Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
हीणायार अगीयत्थ वयणपसंगं खु णो भद्दो ।
- वही, २/१०१-१०२ . वही, श्रावक-धर्माधिकार, २,३ ५१. विस्तार के लिए देखें सम्बोधप्रकरण गुरुस्वरूपाधिकार । इसमें ४८. वही, २/७७-७८
३७५ गाथाओं में सुगुरु का स्वरूप वर्णित है । ४९. बाला वंयति एवं वेसो तित्थकराण एसोवि ।
५२. नो अप्पण पराया गुरुणो कइया वि हुंति सड्ढाणं । नमणिज्जो धिद्धि अहो सिरसूलं कस्स पुक्करिमों ।।
जिण वयण रयणनिहिणो सव्वे ते वन्निया गुरुणो । - वही, २/७६
-वही, गुरुस्वरूपाधिकर: ३ ५०. वरं वाही वरं मच्चू वरं दारिद्दसंगमो ।
५३. लोकतत्त्वनिर्णय, ३२-३३ वरं अरण्णेवासो य मा कुलीलाण संगमो ।
५४. योगदृष्टिसमुच्चय, १२९ । हीणायारो वि वरं मा कुसीलएण संगमो भदं ।
५५. जिनरत्नकोश, हरिदामोदर वेलंकर, भंडारकर आरिएण्टल रिसर्च जम्हा हीणो अप्प नासइ सव्वं हु सील निहिं ।।
इन्स्टीच्यूट, पूना १९४४, पृ० १४४
आचार्य हेमचन्द्र : एक युगपुरुष
आचार्य हेमचन्द्र भारतीय मनीषारूपी आकाश के एक में धार्मिक समन्वयशीलता के बीज अधिक विकसित हो सके। दूसरे देदीप्यमान नक्षत्र हैं। विद्योपासक श्वेताम्बर जैन आचार्यों में बहुविध और शब्दों में धर्मसमन्वय की जीवनदृष्टि तो उन्हें अपने पारिवारिक परिवेश विपुल साहित्यस्त्रष्टा के रूप में आचार्य हरिभद्र के बाद यदि कोई महत्त्वपूर्ण से ही मिली थी। नाम है तो वह आचार्य हेमचन्द्र का ही है। जिस प्रकार आचार्य हरिभद्र
आचार्य देवचन्द्र जो कि आचार्य हेमचन्द्र के दीक्षागरु थे, स्वयं ने विविध भाषाओं में जैन विद्या की विविध विद्याओं पर विपुल साहित्य भी प्रभावशाली आचार्य थे। उन्होंने बालक चंगदेव (हेमचन्द्र के जन्म का का सृजन किया था, उसी प्रकार आचार्य हेमचन्द्र ने विविध विद्याओं पर नाम) की प्रतिभा को समझ लिया था, इसलिये उन्होंने उनकी माता से विपुल साहित्य का सृजन किया है। आचार्य हेमचन्द्र गुजरात की विद्वत् उन्हें बाल्यकाल में ही प्राप्त कर लिया। आचार्य हेमचन्द्र को उनकी अल्प परम्परा के प्रतिभाशाली और प्रभावशाली जैन आचार्य हैं। उनके साहित्य बाल्यावस्था में ही गुरु द्वारा दीक्षा प्रदान कर दी गई और विधिवत रूप में जो बहुविधता है वह उनके व्यक्तित्व एवं उनके ज्ञान की बहुविधता से उन्हें धर्म, दर्शन और साहित्य का अध्ययन करवाया गया। वस्तुतः की परिचायिका है। काव्य, छन्द, व्याकरण, कोश, कथा, दर्शन, हेमचन्द्र की प्रतिभा और देवचन्द्र के प्रयत्न ने बालक के व्यक्तित्व को अध्यात्म और योग-साधना आदि सभी पक्षों को आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी एक महनीयता प्रदान की। हेमचन्द्र का व्यक्तित्व भी उनके साहित्य की सृजनधर्मिता में समेट लिया है। धर्मसापेक्ष और धर्मनिरपेक्ष दोनों ही प्रकार भाँति बहु-आयामी था। वे कुशल राजनीतिज्ञ, महान् धर्मप्रभावक, लोकके साहित्य के सृजन में उनके व्यक्तित्व की समानता का अन्य कोई नहीं कल्याणकर्ता एवं अप्रतिम विद्वान् सभी कुछ थे। उनके महान् व्यक्तित्व मिलता है। जिस मोढ़वणिक जाति ने सम्प्रति युग में गाँधी जैसे महान् के सभी पक्षों को उजागर कर पाना तो यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी मैं व्यक्ति को जन्म दिया उसी मोढ़वणिक जाति ने आचार्य हेमचन्द्र को भी कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न अवश्य करूँगा। जन्म दिया था।
हेमचन्द्र की धार्मिक सहिष्णुता आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात के धन्धुका नगर में श्रेष्ठि
