कहा की पाण्डुलिपि मुझे लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति मंदिर, अहमदाबाद के ग्रन्थभण्डार का सर्वेक्षण करते समय २-३ वर्ष पूर्व प्राप्त हुई थी । प्राकृत गाथाओं में निबद्ध इस कथा की यह अभी तक उपलब्ध एकमात्र पाण्डुलिपि है । यद्यपि इस कथा की अन्य प्रतियां विभिन्न ग्रन्थभण्डारों में प्राप्त होने के संकेत हैं, किन्तु अभी वे उपलब्ध नहीं हो सकी हैं ।
आरामसोहाकहा की इस पाण्डुलिपि में कुल १० पन्ने हैं, जो दोनों ओर लिखे हैं । इसमें कुल ३२० प्राकृत गाथाएं हैं । किन्तु आदि अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं है । अतः रचनाकार, लिपिकार आदि के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं होता है। प्राकृत साहित्य के अन्य किसी ग्रन्थ में भी प्राकृत पद्यों में रचित आरामसोहाकहा एवं उसके
कर्त्ता के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है । अतः अभी इस रचना को अज्ञातकतृक ही मानना होगा । आरामसोहाकहा की परम्परा एवं अन्य पाण्डुलिपियों के सम्बन्ध में विचार करने के पूर्व इस कथा को संक्षेप में प्रस्तुत करना उपयोगी होगा ।
कथा वस्तु
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कुशार्त देश है । वहाँ के बलासक नामक ग्राम में अग्निशर्मा नामक ब्राह्मण रहता था । उसके ज्वलनशिखा नामक पत्नी थी। उनके विद्युत्प्रभा नामक पुत्री थी। जब वह आठ वर्ष की थी तभी किसी रोग से पीड़ित होकर उसकी मां का देहावसान हो गया । तब घर का सारा काम विद्युत्प्रभा के ऊपर आ पड़ा । गायों को चराने, घर का काम करने और पिता की सेवा टहल करने में वह बहुत थक जाती थी । अतः एकदिन उसने पिता से कह दिया कि वह दूसरी शादी करके पत्नी ले आवे । इससे उसे घर के कामों से छुटकारा तो मिलेगा । किन्तु विद्यत्प्रभा की जो सौतेली मां आयी वह इतनी आलसी और कुटिल थी कि विद्युत्प्रभा को पहले जैसा ही घर-बाहर के कार्यों में अकेले जुटना पड़ता था । इसे वह अपने कर्मों का फल मानती हुई सहन करने लगी ।
एकवार विद्युत्प्रभा जब गायों को चरा रही थी तो वहाँ उसने एक सांप रूपी देवता की प्राण रक्षा की। इससे प्रसन्न होकर उस नागदेवता ने उसे वरदान दिया कि उसके सिर पर एक हरा-भरा कुंज ( आराम ) सदैव बना रहेगा, जिससे उसे कभी धूप नहीं लगेगी । यह कुंज एकदिन आवश्यकतानुसार छोटा-बड़ा होता रहता था । पाटलीपुत्र के राजा जितशत्रु ने विद्युत्प्रभा के साहस और कुंज से प्रभावित होकर उसे अपनी पटरानी बना लिया । विद्युत्प्रभा को वह आरामशोभा के नाम से पुकारने लगा । उनके दिन सुख से व्यतीत होने लगे ।
इधर आरामशोभा की सौतेली मां के एक पुत्री उत्पन्न हुई । उसके जवान होने पर उस सौतेली मां ने चाहा कि जितशत्रु राजा आरामशोभा के स्थान पर उसकी पुत्री को पटरानी बना ले। अतः उसने गर्भवती आराम
