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अहमदाबाद युद्ध के जैन योद्धा
D श्री विक्रमसिंह गुन्दोज सर्वेक्षक, राजस्थानी शोध संस्थान, चोपासनी, जोधपुर (राज.)
मध्यकालीन भारतीय इतिहास अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस काल में घटित राजनैतिक घटनाओं का प्रभाव देश के जन-जीवन और उसकी संस्कृति पर स्पष्ट और व्यापक रूप से दृष्टिगोचर होता है। राजस्थान में भी इस काल में अनेक वीर योद्धा हुए, जिन्होंने अपने वीरतापूर्ण कृत्यों से राजस्थान ही नहीं अपितु भारत के इतिहास को गौरवान्वित किया। निःसन्देह इस सूची में क्षत्रिय-वीरों की संख्या सर्वाधिक है, लेकिन उनके अतिरिक्त भी अन्य वर्गों में उत्पन्न अनेक योद्धाओं ने वीरता के क्षेत्र में अपना नाम उज्ज्वल किया और यश तथा ख्याति अजित की।
जैन सदा से ही शान्तिप्रिय रहे हैं । इसके साथ ही बदलते हुए सामाजिक परिवेश में अपना सामंजस्य स्थापित करने में भी वे हमेशा जागरूक रहे। सफल व्यापारी के रूप में उन्होंने समाज में अपने आपको स्थापित किया। इसी वजह से मारवाड़ में यह कहावत चल पड़ी 'बिणज करेगो बाणियो' अर्थात् व्यापार का कार्य तो वैश्य ही सफलतापूर्वक सम्पादित कर सकता है । व्यापारिक कार्य में लगे रहने के साथ-साथ जैन हमेशा ही राजनीति से जुड़े रहे। लक्ष्मीपुत्र होने के नाते सर्वत्र उनका सम्मान होता था। इस कौम के बुद्धिमान लोग प्रशासनिक दृष्टि से भी अपने को सफल सिद्ध करने में किसी से पीछे नहीं रहे। बड़े-बड़े ठाकुरों, जागीरदारों, राजा-महाराजाओं के कार्य की देखरेख, दीवान, कामदार आदि के पदों पर सदा जैनों का बना रहना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि मध्यकालीन प्रशासन में ये लोग भी काफी प्रभावी थे तथा स्थानीय वित्तीय व प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखने में जैनों का महत्त्वपूर्ण योग रहा।
जैन परोक्ष रूप में युद्ध में सहयोग करते रहते थे परन्तु स्वयं उनका युद्ध में भागीदार बनना और रणक्षेत्र में उतरना बहुत कम जगह देखा गया है। इसी कारण अहमदाबाद युद्ध में अनेक जैन योद्धाओं द्वारा अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करना प्रत्येक पाठक को अनूठा एवं एक अप्रत्याशित उदाहरण अवश्य लगेगा। अहमदाबाद का युद्ध एक ऐतिहासिक घटना है तथा राजस्थान के इतिहास में यह युद्ध महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
इस युद्ध के बारे में 'सूरजप्रकास' और 'राजरूपक' में विस्तार से वर्णन मिलता है। बखताखिडिया ने भी अहमदाबाद के झगड़े से सम्बन्धित कुछ कवित्त लिखे हैं । इसके अतिरिक्त डॉ० गौरीशंकर हीराचंद ओझा द्वारा लिखित 'जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग-२' व पण्डित विशेश्वरनाथ रेऊ के 'मारवाड़ का इतिहास, भाग-१' में प्रसंगानुकूल इस युद्ध का वर्णन मिलता है। सूरजप्रकास व राजरूपक के रचयिता क्रमशः कविराजा करणीदान और वीरभाण रतनू दोनों ही इस युद्ध में मौजूद थे । युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी होने के कारण इन दोनों का वर्णन बड़ा सशक्त है ।
अहमदाबाद के युद्ध की घटना संक्षेप में इस प्रकार है कि दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह को जब यह ज्ञात हुआ कि गुजरात के सूबेदार सरबुलन्द ने विद्रोह कर दिया है और स्वयं गुजरात का स्वतन्त्र शासक बन बैठा है तब बादशाह ने एक दरबार किया। इस दरबार में उस समय के बड़े-बड़े उमराव, नवाब, अमीर और राजा-महाराजा उपस्थित हुए । बादशाह ने सरबुलन्द के विरुद्ध अपने दरबार में पान का बीड़ा घुमाया पर किसी ने यह बीड़ा नहीं उठाया। सरबुलन्द से मुकाबला करने की हिम्मत जब किसी की नहीं हुई तब जोधपुर के महाराजा अभय सह ने उस बीड़े को उठाया।
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