यह सत्य है कि आचार्य हेमचन्द्र की जैनधर्म के प्रति अनन्य चाचिग तथा माता पाहिणी की कुक्षि से ई० सन् १०८८ में हुआ था। निष्ठा थी किन्तु साथ ही वे अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु भी थे। उन्हें यह जो सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर यह माना जाता है कि हेमचन्द्र गुण अपने परिवार से ही विरासत में मिला था। जैसा कि सामान्य विश्वास के पिता शैव और माता जैनधर्म की अनुयायी थीं। आज भी गुजरात है, हेमचन्द्र की माता जैन और पिता शैव थे। एक ही परिवार में विभिन्न की इस मोढ़वणिक जाति में वैष्णव और जैन दोनों धर्मों के अनुयायी धर्मों के अनुयायियों की उपस्थिति उस परिवार की सहिष्णुवृत्ति की ही पाए जाते हैं। अत: हेमचन्द्र के पिता चाचिग के शैवधर्मावलम्बी और परिचायक होती है। आचार्य की इस कुलगत सहिष्णुवृति को जैनधर्म के माता पाहिणी के जैनधर्मावलम्बी होने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि अनेकान्तवाद की उदार दृष्टि से और अधिक बल मिला। यद्यपि यह सत्य प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में ऐसे अनेक परिवार रहे हैं जिनके सदस्य है कि अन्य जैन आचार्यों के समान हेमचन्द्र ने भी 'अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका' भिन्न-भिन्न धर्मों के अनुयायी होते थे। सम्भवतः पिता के शैवधर्मावलम्बी नामक समीक्षात्मक ग्रन्थ लिखा और उसमें अन्य दर्शनों की मान्यताओं और माता के जैनधर्मावलम्बी होने के कारण ही हेमचन्द्र के जीवन की समीक्षा भी की। किन्तु इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिये कि
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेमचन्द्र में धार्मिक उदारता नहीं थी । वस्तुतः हेमचन्द्र जिस युग में हुए थे, वह युग दार्शनिक वाद-विवाद का युग था । अतः हेमचन्द्र की यह विवशता थी कि वे अपनी परम्परा की रक्षा के लिये अन्य दर्शनों की मान्यताओं का तार्किक समीक्षा कर परपक्ष का खण्डन और स्वपक्ष का मण्डन करें। किन्तु यदि हेमचन्द्र की 'महादेवस्तोत्र' आदि रचनाओं एवं उनके व्यावहारिक जीवन को देखें तो हमें यह मानना होगा कि उनके जीवन में और व्यवहार में धार्मिक उदारता विद्यमान थी । कुमारपाल के पूर्व वे जयसिंह सिद्धराज के सम्पर्क में थे किन्तु उनके जीवनवृत्त से हमें ऐसा कोई संकेत सूत्र नहीं मिलता कि उन्होंने कभी भी सिद्धराज को जैनधर्म का अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया हो। मात्र यही नहीं, जयसिंह सिद्धराज के दरबार में रहते हुए भी उन्होंने कभी किसी अन्य परम्परा के विद्वान् की उपेक्षा या अवमानना की हो, ऐसा भी कोई उल्लेख नहीं मिलता । २ यद्यपि कथानकों में जयसिंह सिद्धराज के दरबार में उनके दिगम्बर जैन आचार्य के साथ हुए वाद-विवाद का उल्लेख अवश्य है। परन्तु उसमें भी मुख्य 'वादी के रूप में हेमचन्द्र न होकर बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि ही थे। यह भी सत्य है कि हेमचन्द्र से प्रभावित होकर कुमारपाल ने जैनधर्मानुयायी बनकर जैनधर्म की प्रर्याप्त प्रभावना की किन्तु कुमारपाल के धर्म-परिवर्तन या उनको जैन बनाने में हेमचन्द्र का कितना हाथ था, यह विचारणीय है। वस्तुतः हेमचन्द्र के द्वारा न केवल कुमारपाल की जीव रक्षा हुई थी अपितु उसे राज्य भी मिला था। यह तो आचार्य के प्रति उसकी अत्यधिक निष्ठा ही थी जिसने उसे जैनधर्म की ओर आकर्षित किया। यह भी सत्य है कि हेमचन्द्र ने उसके माध्यम से अहिंसा और नैतिक मूल्यों का प्रसार करवाया और जैनधर्म की प्रभावना भी करवाई किन्तु कभी भी उन्होंने राजा में धार्मिक कट्टरता का बीज नहीं बोया । कुमारपाल सम्पूर्ण जीवन में शैवों के प्रति भी उतना ही उदार रहा, जितना वह जैनों के प्रति था। यदि हेमचन्द्र चाहते तो उसे शैवधर्म से पूर्णतः विमुख कर सकते थे, पर उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया बल्कि उसे सदैव ही शैवधर्मानुयायियों के साथ उदार