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शोभा को अपने घर बुलाया और उसके पुत्र के जन्म हो मणिभद्र सेठ के एक बगीचा था जो सिंचे जाने जाने पर उसे एक कँए में डाल दिया और उस पुत्र के पर भी सूखता जा रहा था। इससे वह सेठ बहुत दुःखी साथ अपनी पुत्री को आरामशोभा बनाकर राजा के पास था। तब कुलधर की पुत्री ने चार प्रकार के आहारमात्र भिजवा दिया। राजा को नकली आरामशोभा पर शक का व्रत लेकर शासन देवी की पूजा की। उसकी तपस्या जरूर हुआ किन्तु पुत्र की प्रसन्नता में उसने विशेष ध्यान के फल से वह सूखता हुआ बगीचा फिर से हरा-भरा हो. नहीं दिया।
गया । इससे प्रसन्न होकर सेठ ने उस पुत्री को बहुत-सा धन असली आरामशोभा को अपने पुत्र को देखने की पुरस्कार में दिया। उस पुत्री ने उस धन से जिन प्रतिमा बड़ी इच्छा हुई तो उसने उसी नागदेवता को स्मरण के ऊपर तीन छत्र और मुकुट आदि बनवा दिये तथा किया। नाग देवता की कृपा से वह पुत्र का दर्शन करने मन्दिर में रथ इत्यादि का दान दिया। इस प्रकार धार्मिक रात्रि में जाने लगी। किन्तु सूर्योदय के पूर्व उसे वापिस कार्य करते हुए वह पुत्री मरणोपरान्त स्वर्ग में देवता हुई। लौटना पड़ता था। एक दिन राजा ने असली आरामशोभा देवता के भोगों को भोगकर वह विद्यत्प्रभा के रूप में को पकड़ लिया और वापिस नहीं आने दिया। तब से उत्पन्न हुई। पूर्वजन्म के बचपन में धर्म न करने के कारण उसके सिर से वह कुज गायब हो गया। किन्तु आराम- वह विद्युतप्रभा बचपन में दुःखी हुई, जिनप्रतिमा पर छत्र शोभा को पुनः अपना पद और गौरव प्राप्त हो गया। प्रदान करने से उसे सिर पर कुंज की शोभा प्राप्त हुई और उसने अपनी सौतेली माँ और बहिन को भी क्षमा कर तपश्चरण आदि करने के कारण उसे राज्य-सुख प्राप्त हुआ । दिया।
मुनि के द्वारा इस प्रकार अपना पूर्वजन्म वृत्तान्त सुनकर एकदिन आरामशोभा राजा के साथ वीरभद्र मुनि आरामशोभा ने पति के साथ वैराग्य धारण कर तपश्चरण के समीप गई। वहाँ उसने अपने पूर्वजन्म के सम्बन्ध में किया एवं सद्गति प्राप्त की। उनसे पछा कि मेरे ऊपर छत्र के आकार का कुंज क्यों कथा की लोकप्रियता स्थित हुआ और मुझे पहले दुःख और बाद में सुख क्यों
आरामशोभा कथा जेन कथाकारों को बहुत प्रिय रही प्राप्त हुए ? मुनिराज ने उसके पूर्वजन्म की कथा कही।
है। अतः प्राकृत, संस्कृत एवं गुजराती भाषाओं में इसके चम्पा नगरी में कुलधर वणिक रहता था। उसके आठ कई संस्करण प्राप्त होते हैं। उनकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ पुत्रियाँ थीं। सात की तो अच्छे घरों में शादियाँ हो गयी
प्रस्तुत की जा रही है। थीं किन्तु आठवीं पुत्री पुण्य-रहित होने के कारण अविवाहित थी। तभी उस नगर में नन्दन नामक एक वणिक- प्राकृत सस्करण पुत्र आया। कुलधर ने उससे अपनी आठवीं पुत्री का विवाह (१) अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार आचार्य कर दिया और उसके साथ उसे दक्षिण भारत भेज श्री प्रद्युम्नसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरण पर श्री देवचन्द्रसूरि दिया किन्तु वह नन्दन वणिक रास्ते में ही अपनी पत्नी द्वारा लिखित वृत्ति में सर्वप्रथम तीर्थङ्कर भक्ति के उदाहरण को छोड़कर चला गया।