महाराजा अभयसिंह ने सरबुलन्द से युद्ध किया । तीन दिन तक घमासान लड़ाई हुई । आखिर चौथे दिन सरबुलन्द की सेना के पाँव उखड़ गये । उसने महाराजा अभयसिंह के सम्मुख आत्मसमर्पण किया। नींबाज ठाकुर अमरसिंह ऊदावत ने इस सन्धि समझौते में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अहमदाबाद विजय की यह घटना विजयदशमी विक्रम संवत् १७८७ (१० अक्टूबर, सन् १७३०) की है।
सत्तर समत सत्यासियो, आसू उज्जल पक्ख ।
विजै दसम भागा विचित्र, अभै प्रतिग्या अक्ख ।। गुजरात के सूबेदार सरबुलन्दखों के साथ हुए इस युद्ध में जोधपुर के महाराजा अभयसिंह की फौज में कई जैन महत्त्वपूर्ण सैनिक पदों पर नियत थे। बांकीदाम लिखता है कि वि० सं० १७८७ आश्विन सुदि ७ (७ अक्टूबर सन् १७३०) को कोचरपालडी पहुंचने पर अहमदाबाद नगर तथा भद्र के किले पर पाँच मोर्चे लगाये गये । एक मोर्चे में अभयकरण करणोत, चांपावत महासिंह पोकरण तथा भागीरथ दास आदि, दूसरे में शेरसिंह सरदारसिंहोत मेडतिया, प्रतापसिंह जोधा खैरवा तथा पुरोहित केसरीसिह आदि, तीसरे में मारोठ तथा चौरासी के मेडतिये एवं भण्डारी विजयराज, चौथे में गुजराती सैनिक एवं रत्नसिंह भण्डारी और पाँचवें मोर्चे में दीवान पंचोली लाला आदि थे।
___ अक्टूबर, १७३० में ही रत्नसिंह भण्डारी ने भद्र के किले (गुजरात) में प्रवेश कर वहाँ आधिपत्य स्थापित किया। कैम्पबेलकृत 'गैजेटियर आफ् दी बोम्बे प्रेसीडेन्सी' में लिखा है कि अहमदाबाद में प्रवेश करने पर महाराजा ने रत्नसिंह भण्डारी को अपना नायब मुकर्रर किया। जोधपुर राज्य की ख्यात से भी इस बात की पुष्टि होती है। इसमें अहमदाबाद के सूबे पर अभयसिंह का अमल होने, उसके शाही बाग में ठहरने और नायब का पद भण्डारी रत्नसिंह को देने का उल्लेख है।
इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि अहमदाबाद के युद्ध में सरबुलन्द को परास्त करने में जैन सैनिक पदाधिकारियों ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । विजयराज भण्डारी और रत्नसिंह भण्डारी महाराजा के विश्वास-पात्र व्यक्तियों में से थे। उनकी वीरता और नीतिज्ञता के कारण ही उन्हें सेना के उच्च पदों पर नियुक्त किया गया । इतना ही नहीं निर्णय लेने के महत्त्वपूर्ण अवसरों पर भी महाराजा अभयसिंह इन जैन राजनीतिज्ञों पर कार्यभार डाल निश्चिन्त हो जाया करते थे। उदाहरण के लिए बाजीराव से गुजरात की चौथ के सम्बन्ध में कौल-करार करने के लिए महाराजा ने अपनी ओर से शत तय करने के लिए भण्डारी गिरधरदास और रत्नसिंह भण्डारी को प्रतिनिधि के रूप में भेजा । महाराजा अभयसिंह जब अहमदाबाद से प्रस्थान कर माही नदी के उत्तर में बड़ौदा जिले में पहुंचे तथा बड़ौदा पर जब अधिकार कर लिया तो जीवराज भण्डारी को, बड़ौदा के मालदार आदमियों को कैद कर, उनसे धन वसूल करने के लिए नियुक्त किया।
___ खांडेराव दाभाडे को गुजरात की चौथ उगाहने का हक प्राप्त था। खांडेराव तो युद्ध में मुकाबला करता हुआ मारा गया परन्तु उनकी विधवा पत्नी उमाबाई बड़ी साहसी महिला थी। उमाबाई ने आस-पास के प्रदेश की चौथ वसूल करने के लिए पीलाजी गायकवाड को नियत किया। महाराजा अभयसिंह ने पीलाजी गायकवाड को छल से मरवा डाला तो उमाबाई घायल शेरनी की भाँति उग्र हो उठी और उसने महाराजा पर चढ़ाई कर दी। इस मुकाबले में भी मारवाड़ के अन्य जागीरदारों व सैनिकों के साथ जैन सेनानायकों ने न केवल कन्धे से कन्धा मिलाकर युद्ध किया बल्कि जब उन्हें यह पता लगा कि महराज ने डेढ़ लाख रुपये देकर उमाबाई से समझौता कर लिया है तो यह बात भण्डारी रत्नसिंह, भण्डारी विजयराज, मेहता जीवराज, पंचोली लालजी आदि को पसन्द नहीं आई और उन्होंने दूसरे दिन उमाबाई की फौज पर चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में मेहता जीवराज अपने कई साथियों के साथ वीर-गति को प्राप्त हुए । इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि अपमानजनक समझौता करने की अपेक्षा युद्ध-भूमि में वीरतापूर्वक लड़कर सर्वस्व बलिदान देने वाले क्षत्रियों की परम्परा की अनुपालना करने में भी जैन सेनानायक पीछे नहीं रहे।
१ जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग २, डा० ओझा, पृ० २१४.