दृष्टिकोण रखने का आदेश दिया। यदि हेमचन्द्र में धार्मिक संकीर्णता होती तो वे कुमारपाल द्वारा सोमनाथ मन्दिर का जीर्णोद्धार करा कर उसकी प्रतिष्ठा में स्वयं भाग क्यों लेते? अथवा स्वयं महादेवस्तोत्र की रचना कर राजा के साथ स्वयं भी महादेव की स्तुति कैसे कर सकते थे ? उनके द्वारा रचित महादेवस्तोत्र इस बात का प्रमाण है कि वे धार्मिक उदारता के समर्थक थे। स्तोत्र में उन्होंने शिव, महेश्वर, महादेव आदि शब्दों की सुन्दर और सम्प्रदाय निरपेक्ष व्याख्या करते हुए अन्त में यही कहा है कि संसार रूपी बीज के अंकुरों को उत्पन्न करने वाले राग और द्वेष जिसके समाप्त हो गए हों उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ, चाहे वे ब्रह्मा हों, विष्णु हों, महादेव हों अथवा जिन हों । ३
धार्मिक सहिष्णुता का अर्थ मिथ्या विश्वासों का पोषण नहीं यद्यपि हेमचन्द्र धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक हैं, फिर भी वे इस सन्दर्भ में सतर्क हैं कि धर्म के नाम पर मिथ्याधारणाओं और
६८९
अन्धविश्वासों का पोषण न हो। इस सन्दर्भ में वे स्पष्ट रूप से कहते हैं। कि जिस धर्म में देव या उपास्य रागद्वेष से युक्त हों, धर्मगुरू अब्रह्मचारी हों और धर्म में करुणा व दया के भावों का अभाव हो, ऐसा धर्म वस्तुतः अधर्म ही है। उपास्य के सम्बन्ध में हेमचन्द्र को नामों का कोई आग्रह नहीं, चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन, किन्तु उपास्य होने के लिये वे एक शर्त अवश्य रख देते हैं, वह यह कि उसे राग-द्वेष से मुक्त होना चाहिये। वे स्वयं कहते हैं कि
·
भवबीजांकुरजननरागद्याक्षयमुपागतास्य ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो वा जिनो वा नमस्तस्मै । । ४
इसी प्रकार गुरू के सन्दर्भ में भी उनका कहना है कि उसे ब्रह्मचारी या चरित्रवान होना चाहिये। वे लिखते हैं कि
सर्वाभिलाषिणः सर्व भो जिनः सपरिग्रहः । अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशाः गुरवो न तु । । ५
अर्थात् जो आकांक्षा से युक्त हो, भोज्याभोज्य के विवेक से रहित हो, परिग्रह सहित और अब्रह्मचारी तथा मिथ्या उपदेश देने वाला हो, वह गुरु नहीं हो सकता। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जो हिंसा और परिग्रह में आकण्ठ डूबा हो, वह दूसरों को कैसे तार सकता है। जो स्वयं दीन हो वह दूसरों को धनाढ्य कैसे बना सकता है । ६ अर्थात् चरित्रवान, निष्परिग्रही और ब्रह्मचारी व्यक्ति ही गुरु योग्य हो सकता है। धर्म के स्वरूप
के
सम्बन्ध में भी हेमचन्द्र का दृष्टिकोण स्पष्ट है। वे स्पष्ट रूप से यह मानते हैं कि जिस साधनामार्ग में दया एवं करुणा का अभाव हो, जो विषयाकांक्षाओं की पूर्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानता हो, जिसमें संयम का अभाव हो, वह धर्म नहीं हो सकता। हिंसादि से कलुषित धर्म, धर्म न होकर संसार - परिभ्रमण का कारण ही होता है । ७
इस प्रकार हेमचन्द्र धार्मिक सहिष्णुता को स्वीकार करते हुए भी इतना अवश्य मानते हैं कि धर्म के नाम पर अधर्म का पोषण नहीं होना चाहिये। उनकी दृष्टि में धर्म का अर्थ कोई विशिष्ट कर्मकाण्ड न होकर करुणा और लोकमंगल से युक्त सदाचार का सामान्य आदर्श ही है । वे स्पष्टतः कहते हैं कि संयम, शील, और दया से रहित धर्म मनुष्य के बौद्धिक दिवालियेपन का ही सूचक है वे आत्म-पीड़ा के साथ उद्घोष करते हैं कि यह बड़े खेद की बात है कि जिसके मूल में क्षमा, शील और दया है, ऐसे कल्याणकारी धर्म को छोड़कर मन्दबुद्धि लोग हिंसा को भी धर्म मानते है। "
इस प्रकार हेमचन्द्र धार्मिक उदारता के कट्टर समर्थक होते हुए भी धर्म के नाम पर आयी हुई विकृतियों और चरित्रहीनता की समीक्षा करते हैं।
सर्वधर्मसमभाव क्यों?