रूप में आरामशोभा कथा प्राकृत गद्य एवं पद्य में प्रस्तुत वह कुलधर की पुत्री भटकती हुई दूसरे नगर में पहुँच
की गयी है। आरामशोभा के पुनः पटरानी पद प्राप्त कर मणिभद्र सेठ के घर कार्य करने लगी। मणिभद्र उसे करने की कथा तक प्राकृत गद्य एवं पद्य का प्रयोग किया पुत्री की भाँति रखने लगा। एकबार जब मणिभद्र सेठ गया है एवं उसके बाद पूर्वजन्म की कथा केवल गाथाओं ने अपने यहाँ एक जिनमन्दिर बनवाया तब वह कुलधर
कार
में कही गया है। कथा इस प्रकार
में कही गयी है। कथा इस प्रकार प्रारम्भ होती है । की पुत्री वहाँ विनयपूर्वक जिनभक्ति करने लगी। उस तत्थ य परिस्सम किलंतनर-नारी हिययं व बहुमासं,
१ भोजक, अमृतलाल (सं०), मूलशुद्धिप्रकरण (प्रथम भाग), अहमदाबाद, १६७१, पृ० २२-३४ ।
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महामुणिव्व सुसंवर, कामिणीयणसीसंव ससीमंतयं अस्थि मूलशुद्धिप्रकरणवृत्ति की आरामसोहाकहा एवं थलासयं नाम महागामं ।।
अज्ञातकृत कथा की गाथाओं में कोई समानता नहीं है। कथा के अन्त में कहा गया है:
सूक्ष्म अध्ययन करने पर भाषा की कुछ समानता मिल मणुयत-सुरत्ताई कमेण सिवसंययं लहिस्संति । सकती है। कथा अंश लगभग एक जैसा है। कुछ स्थान एयं जिणभत्तीए अणण्ण सरिसं फलं होइ ।।२०१॥ के नामों में अन्तर है ।
यह मूल शुद्धिप्रकरणवृत्ति ई० सन् १०८६.६० में इस प्राकृत आरामशोभा कथा की अब तक निम्न रची गयी थी। अतः आरामशोभा कथा का अब तक ज्ञात पाण्डुलिपियों का पता चला है : २ यह प्राचीन रूप है।
१ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति मंदिर, (२) प्राकृत की ३२० गाथाओं में आरामसोहाकहा
अहमदाबाद, ( प्रस्तुत पाण्डुलिपि), नं० १६०५ कि रचना किसी अज्ञात कवि ने की है। उसी का परिचय
_२ विजयधर्म लक्ष्मी ज्ञान-मंदिर, वेलनगंज, आगरा, इस लेख में दिया जा रहा है। यह रचना भाषा की दृष्टि
नं. १६०१ से १२वीं शताब्दी की होनी चाहिये। इसका प्रारम्भ इस
३ देला उपासरा भण्डार, अहमदाबाद, नं० १३४ प्रकार हुआ है :
४ देला उपासरा भण्डार, अहमदाबाद, नं० १०० झविज्ज मूलभूअं दुवारभूअं पइन्व निहिभूअं । आहारभायणमिमं सम्मत्तं चरणघमस्स ॥१॥
५ विमलगच्छ उपासरा ग्रन्थ भण्डार, फल्सापोल,
अहमदाबाद, नं०६२७,८५२ इस सम्म सम्मत्तं जो समणो सावगो घरइ हिअए । ६ विमलगच्छ उपासरा ग्रन्थभण्डार, हजपटेलपोल, अपुव्व सो इदि लहेह आरामसोहु ब्वं ।।४।। ___ अहमदाबाद, डव्वा नं० १५, पोथी नं० ५. कारामसोहवुत्ता कह समत्ता तए सिरी लद्धा । ७ भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, इअपुट्ठो अ जिणंदो आणं देणं कहइ एवं ॥५।।
१८८७-६१ का कलेक्शन, नं० १२६३ यहाँ यह स्पष्ट है कि सम्यक्त्व का महत्व प्रतिपादन ८ भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पना, कर उसके उदाहरण में आरामशोभा की कथा कही गयी
पीटर्सन रिपोर्ट १, नं० २३६ है। पांचवीं गाथा में आणंदेणं शब्द विचारणीय है। ऐसा
६ लीबंडी जैन ग्रन्थ भण्डार, नं० ६८१ प्रतीत होता है कि आनन्द नामक व्यक्ति द्वारा पूछे जाने
