Book Title: Adhunik yug me Jain Patrakarita evam uska Yogdan Author(s): Prakash Manav Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/210241/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश मानव है, सुविधा सदा बचाता आया, मैं बलिपथ का अंगारा हूं, जीवन ज्वाला जलाता आया। पत्रकारिता को लोकतंत्र का मुखर प्रहरी बनाने में अहिंसा, सत्य एवं समानता को लेकर एक विचारधारा प्रस्फुटित हुई, इस विचारधारा को जैन सिद्धांतों के अनुगामी विभिन्न साधु भगवंतों एवं जैन श्रावकों ने पल्लवित किया और यही विचार धारा आगे चलकर जैन पत्रकारिता के रूप में विख्यात हुई। जैन धर्म की अहिंसा के आधार पर पत्रकारिता के सिद्धांतों को जनसामान्य के सामने लाने का प्रयास समय-समय पर विभिन्न विद्वानों ने किया इसमें मुनि कांतिसागर से लेकर अगरचंद नाहटा एवं बाबू लाभचंद छजलानी से लेकर राजेन्द्र माथुर तक के विद्वान पत्रकारों का अविस्मरणीय योगदान है। जैन धर्म प्राणी मात्र के कल्याण की कामना करता है। जैन पत्रकारिता का यही उद्देश्य है कि जहां तक हो सके पत्रकारिता के माध्यम से अहिंसा के विचारों को प्रतिपादित करना ताकि कम से कम हिंसा हो। 'सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामयः' की सुन्दर भावना इस सिद्धांत में प्रकट होती है। कटुता का कलह संसार में विषमता का वातावरण घोलता है इसको हिंसा से नहीं मिटाया जा सकता। अहिंसा के द्वारा ही एक मात्र शांति स्थापित की जा सकती है और यही अहिंसा प्राणी-मात्र पर दया की एवं उसका योगदान भावना से अभिभूत हो उसे निर्भरता का पाठ पढ़ाती है। भारत में २९जनवरी १७८० को हिक्की गजट एवं द महात्मा गांधी ने जीवदया की भावना को जैन धर्म के घेरे बंगाल एसियाटिक गजट के प्रकाशन के साथ ही पत्रकारिता यग से निकालकर प्राणीमात्र के धर्म से जोड़ दिया। सत्याग्रह में का सूत्रपात हाआ। १७८५ में मद्रास कोरियर, १७९५ में हमेशा उन्होंने जीवदया पर जोर दिया। यही कारण था कि हजारों मद्रास गजट एवं १८१८ में बंगाल गजट प्रारंभ हआ। ३०मई क्रांतिकारी आंदोलन होने के बाद भी देश को आजादी नहीं मिल १८२६ को उदन्त मार्तण्ड अखबार ने पत्रकारिता के क्षेत्र में सकी, वहीं सत्याग्रह के प्रयोग से आजादी का पथ प्रशस्त हुआ। विशेष स्थान तय किया। १८३८ में टाईम्स ऑफ इण्डिया के जैन पत्रकारिता शाकाहार की भावना को भी उद्घोषित पश्चात् पत्रकारिता के क्षेत्र में एक लम्बी श्रृंखला स्थापित हुई करती है। विभिन्न वैज्ञानिक सिद्धांतों से हजारों वर्ष पूर्व जैन और इसी श्रृंखला ने देश की आजादी में अपना महत्वपूर्ण तीर्थंकरों ने शाकाहार की महिमा जैन ग्रंथों में लिखी।। योगदान दिया तभी तो अकबर इलाहाबादी ने कहा था 'खिंचो जैन पत्रकारिता में शाकाहार की भावना को विशेष बल दिया न कमानो को, न तलवार निकालो जब तोप मुकाबिल हो तो है। जैन विश्वभारती विश्व विद्यालय लाडनू एवं कोलकाता अखबार निकालो, अर्थात बंदूक की गोलियों से दो चार आदमी विश्वविद्यालय में जैन दर्शन पर आधारित पत्रकारिता में कहा है कि मरते हैं किंतु अखबार की एक खबर से हजारों लाखों की शाकाहार का सम्बंध व्यक्ति के