हेमचन्द्र की दृष्टि में सर्वधर्मसमभाव की आवश्यकता क्यों है, इसका निर्देश पं० बेचरदासजी ने अपने 'हेमचन्द्राचार्य'" नामक ग्रन्थ में किया है। जयसिंह सिद्धराज की सभा में हेमचन्द्र ने सर्वधर्मसमभाव के विषय में जो विचार प्रस्तुत किये थे, वे पं०
.
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
६९०
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
बेचरदासजी के शब्दों में निम्नलिखित हैं
गुजरात और उसके सीमावर्ती प्रदेश में एक विशेष वातावरण निर्मित कर "हेमचन्द्र कहते हैं कि प्रजा में यदि व्यापक देश-प्रेम और दिया। उस समय के गुजरात की स्थिति का कुछ चित्रण हमें हेमचन्द्र शूरवीरता हो किन्तु यदि धार्मिक उदारता न हो तो देश की जनता खतरे के महावीरचरित में मिलता है। उसमें कहा गया है कि “राजा के हिंसा में ही होगी, यह निश्चित ही समझना चाहिये। धार्मिक उदारता के अभाव और शिकारनिषेध का प्रभाव यहाँ तक हुआ कि असंस्कारी कुलों में जन्म में प्रेम संकुचित हो जाता है और शूरवीरता एक उन्मत्तता का रूप ले लेने वाले व्यक्तियों ने भी खटमल और जूं जैसे सूक्ष्म जीवों की हिंसा लेती है। ऐसे उन्मत्त लोग खून की नदियों को बहाने में भी नहीं चूकते बन्द कर दी। शिकार बन्द हो जाने से जीव-जन्तु जंगलों में उसी निर्भयता
और देश उजाड़ हो जाता है। सोमनाथ के पवित्र देवालय का नष्ट होना से घूमने लगे, जैसे गौशाला में गायें। राज्य में मदिरापान इस प्रकार बन्द इसका ज्वलन्त प्रमाण है। दक्षिण में धर्म के नाम पर जो संघर्ष हुआ उनमें हो गया कि कुम्भारों को मद्यभाण्ड बनाना भी बन्द करना पड़ा। मद्यपान हजारों लोगों की जाने गयीं। यह हवा अब गुजरात की ओर बहने लगी के कारण जो लोग अत्यन्त दरिद्र हो गए थे, वे इसका त्याग कर फिर है किन्तु हमें विचारना चाहिये कि यदि गुजरात में इस धर्मान्धता का प्रवेश से धनी हो गए। सम्पूर्ण राज्य में द्यूतक्रीड़ा का नामोनिशान ही समाप्त हो गया तो हमारी जनता और राज्य को विनष्ट होने में कोई समय नहीं हो गया।"१° इस प्रकार हेमचन्द्र ने अपने प्रभाव का उपयोग कर गुजरात लगेगा। आगे वे पुन: कहते हैं कि जिस प्रकार गुजरात के महाराज्य के में व्यसनमुक्त संस्कारी जीवन की जो क्रान्ति की थी, उसके तत्त्व आज विभिन्न देश अपनी विभिन्न भाषाओं, वेशभूषाओं और व्यवसायों को करते तक गुजरात के जनजीवन में किसी सीमा तक सुरक्षित हैं। वस्तुत: यह हए सभी महाराजा सिद्धराज की आज्ञा के वशीभूत होकर कार्य करते हैं, हेमचन्द्र के व्यक्तित्व की महानता ही थी जिसके परिणामस्वरूप एक उसी प्रकार चाहे हमारे धार्मिक क्रियाकलाप भिन्न हों फिर भी उनमें विवेक- सम्पूर्ण राज्य में संस्कार क्रान्ति हो सकी। दृष्टि रखकर सभी को एक परमात्मा की आज्ञा के अनुकूल रहना चाहिये। इसी में देश और प्रजा का कल्याण है। यदि हम सहिष्णुवृत्ति से न रहकर, स्त्रियों और विधवाओं के संरक्षक हेमचन्द्र धर्म के नाम पर यह विवाद करेंगे कि यह धर्म झूठा है और यह धर्म यद्यपि हेमचन्द्र ने अपने 'योगशास्त्र' में पूर्ववर्ती जैनाचार्यों के सच्चा है, यह धर्म नया है यह धर्म पुराना है, तो हम सबका ही नाश समान ही ब्रह्मचर्य के साधक को अपनी साधना में स्थिर रखने के लिये होगा। आज हम जिस धर्म का आचरण कर रहे हैं, वह कोई शुद्ध धर्म नारी-निन्दा की है। वे कहते हैं कि स्त्रियों में स्वभाव से ही चंचलता, न होकर शद्ध धर्म को प्राप्त करने के लिये योग्यताभेद के आधार पर निर्दयता और कुशीलता के दोष होते हैं। एक बार समुद्र की थाह पायी बनाए गए भिन्न-भिन्न साम्प्रदायिक बंधारण मात्र हैं। हमें यह ध्यान रहे जा सकती है किन्तु स्वभाव से कुटिल, दुश्चरित्र कामिनियों के स्वभाव कि शस्त्रों के आधार पर लड़ा गया युद्ध तो कभी समाप्त हो जाता है, की थाह पाना कठिन है।