___ इन पाण्डुलिपियों की प्राप्ति एवं उनके अवलोकन से पर जिनेन्द्र ने इस कथा को कहा है। यह आनन्द श्रावक
पता चलेगा कि इनमें कोई प्रशस्ति आदि है अथवा नहीं। है अथवा साधु यह शोध का विषय है।
सम्पादन-कार्य के लिये भी इनसे मदद मिल सकती है। इस ग्रन्थ के अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं है। केवल इतना कहा गया है कि 'हे भव्व जीव ! आरामशोभा की
इस ग्रन्थ में कुछ उद्धरणों का प्रयोग हुआ है। अन्य तरह आप भी सम्यक्त्व में अच्छी तरह प्रयत्न करें,
ग्रन्थों में उनकी खोज करने से इस ग्रन्थ के रचनाकाल जिससे कि शीघ्र ही शिव-सुख को प्राप्त करें।
का निर्धारण हो सकता है। कुछ उद्धरण यहाँ प्रस्तुत हैंआरामसाहिआ विव इअ सम्म दंसणम्मि भो भव्वा । (क) दंसण-भट्ठो भठो दसण मुट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । कुणह पयतं तुम्भे जह अहरा लहह सिवसुक्खं ॥३२०॥ सिझंति चरण-रहिआ दंसणरहिआ न सिज्झंति ॥३॥' इति सम्यक्त्व उपरि आरामशोभा कथा ! (ख) बालस्स माय-मरणं भज्जा-मरणं च जोवणारमे। ॥ श्री शुभं भवतु ॥
थेरस्स पुत-मरणं तिन्नि वि गुरुआइ दुक्खाई ॥१२॥
२ वेलणकर, एच० डी०, जिनरत्नकोश, पूना १६४४, पृ० ३३-३४ । ३ यह गाथा दर्शनपा हुड़ ( कुन्दकुन्द ) एवं भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में यथावत उपलब्ध है।
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(ग) पुवभवे जं कम सुहासुहं जेण जेण भावेण । संस्कृत संस्करण ___ जीवेण कयं तं चिरं परिणमई तम्मि कालम्मि ॥१३॥ (1) संस्कृत में जिनहर्षसूरि (ई० सन् १४८१), मलय(घ) विहलं जो अबलंबई आवइपडि व जो समुद्धरइ। हंसगणि एवं माणिक्य सुन्दरगणि ने आरामशोभा कथा
सरणागयं च रक्खइ तिहिं तिसु अलंकिआ पुहवी।।३६।। लिखी है। यह ज्ञात नहीं हो सका है कि ये संस्करण (ङ) धम्मेण सुह-संपया सुभगया नीरोगया आवया-चतं । प्रकाशित हैं या नहीं। इनकी पाण्ड लिपियां विभिन्न .
दीहरभाउअं इह भवे जम्मो सुरम्मे कुले ॥२२३। ग्रन्थ भण्डारों में प्राप्त हैं। संस्कृत के जैन कथा-ग्रन्थों (च) दिव्वरूवमउव्वं जव्यणभरो सती सरीरे जणे। में आरामशोभाकथा का उल्लेख किया गया है।
किती होइ सुधम्मओ परभवे सग्गापवरगस्सिरी ॥२२४॥ गुजराती संस्करण
(३) आरामशोभाकथा की तीसरी रचना प्राकृत गद्य (५) आरामशोभाकथा गुजराती में भी लिखी गयी में है। हरिभद्रसूरिकृत 'सम्यक्त्वसप्तति' पर संघतिलक ने है। गुजराती के 'आरामशोभारास' की भूमिका में सम्पाई. सन् १३६५ में प्राकृत में वृत्ति लिखी है। इस वृत्ति दकों ने इस कथा की निम्नांकित गुजराती रचनाओं का में आरामशोभा की जो कथा दी गयी है उसका प्रारम्भ उल्लेख किया है : इस प्रकार होता है:
(क) आरामशोभारास (राजकीर्ति), ई० सन् १४७६ । ___ इहेव जम्बूरूक्खालं कियदीव मज्झट ठिए अक्खंडछक्खं- (ख) आरामशोभा चौपाई (विनयसमुद्र ), ई. डमंडिए बहुविहसुहनिवह निवासे भारहे वासे असेसलच्छि- सन् १५२७। संनिवेसो अस्थि-कुसट्टदेसो।।
(ग) आरामशोभाचरित (पुंज ऋषि ), ई. ___ इस पूरी रचना में ३० प्राकृत एवं संस्कृत के पद्यों सन् १५६६ । का भी प्रयोग हुआ है। अन्त में कहा गया है :५
