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अहिंसा की सार्वभौमिकता
प्रो० सागरमल जैन
परिपातु विश्वत:' अर्थात् व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वे परस्पर एक दूसरे की रक्षा करें। ऋग्वेद का यह स्वर यजुर्वेद में और अधिक विकसित हुआ। उसमें कहा गया -
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे ।। - यजुर्वेद ३६.१८
अर्थात् मैं सभी प्राणियों को मित्रवत् देखू और वे भी मुझे मित्रवत् देखें 'सत्वेषु मैत्री' का यजुर्वेद का यह उद्घोष वैदिक चिन्तन में अहिंसक भावना का प्रबल प्रमाण है।
उपनिषद् काल में यह अहिंसक चेतना आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के आधार पर प्रतिष्ठित हुई। छान्दोग्योपनिषद् (३/१७/४) मे कहा गयाअथ यत्तपो दानमार्जवमहिंसा सत्यवचनमिति ता तस्य दक्षिणाः । ___ अर्थात् इस आत्म-यज्ञ की दक्षिणा तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्य वचन है। इसी छान्दोग्योपनिषद् (८.१५.१) में स्पष्टत: यह कहा गया है
...अहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्य: स खल्वेवं .. ब्रह्मलोकमभिसम्पद्यते न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते ।
अर्थात् धर्म तीर्थ की आज्ञा से अन्यत्र प्राणियों की हिंसा नहीं अहिंसा की अवधारणा के विकास का इतिहास मानवीय
अवधारणा के विकास का इतिहास मानवीय करता हुआ यह निश्चय ही ब्रह्मलोक (मोक्ष) को प्राप्त होता है, सभ्यता और संस्कृति के विकास के इतिहास का सहभागी रहा है। उसका पुनरागमन नहीं होता है, पुनरागमन नहीं होता है। जिस देश, समाज एवं संस्कृति में मानवीय गुणों का जितना विकास आत्मोपासना और मोक्षमार्ग के रूप में अहिंसा की यह प्रतिष्ठा हआ, उसी अनुपात में उसमें अहिंसा की अवधारणा का विकास औपनिषदिक ऋषियों की अहिंसक चेतना का सर्वोत्तम प्रमाण है। हुआ है। चाहे कोई भी धर्म, समाज और संस्कृति हो, उसमें व्यक्त वेदों और उपनिषदों के पश्चात् स्मृतियों का क्रम आता है। या अव्यक्त रूप में अहिंसा की अवधारणा अवश्य ही पाई जाती है। स्मतियों में मनस्मति प्राचीन मानी जाती है। उसमें भी ऐसे अनेक मानव समाज में यह अहिंसक चेतना स्वजाति एवं स्वधर्मी से प्रारम्भ संदर्भ हैं, जो अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं। यहाँ हम उसके होकर समग्र मानव समाज, सम्पूर्ण प्राणी जगत और वैश्विक
कुछ सन्दर्भ प्रस्तुत कर रहे हैंपर्यावरण के संरक्षण तक विकसित हुई है। यही कारण है कि विश्व अहिंसयैव भतानां कार्य श्रेयोऽनशासनम । -मनुस्मृति २/१५९ में जो भी प्रमुख धर्म और धर्म प्रवर्तक आये उन्होंने किसी न किसी अर्थात् प्राणियों के प्रति अहिंसक आचरण ही श्रेयस्कर रूप में अहिंसा का संदेश अवश्य दिया है। अहिंसा की अवधारणा
___ अनुशासन है। जीवन के विविध रूपों के प्रति सम्मान की भावना और सह
अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते । --मनुस्मृति ६/६० अस्तित्व की वृत्ति पर खड़ी हुई है।
अर्थात् प्राणियों के प्रति अहिंसा के भाव से व्यक्ति अमृतपद हिन्दूधर्म में अहिंसा
(मोक्ष) को प्राप्त करता है। वैदिक ऋषियों ने अहिंसा के इसी सहयोग और सह-अस्तित्व अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । के पक्ष को मुखरित करते हुए यह उद्घोष किया था -
