Book Title: Apradh krut evam jain Drushtikon se Sambandh Ek Adhunik Shodhkarya Ruprekha
Author(s): Ramesh Lalan
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराधवृत्ति एवं जैन दृष्टिकोण से सम्बद्ध एक आधुनिक शोध कार्य की रूपरेखा डॉ० रमेश भाई लालन "हहा जीवन व्यवहार में उत्तरोत्तर बढ़ती हुई अपराधवृत्ति से न केवल आरक्षक-गण (पुलिस), दण्डाधिकारी, लोकसभा सदस्य, गृहमंत्री, समाजशास्त्री, शिक्षाशास्त्री और अपराधशास्त्री ही चिंतित हैं, किन्तु समग्र विश्व के जन सामान्य भी अपने आपको असुरक्षित मानकर आतंकित महसूस कर रहे हैं। मनो-चिकित्सक (psychiatist) प्रोबेशन-आफिसर, रीहेबीलीटेशन आफिसर, कारागृह के अधिकारी, धाराशास्त्री और न्यायाधीशों की सेवा बड़ी कीमत चुकाकर अपराधी को दण्डित करने या सुधारने के लिए ली जा रही है। प्राण-दण्ड, द्रव्य-दण्ड, कारावास, तड़ीपार (हड़पार) आदि प्रयोगों से जब अपराधवृत्ति का नियंत्रण नहीं हो रहा है तब लगता है जरूर अपराधनिवारण के लिए अपराध के असली कारणों को जांचा जाय । तीर्थंकर, केवलि-भगवान्, स्थविर, बहुश्रुत आचार्य जैन धर्म में इतने प्रभावक हुए हैं कि बौद्ध धर्मग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि निर्गन्थों के अनुयायीगण चोर, डाकू, लुटेरों और हत्यारों में से थे। व्यक्ति को पूर्वभव की घटनाओं का स्मरण कराके उसमें जातिस्मरणज्ञान पैदा होने पर सहज ही वह उद्यत होता था, पापाचरण का प्रत्याख्यान करने को, अपराधमय जीवन को समाप्त कर उग्र तपस्या स्वीकार करने को और यथाशक्ति महाव्रत और अणुव्रतों को स्वीकार करने को। व्रत अंगीकार किये बिना अहिंसा, संयम और तप को चरितार्थ नहीं किया जा सकता। जैन धर्म और जैन समाज में व्रत (संवर) को अनूठा स्थान मिला है। वह स्वच्छंदता को रोकता है। विनय को पनपाता है। अपराध-स्थानों से बचाता है और जीवन को पावन करता है । डॉ० ए० एन० उपाध्याय यहां तक कहते हैं कि जो अणुव्रतों का पालन करता है उसे भारतीय दण्डसंहिता से घबराने की कोई जरूरत नहीं। ऐसा भी नहीं कि व्रतधारी कभी अपराध ही नहीं करता लेकिन जो भी दोष या स्खलन व्रतधारी करता है उसे वह प्रायश्चित के द्वारा गुरु के समीप आलोचनापूर्वक निवेदन करके सुधार लेता है और व्रत में सुस्थिर होता है। जैन धर्म और समाज की व्रतोच्चारण-विधि और प्रायश्चित-विधि अपने राष्ट्र की नहीं अपितु समूचे विश्व की अपराधवृत्ति को निर्मूल करने में सहायक बन सकती है । इसी विषय को लेकर एक शोध-प्रबन्ध, 'Penology and Jain Scriptures' (दण्डनीति और जैन आगम) को बम्बई विद्यापीठ से १९८० में पी० एच० डी० के लिए मान्यता मिली है। इस शोध-प्रबन्ध का लक्ष्य है जैन धार्मिक फिलॉसफी व समाजविज्ञान के अंगभूत अपराधशास्त्र का समन्वय करने का प्रयासमात्र । निबन्ध की भूमिका में दण्डनीति का मौलिक स्वरूप, अर्वाचीन रूपरेखा और अपेक्षित परिवर्तन को लक्ष्य में रखते हुए सर्वग्राह्य नवीन व्याख्या दण्डनीति की दी गई है—'अपराध के मुकाबले की व्यूह रचना ।' दण्ड का हेतु है सजा द्वारा व्यक्ति में सुधार हो और समाज की सुरक्षा बनी रहे। अपराधशास्त्रियों ने मनोविज्ञान के प्रकाश में अपराधी को रुग्ण व्यक्ति बताते हुए इस बात पर जोर दिया है कि उसे जरूरत है मनोचिकित्सा की, न कि सजा की। समाजवादी