११ किन्तु इसके आधार पर यह मान लेना कि परन्तु शास्त्रों के आधार पर होने वाले संघर्ष कभी समाप्त नही होते, अत: हेमचन्द्र स्त्री जाति के मात्र आलोचक थे; गलत होगा। हेमचन्द्र ने नारी धर्म के नाम पर अहिंसा आदि पाँच व्रतों का पालन हो, सन्तों का समागम जाति की प्रतिष्ठा और कल्याण के लिये जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया उसके हो, ब्राह्मण, श्रमण और माता-पिता की सेवा हो, यदि जीवन में हम कारण वे युगों तक याद किये जायेंगे। उन्होंने कुमारपाल को उपदेश देकर इतना ही पा सकें तो हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।"
विधवा और निस्सन्तान स्त्रितयों की सम्पत्ति को राज्यसात किये जाने की हेमचन्द्र की चर्चा में धार्मिक उदारता और अनुदारता के स्वरूप क्रूर-प्रथा को सम्पूर्ण राज्य में सदैव के लिये बन्द करवाया और इस माध्यम और उनके परिणामों का जो महत्त्वपूर्ण उल्लेख है वह आज भी उतना से न केवल नारी-जाति को सम्पत्ति का अधिकार दिलवाया, १२ अपितु ही प्रासंगिक है जितना कि कभी हेमचन्द्र के समय में रहा होगा। उनकी सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा भी की और अनेकानेक विधवाओं को
संकटमय जीवन से उबार दिया। अत: हम कह सकते हैं कि हेमचन्द्र हेमचन्द्र और गुजरात की सदाचार-क्रान्ति
ने नारी को उसकी खोई हई प्रतिष्ठा प्रदान की। हेमचन्द्र ने सिद्धराज और कुमारपाल को अपने प्रभाव में लेकर गुजरात में जो महान् सदाचार क्रान्ति की, वह उनके जीवन की एक प्रजारक्षक हेमचन्द्र महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है और जिससे आज तक भी गुजरात का जनजीवन हेमचन्द्र की दृष्टि में राजा का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य अपनी प्रभावित है। हेमचन्द्र ने अपने प्रभाव का उपयोग जनसाधारण को अहिंसा प्रजा के सुख-दुःख का ध्यान रखना है। हेमचन्द्र राजगुरु होकर
और सदाचार की ओर प्रेरित करने के लिए किया। कुमारपाल को प्रभावित जनसाधारण के निकट सम्पर्क में थे। एक समय वे अपने किसी अति कर उन्होंने इस बात का विशेष प्रयत्न किया कि जनसाधारण में से निर्धन भक्त के यहाँ भिक्षार्थ गए और वहाँ से सूखी रोटी और मोटा खरदुरा हिंसकवृत्ति और कुसंस्कार समाप्त हों। उन्होंने शिकार और पशु बलि के कपड़ा भिक्षा में प्राप्त किया। वही मोटी रोटी खाकर और मोटा वस्त्र धारण निषेध के साथ-साथ मद्यपान निषेध, द्यूतक्रीड़ा-निषेध के आदेश भी राजा कर वे राजदरबार में पहुँचे। कुमारपाल ने जब उन्हें अन्यमनस्क, मोटा से पारित कराये। आचार्य ने न केवल इस सम्बन्ध में राज्यादेश निकलवाए, कपड़ा पहने दरबार में देखा, तो जिज्ञासा प्रकट की, कि मुझसे क्या कोई अपितु जन-जन को राज्यादेशों के पालन हेतु प्रेरित भी किया और सम्पूर्ण गलती हो गई है? आचार्य हेमचन्द्र ने कहा-"हम तो मुनि हैं, हमारे लिये
