Book Title: Anekta me Ekta hi Anekant Hai Author(s): Indradinnasuriji Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/210044/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर अनेकता में एकता ही अनेकान्त है -आचार्यश्री विजय इन्द्रदिन्न सूरिजी म. जैन धर्म और दर्शन ने विश्व को अनुपम और अद्वितीय आचार्य हरिभद्र सूरि और हेमचन्द्रचार्य जैस जैन दार्शनिकों ने सिद्धान्त अर्पित किए हैं। वे सिद्धान्त इतने शाश्वत, कालजयी, अन्य दर्शनों में भी इस अनेकान्तत्व को ढूंढ़ा है। बुनियादी, जीवंत और युगीन हैं कि विश्व के लिए इनकी वीतराग स्तोत्र में हेमचन्द्राचार्य ने कहा हैप्रासांगिकता सदैव बनी रहती है। जैन-दर्शन के इन्हीं शाश्वत सिद्धान्तों में से एक महान, चुनिंदा और व्यावहारिक सिद्धान्त इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्य, विरुद्ध गुम्फितं गुणैः। अनेकान्तवाद या स्याद्वाद है। भारतीय दार्शनिक अखाड़ों में जैन सांख्यः संख्यावतां मुख्यो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ दर्शन का यही सिद्धान्त सर्वाधिक चर्चित रहा है। कहीं-कहीं पर यह सांख्य दर्शन प्रधान-प्रकृति को सत्त्व आदि अनेक विरुद्ध गुणों जैन धर्म का पर्याय और पहचान भी बन गया है। किसी ने इसकी से गंफित मानता है। इसलिए वह अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं प्रशंसा की, किसी ने निंदा। किसी ने आदरणीय बताया और किसी कर सकता। ने घृणास्पद। आदि शंकराचार्य ने इसे संशयवाद होने का आरोप अध्यात्मोपनिषद् में भी यही बात की गई हैलगाया। फिर भी इस सिद्धान्त की गहराई तक पहुँचने का प्रयल बहुत / चित्तमेकमनेकं च रूपं, प्रामाणिकं वदन्। कम विद्वानों ने किया है। अनेकान्त पर जो भी आरोप लगे हैं वे योगो वैशेषिको वापि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ अनेकान्त को अनेकान्त दृष्टि से न समझने पर ही लगे हैं। न्याय-वैशेषिक एक चित्त को अनेक रूपों में परिणत मानते हैं। जैन धर्म का यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिससे विश्व के सभी अतः व अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं कर सकते। विवाद सुलझ सकते हैं। सभी युद्ध और झगड़े समाप्त हो सकते हैं। विज्ञानस्यैकमाकारं, नानाकारकरम्बितम्। इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए समग्र विश्व में सुख, शांति इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ और समृद्धि का साम्राज्य सर्वत्र छा सकता है। विज्ञानवादी-बौद्ध एक आकार को अनेक आकारों से सन्मतितर्क के कर्ता ने तो यहां तक कहा है कि - युक्त मानते हैं। इसलिए वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं कर जेण विणा लोगस्सवि, ववहारो सव्वहा ण णिघडइ। सकते। तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमो अणेगंतवायस्स॥ जातिवाक्यात्मकं वस्तु, वदन्ननुभवोचितम्। जिसके बिना विश्व का कोई भी व्यवहार सम्यगरूप से घटित भट्टो वापि मुरारिर्वा, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ नहीं होता। उस त्रिभुवन के एकपात्र गुरु अनेकान्तवाद को मेरा ___ भट्ट और मुरारी के अनुयायी प्रत्येक वस्तु को सामान्य नमस्कार है। विशेषात्मक मानते हैं। अतः वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं अनेकान्त की नींव पर ही जैन धर्म और दर्शन की रचना कर सकते। हुई है। जैन धर्म के सभी नियम-उपनियम और आचार परम्परा की अबद्ध परमार्थेन, बद्धं च व्यवहारतः। आधारशिला यही सिद्धान्त है। अनेकान्त को बिना अच्छी ब्रुवाणो ब्रह्मवेदान्ती, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत्॥ तरह समझे जैन धर्म और दर्शन का व्यवस्थित अध्ययन नहीं हो ब्रह्म वेदान्ती परमार्थ से ईश्वर को बद्ध और व्यवहार से उसे सकता। अबद्ध मानते हैं। अतः वे अनेकान्त सिद्धान्त का खंडन नहीं कर भारत का दार्शनिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि सकते। दार्शनिक विवाद के क्षेत्र में जैन-दर्शन बहुत बाद में उतरा है। इसलिए जैन दार्शनिकों को सभी दर्शनों का तटस्थ और तुलनात्मक ब्रुवाणा भिन्न-भिन्नार्थान्, नय - भेदव्यपेक्षया। अध्ययन का अवसर प्राप्त हुआ था। उन्होंने सभी दर्शनों के प्रतिक्षिपेयु! वेदाः, स्याद्वादं सार्वतन्त्रिकम्॥ अध्ययन के बाद जैन-दर्शन को दार्शनिक अखाड़ों में उतारा था। वेद भी स्याद्वाद का खंडन नहीं कर सकते क्योंकि वे प्रत्येक परिणामतः जैन-दर्शन अन्य दर्शनों की अपेक्षा अधिक सांगोपांगता अर्थ या विषय को नय की अपेक्षा से भिन्न और अभिन्न दोनों और परिपूर्णता लिए हुए हैं। उसमें कहीं भी दार्शनिकत्व की न्यूनता मानते हैं। इस प्रकार प्रायः सभी मतावलम्बी स्याद्वाद को स्वीकार दृष्टिगत नहीं होती। करते हैं। Jain Education interational www.zinelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Oc0626000 494 अनेकान्त या स्याद्वाद को एक प्रखर सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान करने का श्रेय जैन-दर्शन और जैन दार्शनिकों को जाता है। जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही देखना अनेकान्त है। जैन धर्म के सम्यक्त्व-सम्यकदर्शन का मूलाधार भी यही है। जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में न देखने से विकृति उत्पन्न होती है। प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष होते हैं। मनुष्य की दृष्टि किसी एक पक्ष पर ही टिकती है। किसी एक ही पक्ष को देखना और उसी का आग्रह रखना एकान्त है। विश्व की द्वन्द्वात्मक स्थिति का मूल कारण यही एकान्त है। जहाँ-जहाँ एकपक्षी और एकांगी दृष्टि होगी वहाँ-वहाँ विवाद और कलह होगा। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जहाँ-जहाँ विवाद और कलह होगा वहाँ-वहाँ एकांगी दृष्टि होगी। वहाँ एक ही पक्ष का आग्रह होता है और वह आग्रह जब दुराग्रह में परिवर्तित होता है तब विग्रह का जन्म होता है। किसी एक पक्ष से वस्तु पूर्ण नहीं हो सकती। अगर वह पूर्ण होगी तो दो पक्ष से ही पूर्ण होगी। इसलिए दो पक्ष प्रत्येक पूर्ण वस्तु की वास्तविकता है। यह उसकी सच्चाई है फिर दोनों पक्षों के स्वीकार में संकोच क्यों होना चाहिए। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ / अनेकता में एकता हमारे गणतंत्र देश का बहुप्रचलित सूत्र है। यह अनेकता में एकता अनेकान्त ही है। संसार में अनंत अनेकताएँ-भिन्नताएँ हैं। बावजूद इन सभी अनेकताओं और भिन्नताओं में कोई न कोई ऐसा तत्व है जो एक है, जो समान है, जिसे सभी स्वीकार करते हैं। इन अनेकताओं में से जो एकता का तत्त्व है, उसे ढूंढ़ लो और उसी को स्वीकार कर लो। एकता स्वीकार करने का यह अर्थ नहीं कि अनेकान्त अनेकता का विरोध करता है। नहीं, अनेकान्त कभी किसी का विरोध नहीं करता। जहाँ विरोध होगा वहाँ अनेकान्त नहीं रहेगा। अनेकान्त निर्विरोध है। जहाँ विरोध होगा वहीं एकान्त आकर खड़ा हो जाएगा। विरोध का अर्थ ही एकान्त है। अनेकान्त तो वस्तु को देखने-परखने की एक दृष्टि प्रदान करता है। इस तरह अनेकान्त के अनेक व्यावहारिक पहलू है। संसार के कल्याण के लिए ही सर्वज्ञ अरिहंत ने इन सिद्धान्तों की प्ररूपणा की थी। उनके प्रत्येक सिद्धान्त में संसार के सुखी होने का रहस्य छिपा हुआ है। चाहे वह अहिंसा का सिद्धान्त हो या अपरिग्रह का या अनेकान्तवाद का। इन शाश्वत सिद्धान्तों को अधिक से अधिक व्यावहारिक जगत् में लाने का उत्तरदायित्व जिन भगवान के अनुयायी प्रत्येक जैन का है। सत्य की खोज NOPARDOS -डॉ. जगदीश चन्द्र जैन प्राचीन शास्त्रों में सत्य की महिमा का बहुत बखान किया गया / बलहीन और असुरगण असत्य का आश्रय लेने के कारण बलवान है। उपनिषद् का वाक्य है-सत्यं वद, धर्म चर, यानी सच बोलो बन गये। अंत में देवों ने भी यज्ञ का आयोजन किया और उसके और धर्म का आचरण करो। लेकिन सत्य है क्या? सत्य तक कैसे / बल से उन्हें विजय प्राप्त हुई। अन्यत्र यज्ञ के अतिरिक्त तीन वेद, पहुँच सकते हैं? चक्षु, जल, पृथ्वी और सुवर्ण आदि को सत्य कहा है। इससे जान शंकराचार्य का कथन है-'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' अर्थात् केवल / पड़ता है कि उस समय सत्य का अस्तित्व के अर्थ में प्रयोग ब्रह्म ही सत्य है और बाकी सब मिथ्या है। लेकिन ब्रह्म क्या है? प्रचलित था, यथार्थ भाषण से इसका सम्बन्ध नहीं था। ऋग्वेद में स्तुति के अर्थ में ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया गया है। वस्तुतः सच या झूठ बोलने की कल्पना आदिम कालीन जातियों अथर्ववेद में ब्रह्म शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग मिलता है। वेदों की उपज नहीं है। यह कल्पना उस समय की है जब मनुष्य की के सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य सायण ने विविध अर्थों में ब्रह्म शब्द / आर्थिक परिस्थितियों में उन्नति होने के कारण कायदे- कानून और का प्रयोग किया है। धार्मिक व्यवस्था की आवश्यकता महसूस होने लगी। पूर्व काल में यज्ञ-याग-प्रधान वैदिक ग्रन्थों में यज्ञ को ही सत्य कहा है। यह व्यवस्था नहीं थी क्योंकि मानव का जीवन बहुत सीधा-सादा एवं तत्कालीन समाज में यज्ञ-यागों के माध्यम से ही मनुष्य परमात्मा के सरल था। वह नैसर्गिक शक्तियों में कल्पित देवी-देवताओं को प्रसन्न साथ सम्बन्ध स्थापित करने में सक्षम माना जाता था। देवासुर- करने के लिए यज्ञ-याग का अनुष्ठान करने में ही अपनी सारी शक्ति संग्राम में, कहते हैं कि देवगण सत्य का आश्रय लेने के कारण लगा देता था। यज्ञ-याग का यही आर्थिक मूल्य भी था। RPORताततस्तता lam Education folenationalogge D o