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उक्त युद्ध में महाराजा अभयसिंह की ओर से लड़ने वालों में जिन जैन सैनिक पदाधिकारियों (दीवानों, फौजशियों और हुजदारों) ने भाग लेकर अद्भुत शौर्य प्रकट किया था तथा अपने बुद्धि चातुर्य से उस युग के प्रतिनिधि व्यक्तियों में अपना नाम लिखा गये उन कतिपय वीरों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है ।
अहमदाबाद युद्ध के जैन पोड़ा
१. अनोपसिंह भण्डारी - यह राय भण्डारी रघुनाथसिंह का पुत्र था । रघुनाथसिंह भण्डारी स्वयं महाराजा अजीतसिंह के शासनकाल में एक महाशक्तिशाली पुरुष हो गया है। यह अजीतसिंह का दीवान था । इसमें शासन कुशलता और रण चातुर्य का अद्भुत संयोग था । महाराजा की अनुपस्थिति में कुछ समय तक मारवाड़ का शासन भी किया । इससे सम्बन्धित निम्नलिखित दोहा बहुत प्रचलित है
करोडो द्रव्य लुटायो, हादौ ऊपर हाथ अज दिली रो पातसा, राजा नूँ रघुनाथ ॥
अपने पिता रघुनाथसिंह भण्डारी की भाँति अनोपसिंह भण्डारी बड़ा बहादुर, रणकुशल तथा नीतिज्ञ था । संवत् १७६७ में महाराजा अजीतसिंह द्वारा जोधपुर का हाकिम नियुक्त किया गया जिसको इसने पूरी तरह निभावा । संवत् १७७२ में इसको नागौर का मनसब मिला तथा महाराजा ने इसको व मेड़ते के हाकिम पेमसिंह भण्डारी को नागौर पर अमल करने के लिए भेजा जिसमें सफलता प्राप्त की। विक्रम संवत् १७७६ में फर्रुखसियर के मारे जाने के बाद फौज के साथ अहमदाबाद भी इसको भेजा वहाँ भी इसने बड़ी बहादुरी दिलाई।
२. अमरसिंह भण्डारी — इसके पिता का नाम खींवसी भण्डारी था। खींवसी भण्डारी महाराजा अजीतसिंह के विश्वासपात्र व्यक्तियों में से था। मुगल सम्राट पर्रुखसियर पर इसका बड़ा प्रभाव था । करणीदान रचित 'सूरजप्रका ' के अनुसार हिन्दुओं पर से जजिया कर छुड़वाने में इसने महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया था। खींवसी जोधपुर राज्य की तरफ से वर्षों तक मुगल दरबार में रहा ।
बोक्सी भण्डारी का पुत्र अमरसिह भण्डारी भी योग्य एवं कुशाग्र बुद्धि वाला था महाराजा अभयसिंह के शासन काल में वि०सं० १७६६ से १८०१ तक जोधपुर का दीवान रहा। अहमदाबाद युद्ध के समय यह दिल्ली में महाराजा अभयसिंह का वकील था । यह बहुत बुद्धिमान, चतुर और अपने समय का कुशल राजनीतिज्ञ था ।
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भंडारिता मंत्री कुलि भांग दिल्ली अमरेस हुती दवांण ॥
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रहे दत्त स्याम धरम सुलीण ॥ असप्पतिहूत सूं की अरज ॥ कही धर गुज्जर कथ्थ सकाज ॥"
जिat fपंड सूर दसा परवीण लिया सुते श्री भुजा रंज लाज जिकै विध कीध फते महाराज
३. रत्नसिंह भण्डारी - यह महाराजा अभयसिंह के विश्वासपात्र सेनानायकों में था। यह बड़ा वीर, राजीतिज्ञ, व्यवहारकुशल और कर्तव्यपरायण सेनापति था मारवाड़ राज्य के हित के लिए इसने बड़े-बड़े कार्य किये वि०सं० १७१३ में महाराजा अभयसिंह रत्नसिंह भण्डारी को गुजरात की गवर्नरी का कार्यभार सौंपकर दिल्ली चले गये थे
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भाग लिया। देश में चारों ओर जब परिस्थिति में सफलता प्राप्त करना
तब इसने बड़ी योग्यता के साथ इस कार्य को किया । रत्नसिंह ने अनेक युद्धों में अशान्ति छाई थी, मरहठों का जोर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था ऐसी विकट रत्नसिंह जैसे चतुर और वीर योद्धा का ही काम था। कविराजा करणीदान ने अपने ग्रन्थ सूरजप्रकास में इस वीर के युद्धकौशल व वीरता का वर्णन इस प्रकार किया है—
१. सूरजप्रकास, भाग-३, सम्पादक शीतारामलालस, पृ० २७१.