(घ) आरामशोभा चौपाई ( समय प्रमोद ), ई० आरामसोहाइ चरित्तमेयं निसामिऊणं सवणा भियामं । सन् १६१० के लगभग । कुणेह देवाण गुरुणवेया-वच्चं सया जेण लहेह सुक्खं ॥ (ङ) आरामशोभा चौपाई (राजसिंह ), ई०
इस कथा को मूल रूप में डा. राजाराम जैन ने सन् १६३१ । पाइयगज्ज-संगहो नामक अपनी पाठयपुस्तक में प्रकाशित
(च) आरामशोभा चौपाई ( दयासार ), ई० किया है। यद्यपि विभिन्न प्रतियों के आधार पर इसका सन् १६४८ । सम्पादन किया जाना शेष है। ला० द० संस्कृति विद्या
(छ) आरामशोभारास (जिनहष), ई० सन् १६६० । मंदिर, अहमदाबाद में इस प्राकृत (गद्य) आरामसोहा कथा इस तरह ज्ञात होता है कि आरामशोभाकथा जनकी २ प्रतियां प्राप्त हैं। संख्या-३२६० एवं २५६०। जीवन में बहुत लोकप्रिय रही है। जिनभक्ति के लिये
४ सम्यक्त्व सप्तति ( संघतिलककृतवृत्तिसहित ), सं० ललितविजय मुनि, १६१६ । ५ मुनि यशोभद्र (सं०), आरामसोहाकहा, नेमिविज्ञान ग्रन्थरत्न (३), सूरियपुर, सन् १९४० । ६ (क) जैन ग्रन्थ भण्डार, लींबड़ी, पोथी नं० ७०१ ।
(ख) श्री जैन संघ भण्डार, पाटण, डव्वा नं० ६, पोथी नं०६। ७ (क) देसाई, जैन साहित्यनी इतिहास, १६३३, पृ० ४७१ ।
(ख) चौधरी, जी० सी०, जैन साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग ६, पृ० ४१७ । ८ कथा मंजूषा (भाग ७)–आरामशोभारास (सं०), जयंत कोठारी एवं कीर्तिका जोशी, अहमदाबाद, १६८३ ।
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मध्यकाल में यह प्रमुख दृष्टांत रहा है। कथा की लौकि- १२. शर्त तोड़ने पर देवता के वरदान का लुप्त होना कता के कारण इसे अधिक प्रसिद्धि मिली है।
१३. नायिका द्वारा सौतेली मां एवं बहिन को क्षमा प्रदान हिन्दी संस्करण
करना (६) आरामशोभाकथा को किसी हिन्दी लेखक ने १४. मुनि से पूर्व जन्म का वृत्तान्त-श्रवण स्वतन्त्र रूप से नहीं लिखा है। किन्तु प्राचीन कथा के १५. पति द्वारा जंगल में छोड़कर चले जाना आधार पर हिन्दी में उसका संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया है। १६. धर्म पिता सेठ द्वारा आश्रय देना श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री द्वारा सम्पादित जेन कथा, भाग ६६ १७. अपने अतिशय गुणों से धर्मपिता को संकट से बचाना में आराम शोभाकथा प्रस्तुत की गयी है। अमर चित्र
१८. जिनमंदिर-निर्माण और जिनपूजा के फलस्वरूप कथा सीरिज में भी 'जादुई कुंज' के नाम से इस कथा को
सद्गति प्रस्तुत किया गया है ।*
१६. कर्मफल शृखला कथा के मानक रूप एवं अभिप्राय
२०. वर्तमान जीवन की घटनाओं का तालमेल पूर्वजन्म आरामशोभाकथा एक लोककथा है। अतः इसमें की घटनाओं से बैठाना लोकतत्त्वों की भरमार है। इस कथा के मानक रूप इस
इन मानकरूपों को देखने से पता चलता है कि प्रकार हैं:
१-१३ तक के मानकरूप एक लौकिक कथा के हैं । उनका १. अकेली बालिका पर घर के कार्यों का भार जैनधर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। और १४-२० तक के २. सर्प का मनुष्य की वाणी में बोलना