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________ आचार्य हेमचन्द्र : एक युगपुरुष 691 तो सखी रोटी और मोटा कपड़ा ही उचित है। किन्तु जिस राजा के राज्य करने वाला और अपने बलाबल का विचार कर कार्य करने वाला, 24. में प्रजा को इतना कष्टमय जीवन बिताना होता है, वह राजा अपने प्रजा- व्रत, नियम में स्थिर, ज्ञानी एवं वृद्ध जनों का पूजक, 25. अपने आश्रितों धर्म का पालक तो नहीं कहा जा सकता। ऐसा राजा नरकेसरी होने के का पालन-पोषण करने वाला, 26. दीर्घदर्शी, 27. विशेषज्ञ, 28. स्थान पर नरकेश्वरी ही होता है। एक ओर अपार स्वर्ण-राशि और दूसरी कृतज्ञ, 29. लोकप्रिय, 30. लज्जावान, 31. दयालु, 32. ओर तन ढकने का कपड़ा और खाने के लिये सूखी रोटी का अभाव, शान्तस्वभावी, 33. परोपकार करने में तत्पर, 34. कामक्रोधादि अन्तरंग यह राजा के लिये उचित नहीं है।" कहा जाता है कि हेमचन्द्र के इस शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला और 35. अपनी इन्द्रियों को वश उपदेश से प्रभावित हो राजा ने आदेश दिया कि नगर में जो भी अत्यन्त में रखने वाला व्यक्ति ही गृहस्थ धर्म के पालन करने योग्य है।"१४ गरीब लोग हैं, उनको राज्य की ओर से वस्त्र और खाद्य-सामग्री प्रदान वस्तुतः इस समग्र चर्चा में आचार्य हेमचन्द्र ने एक योग्य की जाये।१३ नागरिक के सारे कर्तव्यों और दायित्वों का संकेत कर दिया है और इस इस प्रकार हम देखते हैं कि हेमचन्द्र यद्यपि स्वयं एक मुनि प्रकार एक ऐसी जीवनशैली का निर्देश किया है जिसके आधार पर का जीवन जीते थे किन्तु लोकमंगल और लोकल्याण के लिये तथा निर्धन सामंजस्य और शान्तिपूर्ण समाज का निर्माण किया जा सकता है। इससे जनता के कष्ट दूर करने के लिये वे सदा तत्पर रहते थे और इसके लिये यह भी फलित होता है कि आचार्य हेमचन्द्र सामाजिक और पारिवारिक राजदरबार में भी अपने प्रभाव का प्रयोग करते थे। जीवन की उपेक्षा करके नहीं चलते, वरन वे उसे उतना ही महत्त्व देते हैं जितना आवश्यक है और वे यह भी मानते हैं कि धार्मिक होने के लिये समाजशास्त्री हेमचन्द्र एक अच्छा नागरिक होना आवश्यक है। स्वयं मुनि होते हुए भी हेमचन्द्र पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की सुव्यवस्था के लिये सजग थे। वे एक ऐसे आचार्य थे जो हेमचन्द्र की साहित्य साधना१५ जनसाधारण के सामाजिक जीवन के उत्थान को भी धर्माचार्य का हेमचन्द्र ने गुजरात को और भारतीय संस्कृति को जो महत्त्वपूर्ण आवश्यक कर्त्तव्य मानते थे। उनकी दृष्टि में धार्मिक होने की आवश्यक अवदान दिया है, वह मुख्यरूप से उनकी साहित्यिक प्रतिभा के कारण शर्त यह भी थी कि व्यक्ति एक सभ्य समाज के सदस्य के रूप में जीना ही है। इन्होंने अपनी साहित्यिक प्रतिभा के बल पर ही विविध विद्याओं सीखे। एक अच्छा नागरिक होना धार्मिक जीवन में प्रवेश करने की में ग्रन्थ की रचना की। जहाँ एक ओर उन्होंने अभिधान-चिन्तामणि, आवश्यक भूमिका है। अपने ग्रन्थ 'योगशास्त्र' में उन्होंने स्पष्ट रूप से अनेकार्थसंग्रह, निघंटुकोष और देशीनाममाला जैसे शब्दकोषों की रचना यह उल्लेख किया है कि श्रावकधर्म का अनुसरण करने के पूर्व व्यक्ति की, वहीं दूसरी ओर सिद्धहेम-शब्दानुशासन, लिङ्गानुशासन, धातुपारायण एक अच्छे नागरिक का जीवन जीना सीखे। उन्होंने ऐसे 35 गुणों का जैसे व्याकरण ग्रन्थ भी रचे। कोश और व्याकरण ग्रन्थों के अतिरिक्त निर्देश किया है जिनका पालन एक अच्छे नागरिक के लिये आवश्यक हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन जैसे अलंकार ग्रन्थ और छन्दोनुशासन जैसे रूप से वांछनीय है। वे लिखते हैं कि - "1. न्यायपूर्वक धन-सम्पत्ति छन्दशास्त्र के ग्रन्थ की रचना भी की। विशेषता यह है कि इन सैद्धान्तिक को अर्जित करने वाला, 2. सामान्य शिष्टाचार का पालन करने वाला, ग्रन्थों