एतं सामासिकं धर्मं चतुर्वण्येऽब्रवीन्मनुः ।।-मनुस्मृति १०/६३ 'सगच्छध्व, सवदध्व स वा मनासि जानताम्, समाना मत्र, अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, पवित्रता और इन्द्रिय निग्रह- ये समिति समानी' अर्थात् हमारी गति, हमारे वचन, हमारे विचार, मन के द्वारा चारों ही वर्गों के लिये सामान्य धर्म कहे गये हैं। हमारा चिन्तन और हमारी कार्यशैली समरूप हो, सहभागी हो। मात्र हिन्दु परम्परा की दृष्टि से स्मृतियों के पश्चात् रामायण, यही नहीं ऋग्वेद (६.७५.१४) में कहा गया कि 'पुमान पुमांस महाभारत और पुराणों का काल माना जाता है। महाभारत, गीता
शिक्षा-एक यशस्वी दशक
विद्वत खण्ड/२९
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और पुराणों में ऐसे सैकड़ों सन्दर्भ हैं, जो भारतीय मनीषियों की अहिंसक चेतना के महत्वपूर्ण साक्ष्य माने जा सकते हैं
अहिंसा सकलोधर्मो हिंसाधर्मस्तथाहित ।
- महाभारत शां. पर्व अध्याय २७२ / ३० अर्थात् अहिंसा को सम्पूर्ण धर्म और हिंसा को अधर्म कहा गया
न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोस्तथाहित । - महाभारत शा. पर्व २९२ / ३० अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति अहिंसा की भावना से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं है।
अहिंसा परमोधर्मस्तथाहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ।। अहिंसा परमोयज्ञस्तथाहिंसा परं फलम् । अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ।।
- महाभारत अनुशासन पर्व ११६/ २८ २९ अर्थात् अहिंसा सर्वश्रेष्ठधर्म है, वही उत्तम इन्द्रिय निग्रह है । अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ दान है, वही उत्तम तप है । अहिंसा ही सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है और वही परमोपलब्धि है। अहिंसा, परममित्र है, वही परमसुख है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक एवं हिन्दूधर्म में ऐसे अगणित संदर्भ हैं, जो अहिंसा की महत्ता को स्थापित करते हैं। बौद्ध धर्म में अहिंसा
मात्र यही नहीं भारतीय श्रमण परम्परा के प्रतिनिधिरूप जैन एवं बौद्ध धर्म भी अहिंसा के सर्वाधिक हिमायती रहे हैं। बौद्धधर्म के पंचशीलों, जैनधर्म के पंच महाव्रतों और योगदर्शन के पंचयमों में अहिंसा को प्रथम स्थान दिया। धम्मपद में भगवान बुद्ध ने कहा हैन तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सव्वपाणानं अरियोति पवुच्चति ।। धम्मपद धम्मट्ठवग्ग १५ अर्थात् जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह आर्य (सभ्य) नहीं होता, अपितु जो सर्व प्राणियों के प्रति अहिंसक होता है, वही आर्य कहा जाता है।
अहिंसका ये मुनयो निच्चं कायेन संवृता । ते यन्ति अच्चुतं ठानं यत्थ गंत्वा न सोचरे । - धम्मपद कोधवग्ग ५ अर्थात् जो मुनि काया से संवृत होकर सदैव अहिंसक होते हैं, वे उस अच्युत स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करते हैं, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् शोक नहीं रहता। धम्मपद में अन्यत्र कहा गया
विद्वत खण्ड / ३०
निधाय दण्डं भूतेषु तसेसु थावरेसु च । यो न हन्ति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।। अर्थात् जो त्रस एवं स्थावर प्राणियों को पीड़ा नहीं देता है, न उनका घात करता है और न उनकी हिंसा करता है, उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ ।
इस प्रकार पिटक ग्रन्थों में ऐसे सैकड़ों बुद्धवचन हैं, जो बौद्ध धर्म में अहिंसा की अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। जैन धर्म में अहिंसा