मानक-रूप किसी भी धर्म के साथ जोड़े जा सकते हैं।
वस्तुतः आरामशोभा कथा में दो कथाओं को एक साथ ३. कृतज्ञ नागकुमार द्वारा साहस के कार्य के लिये वर
मिला दिया गया है। __ दान देना। ४. छत्र के रूप में कुंज का आश्चर्य
परवती कथाओं पर प्रभाव ५. राजा द्वारा गुणी गरीब कन्या से विवाह
आरामशोभाकथा का मूल अभिप्राय माता-विहीन ६. सौतेली माता द्वारा सौतेली पुत्री को मारने का प्रयत्न पुत्री और सौतेली माता का स्वार्थ है। इस अभिप्राय ७. नागकुमार द्वारा अदृश्य रूप से सहायता
को पूरी तरह व्यक्त करने के लिये कई कथाकारों ने लेखनी ८. कुँए में ढकेलना किन्तु वहाँ पर भी रक्षा
चलाई है। सन् ११५० में अपभ्रंश कवि उदयचन्द्र ने
'सुगन्धदशमीकथा' लिखी है। इसकी कथा का उत्तरभाग ६. पुत्र-जन्म पर माँ को परिवर्तन कर देना
आरामशोभाकथा से मिलता जुलता है। डा० हीरालाल १०. असली पत्नी को राजा के द्वारा बाद में पहिचान लेना जैन ने इसकी कळ समान विशेषताओं की ओर संकेत ११. पुत्र-दर्शन के लिये देवता की समय-मर्यादा की शर्त किया है । '• सौतेली बेटी की अवहेलना एवं अपनी
' श्री पुष्कर मुनि, जैन कथा, भाग ६६, उदयपुर, १६७६ । *'जादुई कंज' मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' के जैन कहानियाँ, भाग १२, में प्रकाशित कथा पर आधारित है। लेखक ने जैन कहानियाँ में प्रकाशित कथा का उल्लेख नहीं किया है। इसका अंग्रेजी अनुवाद भी Jaina Stories में प्रकाशित है। -संपादक १. जैन, हीरालाल, सुगंधदशमीकथा, १६४., भूमिका, पृ० १८ ।
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________________ सगी पुत्री को उसका पद दिलाने की चाह दोनों में समान उसकी सौतेली मां उसे उत्सव में नहीं जाने देती और है, यद्यपि तरीकों में अन्तर है। सौतेली माता द्वारा अपनी पुत्रियों को सजाकर वहाँ भेजती है। किन्तु सौतेली पुत्री की अवमानना करने की घटना सुगन्धदशमी राजकुमार अन्ततः सिन्ड्रेला को ही अपनी रानी बनाता कथा के संस्कृत (सन् 1472), गुजराती (1450), है। जर्मन कहानी 'अश्पुटेल' में जो सौतेली लड़की मराठी (१८वीं सदी) एवं हिन्दी ( 1750) संस्करणों है वह बिल्कुल आरामशोभा से मिलती-जुलती है। हैजल में भी प्राप्त होती है। वृक्ष आरामशोभा के जादुई कुंज की तरह मददगार के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अन्ततः 'अश्पुटेल' को सौतेली माता का अपनी पुत्री को रानी बनाने के राजकुमार अपनी रानी बना लेता है। 12 इस तरह अभी निष्फल प्रयास एवं सौतेली पुत्री को सताने की घटनाएं आरामशोभा कथा की भारतीय एवं विश्वसाहित्य की विश्वसाहित्य में भी प्राप्त होती हैं। डा. जैन ने दो कथाओं के साथ तुलना करने से और भी नये तथ्य सामने कथाओं का उल्लेख किया है / फ्रेंच कहानी 'सिन्ड्र ला' में आ सकते हैं। 11 द स्लीपिंग ब्यूटी एण्ड अदर फेयरी टेल्स फ्राम द ओल्ड फ्रेन्च ( रिटोल्ड बाइ ए. टी० विलचर-कोडच ) / 12 जेकब लुडविक कार्लग्रिम, दि किंडर उण्ड हाउस मारवेन, ( अंग्रेजी अनुवाद : ग्रिम्सटेल्स ) / 86 ]