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महाबल हूर वरावत मीर बडौ महाराज तणौ स वजीर ॥ दुवै सुत 'ऊद' तणा दवांण । भंडरिय कट्टिया खाग भयाण ॥
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
वदन्न मजीठ 'जबान' 'विजेस' । त, अमि औरबियौ 'रतनेस' ॥ जई खग वाहत दारण जोस । पड़े खग झाटक सिल्लह पोस । कटै सिर सूर जूट धड़ केक । उभे हुय टूक पड़त अनेक ।। पड़े पग हाथ धरा लपटत । किला किर राखस बालकरंत ॥ 'अभै' भुज भार दियौ अणथाह। सुतौ उजवाल कियौ 'रणसाह' ।।
भिड़े 'रतनागर' यूं गज भार । वधै असि औरवियौ त्रिण वार ॥ ४. विजयराज भण्डारी- यह खेतसी भण्डारी का पुत्र था। यह उन ओसवाल मुत्सद्दियों में विशेष स्थान रखता है जिन्होंने जोधपुर राज्य के इतिहास को अपनी सेवाओं द्वारा गौरवान्वित किया । महाराजा अजीतसिंह द्वारा मेड़ते का हाकिम नियुक्त किया गया। दिल्ली के उत्तराधिकार युद्ध में महाराजा की आज्ञानुसार जोधपुर से ससैन्य जाकर विजयराज भण्डारी ने शाहजादे फर्रुखसियर का पक्ष लिया था।
गुजरात के सूबेदार मरबुलन्द का दमन करने से लिए महाराजा अभयसिंह ने जब प्रयाण किया तो उन्होंने अपनी सेना को तीन भागों में विभाजित किया । एक महाराजा अभसिंह के अधिकार में और दूसरा राजाधिराज बखतसिंह के अधिकार में एवं तीसरा भण्डारी विजयराज के अधिकार में था । अहमदाबाद के युद्ध में जो व्यूह रचना की गयी उसके अन्दर पाँच मोर्चों में से एक मोर्चे का भार भण्डारी जीवराज के सुपुर्द किया गया था। इस युद्ध में इसने अपनी बुद्धि और रणकुशलता का अच्छा परिचय दिया।
५. गिरधरदास भण्डारी-अहमदाबाद के युद्ध में अपनी अद्भुत वीरता व पराक्रम दिखाने वाले जैन योद्धाओं में गिरधरदास भण्डारी का नाम भी महत्त्वपूर्ण है । गुजरात की चौथ वसूल करने के सम्बन्ध में बाजीराव से बातचीत करने के लिए महाराजा अभयसिंह ने अपने दो प्रतिनिधियों को भेजा उसमें एक गिरधरदास भण्डारी था। इससे यह ज्ञात होता है कि वह बाहुबल का धनी होने के साथ-साथ बुद्धिमान राजनीतिज्ञ भी था। कविराजा करणीदान ने सूरजप्रकास में मोतीदाम छन्द में गिरधरदास भण्डारी का वर्णन निम्नांकित रूप से किया है
दलां खल झोकि तुरी हुजदार । भंडारिय जूटत जै गज भार ।। सकौ सिरपोस 'गिरद्धर' सूर । पटोधर 'ऊद' तणौ छक पूर ।। भुहाँ भिडि मुंछ चखां विकराल । काले असि औरवियो कलिचाल । दिये खग झाट गिरद्धरदास । बिढे असवार सहेत वहास ॥ सिलै बंध पाखर बंध संधार । भेला हिज गंज चढे धर भार । बहै खल गाहटतौ जुध बाज । करै खग घाव अरोह सकाज ॥ उडै असि ऊपर लोह अपार । वढे असि भोम चढे णिवार । किलम्मक एक जठ कलिचाल । वुही खग टोप कटे विकराल ।। वही झल ऊपर वीजल वेगि । तठ 'गिरधार' वही धण तेगि ।। उभै हुय टूक पडै अनुरांण । चढे असि साम बियै वहांण ।। बिया असि ऊपरी गज्जर बूर । सझै खग झाट बलोबल सूर ॥ वहै खग झाट भंडारिय 'बाँध' । उडै खल थाट संघाट अथाघ ।। दुजौ असि जाम कटेस उदार । तिजै असि सूर चढे तिण वार । लड़े 'गिरधारिय' अंबर लागि । उई खल थाट सिरै खग आगि ।।