विचारधारा में व्यक्ति को गौण मानकर समाज रचना को जबाबदार ठहराने का १. सुत्तनिपात, मज्जिमनिकाय, पाली मूलव्यसनकम, चूलदुक्खखंधसुत्तम् १४-२,२ पृ० १२६-१३१ २.Callette Caillat, A. N. Upadhye & Bal, Publ, Jainism', 1975, पृ०६८-६६ ३. द्रष्टव्य, जन जर्नल वैमासिक, भाग १५, अंक २, अक्टूबर, १९८०, पृ०६२ २४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयत्न हुआ है, और इसने प्रतिपादन किया है नई समाज पुनर्रचना का जिसमें किसी भी व्यक्ति को अपराध करने का मौका ही मिल न पाये। समाजवादी सिद्धान्त की कमी को महसूस करते हुए अपराधशास्त्रियों ने स्वीकार किया है कि उन्होंने अपराध और आत्मा के बारे में सोचा तक भी नहीं है। इस कबुलात की भित्ती पर प्रस्तुत निबन्ध की रचना में यह बताया गया है कि अपराध और आत्मा के बारे में संशोधन करने के लिए जैनियों का कर्मवाद-संवरतत्त्व' कहां तक उपयोमी ठहर सकता है। निबन्ध के पहले प्रकरण में दण्डनीति के बारे में जैन आगम साहित्य में कहां-कहां स्रोत मिलते हैं---उसकी चर्चा करते हुए श्वेताम्बर-दिगम्बर ग्रन्थों की ओर अंगुलिनिर्देश किया गया है। इस बात पर जोर दिया गया है कि भौतिकशास्त्र व समाज विज्ञान के लिए जैन आगम-साहित्य का मंथन करने का उचित समय अब है। निबन्ध के दूसरे प्रकरण में दण्डनीति का उद्गम और विकास के बारे में जैन मान्यता को प्रस्तुत किया गया है, जिसमें कुलकरों के काल से प्रस्थापित 'हा' कार, 'मा' कार, और धिक्कार नीति से आगे चलकर परिभाषक, मंडलबंध, बंध और घात का प्रादुर्भाव कैसे हुआ। भगवान आदिनाथ प्रदत्त चार दण्डनीतियों में भरतचक्रवर्ती महाराज ने 'चारक' आदि का प्रवर्तन कर कैसे संशोधन किया। सोमदेवसूरि के नीतिवाक्यामृतम् तक का विकास इस प्रकरण में बताया गया है। निबन्ध के तीसरे प्रकरण में भगवान आदिनाथ से लेकर भगवान् महावीर स्वामी तक का काल जो कि प्राग-ऐतिहासिक काल माना जाता है और पौराणिक काल के नाम से भी पुकारा जाता है, उस काल के सन्दर्भ में दण्डनीति के बारे में जैन पुराणों से उल्लेख लिए गये हैं। तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव और महापुरुषों के जीवनचरित्र कोई कल्पना नहीं है । इनके नामोल्लेख व भिन्न रूप से चरित्र अर्जन पुराणों में भी प्रस्तुत होने के कारण प्रमाणभूत हैं । इस कालावधि में, उपालम्भ से लेकर मृत्युदण्ड तक की सजाओं का उल्लेख मिलता है। निबन्ध के चौथे प्रकरण में दण्डनीतिपरक आगमकथाएं और दृष्टान्तों का जिक्र है। प्रचुर साहित्य से कुछ चुनकर उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जो दण्डनीतिपरक होते हुए कर्मवाद की ओर इंगित करते हैं। कथा में उपकथाएं-यह जैनियों की विशिष्टलाक्षणिकता है जिसमें पात्र के जीवन की घटनाओं को भवभव्यंतर में किये हुए कुछ-एक कार्य से संकलित कर कर्म की सत्ता का निदर्शन कराया गया है। निबन्ध के पांचवें प्रकरण में दण्ड के स्वरूप और प्रकार का विवेचन है जो जैन आगम-ग्रन्थों में उल्लिखित है। दृडि-बन्ध, निगड हत्थुदय, अंदुबंध, बाल-रज्जुक, कुदंड, परट्ट, लोहसंकुल, पंचपट्ट, दामक आदि ५० से अधिक दण्ड के प्रकारों का उल्लेख किया है। नारक जीवों की यातना और कारागृहवास की यातनाओं के साम्य को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। चौरासी