विचार से जुड़ा है। पत्रकारिता में भावनाएं आहत होती हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में ज्यों-ज्यों बाढ़ शुचिता को बनाए रखने के लिए शाकाहार अत्यंत आवश्यक है। आती गई त्यों-त्यों पत्रकारिता लोकतंत्र के सजग प्रहरी के रूप अर्थात 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन' की भावना का में मखर होती गयी। देश के अभ्युत्थान के लिए निर्धनता, प्रभाव पत्रकारिता में अवश्य पडता है। शाकाहार व्यक्ति को भूखमरी और विषमता से संघर्ष करना ही पत्रकारिता का धर्म, आत्मिक-शांति के साथ सात्विक विचार प्रदान करता है वहीं कर्म और मर्म है। समाचार पत्र संसार की बड़ी ताकत है, उन साथ ही पत्रकार शाकाहार के माध्यम से विश्वशांति में अपना पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी लोकतंत्र के निर्वहन की है, इसी अनठा योगदान देता है। .. कारण इसे प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में माना जाता है। आज की पत्रकारिता ग्लेमर एवं चटपटी खबरों से भरी पत्रकारिता के संदर्भ में कहा जाता है कि सूली का पथ ही सीखा हा साखा रहती है। अधिकांश अखबार हिंसात्मक समाचारों को प्रमुखता , ० अष्टदशी / 1420 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देते हैं, वहीं जैन पत्रकारिता हिंसा को नकारती है, अहिंसा के 'सा विद्या या विमुक्तये' विद्या वही है जो मुक्ति प्रदान कर सिद्धांतों को बढ़ावा देती है। कहा जाता है कि अखबार में छपे सके अर्थात विद्या से ही अविद्या का नाश होता है। वैदिक हुए विचार जन-जन के विचार होते हैं अत: पत्रकारिता में अहिंसा ऋषियों ने 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का उद्घोष कर दर्शाया कि से ओतप्रोत विचारों को ही स्थान मिलना चाहिए ताकि समाज का शिक्षा ही मनुष्य को जीवन के अज्ञानरूपी अंधकार से बाहर वातावरण समरसता से युक्त होकर जनकल्याणकारी बने। निकाल सकती है। शिक्षा की प्रासंगिकता भूत-भविष्य और बदलते हुए परिदृश्य में पत्रकारिता ने एक व्यावसायिक वर्तमान में बराबर बनी रहती है। जैन पत्रकारिता ने शिक्षा की स्थान ले लिया। आज पत्रकारिता एक मिशन न होकर व्यवसाय प्रबल विधा को अपने में सम्मिलित कर ज्ञान का एक अभिनव बन गया। ऐसे में पत्रकार एवं सम्पादक के मन में भी परिग्रह अध्याय जोड़ा इससे जहा जैन पत्रकारिता को चार चांद लगे वहीं की वृत्ति पैदा हुई। जबकि पत्रकारिता में अपरिग्रह को विशेष शिक्षा के माध्यम से जैन पत्रकारिता एक क्रांतिकारी कदम उठा महत्व मिलना चाहिए। पत्रकार एवं साधु समान होते हैं। जैन सकी। पत्रकारिता अपरिग्रह की भावना पर विशेष बल देती है ताकि जैन पत्रकारिता में चरित्र को सर्वाधिक बल दिया गया है। समाज का दर्पण उससे प्रभावित न हो। परिग्रह की विशेषता होती एक चरित्रवान व्यक्ति ही राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। समाज है कि उससे मोह उत्पन्न होता है एवं जहां से पत्रकारों को कुछ को आधार प्रदान कर सकता है। वर्तमान में चारित्रिक पतन के प्राप्त हुआ वे उसका विशेष ध्यान करने लगते हैं ऐसे में निष्पक्ष दौर में चरित्र बल के द्वारा