जैनधर्म में अहिंसा को धर्म का सार तत्व कहा गया सम्बन्ध में आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, मूलाचार आदि अनेक ग्रन्थों में ऐसे हजारों उल्लेख हैं, जो जैनधर्म की अहिंसा प्रधान जीवन दृष्टि का सम्पोषण करते हैं। इस सम्बन्ध में आगे विस्तार से चर्चा की गई है। यहाँ हम मात्र दो तीन सन्दर्भ देकर अपने इस कथन की पुष्टि करेंगे। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है
इस
धम्मो मंगलमुक्किट्ठे अहिंसा संजमो तवो। - दशवैकालिक १ / १ अर्थात् अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म ही सर्वश्रेष्ठ मंगल है। सूत्रकृतांग में कहा गया है
एवं खुणाणिणो सारं जं ण हिंसति कंचण । अहिंसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया ।। -सूत्रकृतांग ११ / १० ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी जीव की हिंसा नहीं करते । अहिंसा ही धर्म (सिद्धान्त) है- यह जानना चाहिये ।
अन्यत्र कहा गया है
सव्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविडं न मरिज्जिडं । तम्हा पाणवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंतिणं ।। अर्थात् सभी सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है। इसीलिए निर्ग्रन्थ प्राणी वध (हिंसा) का निषेध करते हैं। सिक्खधर्म में अहिंसा
भारतीय मूल के अन्य धर्मों में सिक्खधर्म का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इस धर्म के धर्मग्रन्थ में प्रथम गुरू नानकदेवजी कहते हैंजे रत लग्गे कपडे जामा होए पलीत ।
जे रत पीवे मांसा तिन क्यों निर्मल चित्त ।। अर्थात् यदि रक्त के लग जाने से वस्त्र अपवित्र हो जाता है, तो फिर जो मनुष्य मांस खाते हैं या रक्त पीते हैं, उनका चित्त कैसे निर्मल या पवित्र रहेगा ?
अन्य धर्मों में अहिंसा
न केवल भारतीय मूल के धर्मों में अपितु भारतीयेतर यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्मों में भी अहिंसा के स्वर मुखर हुए हैं। यहूदी
शिक्षा - एक यशस्वी दशक
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________________ खैर! लड़कियों की शिक्षा का प्रतिशत जो चाहे रहा हो, उनकी और अंग्रेजी पर उनकी पकड़ से बेहद प्रभावित हैं। मेलों के स्थिति निश्चित रूप से परिवर्तित है। वे लड़कों के साथ कदम-से- आयोजकों का मानना है कि देश की प्रतिभाओं पर आरक्षण की कदम मिलाकर शिक्षित हो रही हैं और कहीं-कहीं तो उन्हें पीछे पड़ती मार ने उन्हें विदेशों की ओर भागने के लिए मजबूर किया छोड़कर आगे निकल रही हैं। उनमें आत्मबोध का विकास हुआ है। है। वहाँ छात्र-छात्राओं को सब्ज़बाग नहीं दिखाये जाते बल्कि प्रशिक्षित नारी ने व्यावसायिक योग्यताएँ अर्जित की हैं। उसने रोजगारोन्मुख शिक्षा प्रदान की जाती है। वैश्वीकरण के दौर में आर्थिक स्वतन्त्रता का सुख भोगा है। उसमें निर्णय लेने का साहस प्रतिभा-पलायन का रोना बेमानी है। पैदा हुआ है। आत्मरक्षा के लिए जूडो-कराटे के शिक्षण ने कम्प्यूटर के उदय ने शिक्षा के क्षेत्र में हलचल मचा दी है। इस निपुणतापूर्वक आक्रामक होने के तेवर भी पैदा किये हैं। क्रांतिकारी घटना ने संपूर्ण विश्व को एक ग्राम में तब्दील कर दिया सशक्तिकरण के दौर में संतुलित, दूरदर्शी एवं विवेकसम्पन्न बोध ही है। समय की रफ्तार के साथ चलने के लिए 'सरवाइवल ऑफ द नारी-छवि को गरिमा प्रदान करेगा एवं शिक्षा के नये प्रतिमान फास्टेस्ट' की नीति ने चाहे-अनचाहे कम्प्यूटर-शिक्षण को अनिवार्य स्थापित करने में सशक्त भूमिका निभायेगा। बना दिया है। नेटवर्क के प्रवेश ने शिक्षण-प्रशिक्षण की नई प्रणालियाँ शिष्टाचार में परिणत होते भ्रष्टाचार, बाजारवाद और आरक्षण के ईजाद