लक्ष 'जीवयोनियों में परिभ्रमण' इसे ही सबसे कड़ी सजा मानने वाले जैनी किसी भी जीव को कोई भी अपराध के लिए सजा की हिमायत नहीं करते हैं। नरकावास व कारागह की यातनाओं का वर्णन लोकस्थिति और लोकव्यवस्था के द्योतक हैं। उद्देश्य सिर्फ इतना है कि इन वर्णनों को सुनकर व्यक्ति अपराधों की ओर, पापाचार की ओर न मुड़ें। और अपराधवृति से अपने को बचाने का प्रयत्न करें। निबन्ध के छठे प्रकरण में अपराध के कारण और कर्मवाद की चर्चा है। कर्मों के मुकाबले की व्यूहरचना ही सही जैन दण्डनीति की व्याख्या है। कर्म का क्या स्वरूप हैं, कौन से प्रकार हैं, कर्म सिद्धान्त, कर्म के नियम, कर्म का न्याय, कर्मों से आत्मा की मुक्ति आदि विषय पर जिस सक्ष्मता से और वैज्ञानिक पद्धतियों से जैनधर्म में विवेचन है, उसका प्रतिभास भी अन्य धार्मिक फिलासॉफियों में नहीं पाया जाता। अध्यव्यवसाय, कषाय, लेश्या के अनुरूप कर्मबंध के अनुभाग (रस) में तीव्रता-मंदता का होना। आश्रव तत्त्व में अपराध के मूल कारणों की खोज । पंच समवायकारण--काल, स्वभाव, कर्म, नियति और उद्यम का निरूपण । परमाणुवाद, सापेक्षवाद, अनेकान्तवाद, नय, विक्षेप आदि के प्रकाश में अपराधशास्त्री कर्मवाद का अभ्यास करके अपराध के मूल कारणों तक पहुंच सकते हैं। निबन्ध के सातवें प्रकरण में अपराध निवारण में 'संवर-तत्त्व' के योगदान की चर्चा है । पाश्चात्य विद्वानों द्वारा व्यक्ति के चारित्र्य-सुधार में धर्म के तत्त्वों को दी गई स्वीकृति । जैन दृष्टि से धर्म की व्याख्या । सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चरित्र रूपी मोक्षमार्ग का विधान । दान, शील, भाव और तप से धर्म की आराधना। जीवन को शान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, अकिंचन्य, सत्य, संयम, तप और ब्रह्मचर्य की ओर मोड़ने का विधान । व्यसनमुक्ति, देशविरति, सर्वविरति-अणुव्रत और महाव्रतों का स्वरूप व विवेचन । छह आवश्यक । समाज की पुनर्रचना यदि अहिंसा, अनेकान्त व अपरिग्रह के सिद्धान्त पर की जाये तो अपराध-निवारण जैसी कोई समस्या ही न रहे। निबन्ध के आठवें प्रकरण में दश प्रायश्चितों की चर्चा है। जैन दण्डनीति के अभ्यास में यह सीमाचिह्न रूप हैं । प्रायश्चित की होड, अपराध के निराकरण और चित्त की विशुद्धि है । पश्चाताप के कारण व्यक्ति अपने सूक्ष्म अपराध के लिए कड़ी सजा सहने को उत्सुक हो जाता है। जबकि रीढ़ा गुनाहगार व्यक्ति अपने बड़े अपराध के लिए कम-से-कम सजा से भी छटकने की सोचता है या तो उस पर कड़ी सजा का भी कोई असर नहीं दिखाई देता । व्यक्ति की अपराधवृत्ति और पश्चाताप की भावना को लक्ष्य में रखकर योग्य दण्ड या प्रायश्चित देना १. इयान टेलर, पॉल वॉल्टन और जेकयंग, "द न्यू क्रिमनोलॉजी फॉर ए सोसल थियोरी ऑफ डेवीयन्स", लन्दन, पृ० ५२ जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठिन काम है / अपराध की गुरुता-लघुता के अनुरूप दण्ड और प्रायश्चित दिये जाते हैं / दण्ड और प्रायश्चित का व्यक्ति पर कैसा प्रभाव पड़ेगा उसका परिणाम आदि का अभ्यास करने के बाद दण्ड और प्रायश्चित के मापदण्ड का निर्धारण करना आवश्यक है। प्रायश्चित देते समय गुरु या तो आचार्य ग्यारह बाबनों का ख्याल रखते हैं : (1) द्रव्य (2) क्षेत्र (3) काल (4) भाव (5) क्रिया (6) परिणाम (7) उत्साह (8) संघयण (9) पर्याय (10) आगम और (11) पुरुषार्थ / प्रायश्चित द्वारा शुद्धिकरण की पद्धति का अभ्यास अपराधशास्त्रियों के लिए समाज के विविध स्तरों पर विद्यार्थी, कामदार, संगठनों के सभ्य, आदि-आदि--- दण्ड के विकल्प में प्रायश्चित के प्रयोगों को अपनाने की ओर निर्देश कर सकता है। इस पद्धति से सही अर्थ में अपराधनिवारण हो सकता है। और इसका गहरा आध्यात्मिक मूल्य भी है। निबन्ध के नवें प्रकरण में निबन्ध की समालोचना समाविष्ट है। दण्डनीति और जैन दण्डनीति के भेद चचित हैं। धार्मिक फिलासॉफी और समाज विज्ञान की एकता व भिन्नता को टटोलकर समन्वय कैसे किया जा सकता है, यह बताया है। धार्मिक शिक्षण, शिक्षा, संयम, प्रामाणिकता, नैतिकता आदि का राष्ट्रीय चारित्र्य-निर्माण में योगदान समझाया है। संवर का पाठ ही अपराध से व्यक्ति और समाज को बचा सकेगा। भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के कारण सभी धर्मों के आचार्यों पर विशिष्ट जबाबदारी आ पड़ी है कि अपने धर्मसिद्धान्त के आधार पर अनुयायियों का चरित्र उज्ज्वल और विकसित हो, न कि राष्ट्रीय नीतिमत्ता का स्तर ऊंचा उठे।' - जैन संस्कृति का सन्देश जैन संस्कृति की संसार को जो सबसे बड़ी देन है, वह अहिंसा है / अहिंसा का यह महान् विचार, जो आज विश्व की शान्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन समझा जाने लगा है और जिसकी अमोघ शक्ति के सम्मुख संसार की समस्त संहारक शक्तियां कुण्ठित होती दिखाई देने लगी हैं, एक दिन जैन संस्कृति के महान् उन्नायकों द्वारा ही हिंसा काण्ड में लगे हुए संसार के सामने रखा गया था। ... जैन संस्कृति के महान् संस्कारक अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने तो राष्ट्रों में परस्पर होने वाले युद्धों का हल भी अहिंसा के द्वारा ही बतलाया है / उनका आदर्श है कि प्रचार के द्वारा विश्व भर में प्रत्येक मनुष्य के हृदय में यह जंचा दो कि वह स्व में ही सन्तुष्ट रहे, पर की ओर आकृष्ट होने का कभी भी प्रयत्न न करे / पर की ओर आकृष्ट होने का अर्थ है कि दूसरों के सुख साधनों को देखकर लालायित हो जाना और उन्हें छीनने का दुःसाहस करना / जब तक नदी अपने पाट में प्रवाहित होती रहती है तब तक उससे संसार को लाभ ही लाभ है, हानि कुछ भी नहीं / ज्योंहि वह अपनी सीमा से हटकर आस-पास प्रदेश पर अधिकार जमाती है, बाढ़ का रूप धारण करती है तो संसार में हाहाकार मच जाता है, प्रलय का दृश्य आ खड़ा होता है। यही दशा मनुष्यों की है। जब तक सबके सब मनुष्य अपने स्व में ही प्रवाहित रहते हैं तब तक कुछ अशान्ति नहीं, लड़ाई-झगड़ा नहीं, अशान्ति और संघर्ष का वातावरण नहीं पैदा होता है। जहां मनुष्य स्व से बाहर फैलना शुरू करता है, दूसरों के अधिकारों को कुचलता है, दूसरों के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाने लगता है, वहां संघर्ष, ईर्ष्या, द्वेष और कलह पनपने लगते हैं। -आचार्यरत्न, श्री देशभूषण उपदेशसारसंग्रह, भाग-६, दिल्ली, वीर नि० सं० 2460, पृ० 165-66 से उद्धृत 1. निबन्ध की भूमिका और समालोचना के लिए द्रष्टव्य-'तुलसी प्रज्ञा',जैन विद्या-परिषद् परिशिष्टांक, रूण्ड 6, अंक 12, पृ०२८, मार्च, 1981 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