में उन्होंने संस्कृत भाषा के साथ-साथ प्राकृत और अपभ्रंश के 3. समान कुल और शील वाली अन्य गोत्र की कन्या से विवाह करने उपेक्षित व्याकरण की भी चर्चा की। इन सिद्धान्तों के प्रायोगिक पक्ष के वाला, 4. पापभीरु, 5. प्रसिद्ध देशाचार का पालन करने वाला, 6. निन्दा लिये उन्होंने संस्कृत-प्राकृत में द्वयाश्रय जैसे महाकाव्य की रचना की है। का त्यागी, 7. ऐसे मकान में निवास करने वाला जो न तो अधिक खुला हेमचन्द्र मात्र साहित्य के ही विद्वान् नहीं थे अपित् धर्म और दर्शन के हो न अति गुप्त, 8. सदाचारी व्यक्तियों के सत्संग में रहने वाला, 9. क्षेत्र में भी उनकी गति निर्बाध थी। दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने माता-पिता की सेवा करने वाला, 10. अशान्त तथा उपद्रव युक्त सत्संग अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका और प्रमाणमीमांसा स्थान को त्याग देने वाला, 11. निन्दनीय कार्य में प्रवृत्ति न करने वाला, जैसे प्रौढ़ ग्रन्थ रचे तो धर्म के क्षेत्र में योगशास्त्र जैसे साधनाप्रधान ग्रन्थ 12. आय के अनुसार व्यय करने वाला, 13. सामाजिक प्रतिष्ठा एवं की भी रचना की। कथा साहित्य में उनके द्वारा रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित समृद्धि के अनुसार वस्त्र धारण करने वाला, 14. बुद्धि के आठ गुणों का अपना विशिष्ट महत्त्व है। हेमचन्द्र ने साहित्य, काव्य, धर्म और दर्शन से युक्त, 15. सदैव धर्मोपदेश का श्रवण करने वाला, 16. अजीर्ण जिस किसी विधा को अपनाया, उसे एक पूर्णता प्रदान की। उनकी इस के समय भोजन का त्याग करने वाला, 17. भोजन के अवसर पर विपुल साहित्यसर्जना का ही परिणाम था कि उन्हें कलिकालसर्वज्ञ की स्वास्थ्यप्रद भोजन करने वाला, 18. धर्म, अर्थ और काम इन तीनों वर्गों उपाधि प्रदान की गयी। का परस्पर विरोध-रहित भाव से सेवन करने वाला, 19. यथाशक्ति साहित्य के क्षेत्र में हेमचन्द्र के अवदान को समझने के लिये अतिथि, साधु एवं दीन-दुःखियों की सेवा करने वाला, 20. मिथ्या- उनके द्वारा रचित ग्रन्थों का किंचित् मूल्यांकन करना होगा। यद्यपि हेमचन्द्र आग्रहों से सदा दूर रहने वाला, 21. गुणों का पक्षपाती, 22. निषिद्ध के पूर्व व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनीय व्याकरण का अपना महत्त्व था, देशाचार और कालाचार का त्यागी, 23. अपने बलाबल का सम्यक् ज्ञान उस पर अनेक वृत्तियाँ और भाष्य लिखे गए, फिर भी वह विद्यार्थियों के
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________ 692 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ लिये दुर्बोध ही था। व्याकरण के अध्ययन की नई, सहज एवं बोधगम्य जाने के उद्देश्य का पता चला तो, न केवल वे पाटण से प्रस्थान कर प्रणाली को जन्म देने का श्रेय हेमचन्द्र को है। वह हेमचन्द्र का ही प्रभाव गए अपितु उन्होंने अपने शिष्य को अध्यात्म साधना से विमुख हो था कि परवर्तीकाल में ब्राह्मण परम्परा में इसी पद्धति को आधार बनाकर लोकैषणा में पड़ने का उलाहना भी दिया और कहा कि लौकिक प्रतिष्ठा ग्रन्थ लिये गए और पाणिनि के अष्टाध्यायी की प्रणाली पठन-पाठन से अर्जित करने की अपेक्षा पारलौकिक प्रतिष्ठा के लिये भी कुछ प्रयत्न करो। धीरे-धीरे उपेक्षित हो गयी। हेमचन्द्र के व्याकरण की एक विशेषता तो जैनधर्म की ऐसी प्रभावना भी जिसके कारण तुम्हारा अपना आध्यात्मिक यह है कि आचार्य ने स्वयं उसकी वृत्ति में कतिपय शिक्षा-सूत्रों को उद्धृत विकास ही कुंठित हो जाय तुम्हारे लिये किस काम की? कहा जाता है किया है। उनके व्याकरण की दूसरी विशेषता यह है कि उनमें संस्कृत कि गुरु के इस उलाहने से हेमचन्द्र को अपनी मिथ्या महत्त्वाकांक्षा का के साथ-साथ प्राकृत के व्याकरण भी दिये गए हैं। व्याकरण के समान बोध हुआ और वे अन्तर्मुख हो अध्यात्म साधना की ओर प्रेरित हुए।