की हैं। यह सच है कि कम्प्यूटर घर बैठे अल्प समय और भँवर में फँसा विद्यार्थी दिग्भ्रमित है। राजनीति में उसका इस्तेमाल अल्प श्रम के माध्यम से असीम ज्ञान उपलब्ध करवा सकता है, किया जा रहा है, उसे भागीदार नहीं बनाया जा रहा। वह डरा-डरा, पर, इसके लिए मशीन के सामने बैठने की मानसिकता, व्यवस्था सहमा-सहमा है, कभी एक दिशा में दौड़ रहा है तो कभी दूसरी और स्थान की अनुकूलता की कवायद से गुजरना पड़ता है। सोयेदिशा में। एक के बाद एक प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं में बैठता, चारों बैठे- किसी भी स्थिति में पुस्तक की उपलब्धता और सुविधा का तरफ हाथ-पाँव मारता अपने लिए स्थान सुरक्षित करना चाहता है। सुख अलग ही होता है। मनुष्य और मनुष्य के बीच कहे-अनकहे दो-तीन तरह के पाठ्यक्रमों (कोर्सेज़) का बोझ लेकर चलने के जो संवाद होता है वह मनुष्य और यंत्र के बीच संभव नहीं। इसी कारण एक के प्रति भी पूरी तरह समर्पित नहीं हो पाता एवं संदर्भ में मैं रमशे दवे का कथन उद्धृत करना चाहूँगी- "स्लेट चाहे परीक्षाफल मनोनुकूल नहीं हो पाता। कोचिंग सेंटर एवं स्कूल- कम्प्यूटर के परदे में बदल जाए, किताबें इन्टरनेट और वेबसाइटों कॉलेज की दुहरी मार झेलते हुए विद्यार्थी की मानसिकता रुग्ण हो का रूप धारण कर लें और शिक्षक चाहे दूरदर्शन या प्रौद्योगिकी जाती है। कभी वह आक्रामक हो उठता है तो कभी दयनीय। कभी संसाधनों के एंकर्स में बदल जाएँ और मशीन, मशीन की पराकाष्ठा वह शिक्षक के अनुपस्थित होने पर कक्षाएँ न होने की शिकायत भले हो जाए, मगर द्रष्टा नहीं हो सकती। इसलिए मनुष्य की भूमिका करता है तो कभी शिक्षक से गुहार लगाता है कि बिना पढ़ाये ही दृष्टि और द्रष्टा की भूमिका है, विचार और ज्ञान की भूमिका है। छोड़ दिया जाये। कभी पाठ्यपुस्तक न लाने पर विद्यार्थियों का ढीठ इसलिए आशा की जा सकती है कि चाहे शिक्षा मनुष्य का भविष्य बने रहना और कभी किसी भी गल्ती पर लज्जित होने के बजाय हो या न हो, मनुष्य शिक्षा का भविष्य अवश्य होगा ("इक्कीसवीं पूरी कक्षा का ठहाके लगाना - यह आम दृश्य है। न जाने विद्यार्थी शती में शिक्षा का भविष्य"-सितम्बर 2001, वागर्थ)।" स्वयं पर हँसते हैं या शिक्षक पर। और कभी किसी शिक्षिका को शिक्षा बहुआयामी प्रक्रिया है। इसमें ज्ञान के साथ श्रम एवं देखकर 'लाल छड़ी मैदान खड़ी.....', 'ओ मनचली कहाँ शारीरिक स्वास्थ्य के साथ नैतिक उन्नयन का समन्वय आवश्यक है। चली.....' जैसे फिल्मी गीतों की कड़ियों के माध्यम से फिकरे जानकारी या सूचनात्मक ज्ञान को ही शिक्षा का पर्याय न समझकर, कसते हुए वे अपने दुस्साहसी व्यक्तित्व का आतंक जमाते देखे जीवन के लिए, जीवन के माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये। जाते हैं। उच्च शिक्षा के बावजूद भी बेरोजगारी सुरसा की तरह मुँह क्या ये संदर्भ फिर गाँधी की ओर मुड़ने का संकेत नहीं देते? बाये खड़ी रहती है और बहुत बार आतंकवाद की राह पर ले वृन्दावन गार्डेन्स चलती है। किसी अखबार में एक खबर छपी थी कि भारतीय छात्रों 98, क्रिस्टोफर रोड, कोलकाता-७०० 046 को लुभाने के लिये ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों ने हाल ही में दिल्ली में मेले आयोजित किये हैं। इन मेलों का उद्देश्य है कि ब्रिटेन की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा और उसकी विविधता को भारतीय छात्रा के सामने रखना। ब्रिटेन के विश्वविद्यालय भारतीय छात्रों के मेहनती स्वभाव शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/३५