समाज का पुन:-पुन: उद्धार जैन पत्रकारिता संभव नहीं है। अपरिग्रहवृत्ति ही निष्पक्ष पत्रकारिता पत्रकारिता के माध्यम से ही संभव दिखाई देता है। का दायित्व निर्वहन कर सकती है। धन गया कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया थोड़ा गया, चरित्र आजादी के पूर्व के अखबारों के सम्पादक एवं पत्रकार गया सब कुछ गया, वाली आस्कर वाइल्ड की उक्त सूक्ति अपरिग्रही होकर अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे, सार्थक सिद्ध होती है। चरित्र समाज का मेरुदण्ड है इसका सुदृढ़ उन्हें अंग्रेज शासकों का प्रलोभन नहीं डिगा सका। अपरिग्रह ही होना अत्यन्त आवश्यक है। जैन पत्रकारिता में विभिन्न मनीषियों आज के युग की प्रथम आवश्यकता है। जैन पत्रकारिता ने जैन ने इसका समावेश कर जैन पत्रकारिता को एक आदर्श रूप सिद्धांतों के महत्वपूर्ण सूत्र अपरिग्रह को अपनाकर एक विशेष दिया। आयाम तय किए जिसके आधार पर आगामी पीढ़ियां एक स्वस्थ सफलता वहीं मिलती है जहां सकारात्मक सोच हो। पत्रकारिता को बढ़ावा दे सकेगी। नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति प्राय: जीवन में असफल होते हैं। जैन पत्रकारिता में 'जियो और जीने दो' की संस्कृति को जैन पत्रकारिता ने हमेशा सकारात्मक सोच को बढ़ावा दिया विशेष महत्व दिया गया है। आज के युग में विषमता का इसमें नकारात्मक विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है। निराश वातावरण तेजी से बढ़ता जा रहा है। परस्पर ईर्ष्या से पूरी दुनिया एवं हताश व्यक्ति जीवन में रोने के अतिरिक्त और कोई कार्य त्रस्त है। पड़ोसी-पड़ोसी को सुखी नहीं देखना चाहता, पाश्चात्य नहीं कर सकते। सभ्यता के वशीभूत होकर टी.वी. संस्कृति ने मानव मात्र को पाश्चात्य कवि शेली की उक्त पंक्तियां इस सिद्धांत पर बहुत दूर कर दिया है। आज हर व्यक्ति चाहता है कि 'घर का सार्थक सिद्ध होती है- आज पतझड़ है तो कल बसंत जरूर टी.वी. चले पड़ोसी की जान जले' / उक्त भावना सम्पूर्ण विश्व आएगा। सकारात्मक सोच आशावाद पर टिकी हुई है। श्रेष्ठि को नफरत की आग में धकेल देगी। ऐसी स्थिति में जियो और कवि जयशंकर प्रसाद ने ठीक ही कहा था आशा पर ही आकाश जीने दो की संस्कृति ही मानवमात्र का कल्याण कर सकती है। टिका है, अर्थात् आशावाद जैन पत्रकारिता का महत्वपूर्ण सूत्र है जिसमें हम सम्पूर्ण विश्व के मंगल की कामना करें, हमारा और इसी आशावाद से ही सकारात्मक सोच का विकास होता विकास उसके साथ ही सभी प्राणियों का भी विकास हो। उक्त है। यही सकारात्मक चिंतन मनुष्य को मनुष्य से जोड़ते हुए विश्व भावना ही जैन पत्रकारिता को पत्रकारिता के अन्य विधाओं से कल्याण की कामना करता है। पृथक कर एक विशिष्ट स्थान पर पहुंचाती है। प्रधान सम्पादक, नई विधा, नीमच जैन पत्रकारिता में शिक्षा को विशेष महत्व दिया है। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति स्वयं की एवं समाज की उन्नति कर सकता है। समाज की उन्नति से ही राष्ट्र का कल्याण संभव है। यही कारण है कि जैन पत्रकारिता में जैन गुरूकुलों, शिक्षा संस्थानों की स्थापना पर जोर दिया गया। 0 अष्टदशी / 1430