६. सिंघवी जोधमल और मेहता गोकुलदास-ये दोनों जैन योद्धा भी अहमदाबाद के युद्ध में महाराजा अभयसिंह की ओर से लड़े थे
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________________ अहमदाबाद युद्ध के जैन योद्धा 133 चिढ़े चंडिका पुत्र यू वरणेस / कंठीरव पौरस जे-करणेस / / उरै असि आरण वीर अरोध / जुडै सिंघवी खग झाटक 'जोध' / / बिढे महता जुधि और वहास / दिये खग झाटक गोकलदास / / वैरीहर बाढ़त वीजल वाह / गोपाल कराल करै गजगाह / / इसके अतिरिक्त उदयचन्द भण्डारी, बाधचन्द भण्डारी, पेमचन्द भण्डारी व उसका पुत्र, थानचंद दीपचंद, माईदास भण्डारी, रणछोड़दास, खुशालचंद, मुहणोत सूरतराम आदि जैन योद्धाओं ने इस ऐतिहासिक युद्ध में बहादुरी से शत्रु सेना का सामना किया / ' इन वीरों के नाम तो कविराजा करणीदान ने अपने ग्रन्थ सूरजप्रकास में गिनाये हैं। इसके अतिरिक्त भी निश्चित रूप से ऐसे अनेक अनाम जैन योद्धा रहे होंगे जिन्होंने इस युद्ध में भाग लिया होगा परन्तु आज उनके नामोल्लेख या अन्य पुष्ट प्रमाणों के अभाव में केवल अनुमान का ही आश्रय लेकर संतोष करना पड़ रहा है। उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर स्वामी के अहिंसा परमोधर्मः के सिद्धान्त का कठोरता से पालन करने वाले, कोमल एवं शांत विचार के अनुयायी जैन सम्प्रदाय के लोग आवश्यकता पड़ने पर शत्रु का मुकाबला करने के लिए मोर्चा संभालने का कार्य भी सहर्ष स्वीकार करते थे। युद्ध की विकरालता और भयंकरता उनको भयभीत नहीं करती थी। कोमलचित्त और प्रवृत्ति का स्वाभाविक गुण होने के बावजूद युग की माँग के अनुरूप अपने जीवन में परिवर्तन को स्वीकार कर रण-रंग में डूब जाना ही सच्चे वीर की पहचान है। 'नमो अरिहंताण' का जाप जपने वाले शंखनाद कर शत्रुदल का संहार करने को भी तत्पर हो जाये यही तो भारतीय संस्कृति की विशेषता है। दो विचारों में परस्पर विरोधाभास की अपेक्षा सामंजस्य स्थापित करने की प्रवृत्ति हमारी संस्कृति की आधारभूत विशेषता है। इसी के फलस्वरूप जहाँ एक ओर पुरातन परम्पराओं का संरक्षण हुआ है वहीं दूसरी ओर नवीन परम्पराओं का सदैव स्वागत / जब तक यह तत्त्व विद्यमान रहेगा जग में हिन्दुस्तान की संस्कृति सर्वोत्कृष्ट समझी जाती रहेगी और विषम से विषम परिस्थितियों में भी अपना अस्तित्व कायम रखने में सक्षम होगी। इस देश के सांस्कृतिक सरोवर में विभिन्न अंचलों से विविधरूपा पारम्परिक धाराओं के सतत प्रवाहित होते रहने और भारतीय संस्कृति की श्रीवृद्धि की कामना करता हूँ। 1. सूरजप्रकास, भाग 3 (संपादक-सीतारामलालस) में वर्णित कथ्य के आधार पर ये नाम उल्लिखित किये गये हैं।