१६ ही उनके कोशग्रन्थ, काव्यानुशासन और छन्दानुशासन जैसे साहित्यिक वे यह विचार करने लगे कि मैंने लोकैषणा में पड़कर न केवल अपने सिद्धान्त-ग्रन्थ भी अपना महत्त्व रखते हैं। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित और आपको साधना से विमुख किया अपितु गुरु की साधना में भी विघ्न डाला। परिशिष्ट पर्व के रूप में उन्होंने जैनधर्म की पौराणिक और ऐतिहासिक पश्चाताप की यह पीड़ा हेमचन्द्र की आत्मा को बराबर कचोटती रही जो सामग्री का जो संकलन किया है, वह भी निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है। यहाँ इस तथ्य की सूचक है कि हेमचन्द्र मात्र साहित्यकार या राजगुरु ही नहीं उनकी योग शास्त्र, प्रमाणमीमांसा आदि सभी कृतियों का मूल्यांकन सम्भव थे अपितु आध्यात्मिक साधक भी थे। नहीं है, किन्तु परवर्ती साहित्यकारों द्वारा किया गया उनका अनुकरण इस वस्तुत: हेमचन्द्र का व्यक्तित्व इतना व्यापक और महान है कि बात को सिद्ध करता है कि उनकी प्रतिभा से न केवल उनका शिष्यमण्डल उसे समग्रत: शब्दों की सीमा में बाँध पाना सम्भव नहीं है। मात्र यही नहीं, अपितु परवर्ती जैन या जैनेतर विद्वान् भी प्रभावित हुए। मुनि श्री उस युग में रहकर उन्होंने जो कुछ सोचा और कहा था वह आज भी पुण्यविजयजी ने हेमचन्द्र की समग्र कृतियों का जो श्लोक-परिमाण दिया प्रासंगिक है। काश! हम उनके महान् व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर हिंसा, है, उससे पता लगता है कि उन्होंने दो लाख श्लोक-परिमाण साहित्य वैमनस्य और संघर्ष की वर्तमान त्रासदी से भारत को बचा सकते। की रचना की है जो उनकी सृजनधर्मिता के महत्त्व को स्पष्ट करती है। साधक हेमचन्द्र सन्दर्भ हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि एक महान् साहित्यकार और 1. हेमचन्द्राचार्य (पं० बेचरदास जीवराज दोशी), पृ० 123. प्रभावशाली राजगुरु होते हुए भी मूलत: हेमचन्द्र एक आध्यात्मिक साधक 2. आचार्य हेमचन्द्र (वि० भा० मुसलगांवकर), पृ० 191. थे। यद्यपि हेमचन्द्र का अधिकांश जीवन साहित्य-सृजन के साथ-साथ 3. देखें : महादेवस्तोत्र (आत्मानन्द सभा, भावनगर), पृ० 1-16 गुजरात में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार तथा वहाँ की राजनीति में अपने प्रभाव महादेवस्तोत्र, पृ० 44. को यथावत् बनाये रखने में बीता, किन्तु कालान्तर में गुरु से उलाहना योगशास्त्र, 2/9. पाकरहेमचन्द्र की प्रसुप्त अध्यात्मनिष्ठा पुन: जाग्रत् हो गई थी। कुमारपाल 6. वही, 2/10. ने जब हेमचन्द्र से अपनी कीर्ति को अमर करने का उपाय पूछा तो उन्होंने 7. वही, 2/13. दो उपाय बताए- 1. सोमनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्वार और 2. समस्त 8. वही, 1/40. देश को ऋणमुक्त करके विक्रमादित्य के समान अपना संवत् चलाना। 9. हेमचन्द्राचार्य, पृ० 53-56. कुमारपाल को दूसरा उपाय अधिक उपयुक्त लगा किन्तु समस्त देश को 10. देखें : महावीरचरित्र (हेमचन्द्र), 65-75 (कुमारपाल के सम्बन्ध ऋणमुक्त करने के लिये जितने धन की आवश्यकता थी, उतना उसके में महावीर की भविष्यवाणी). पास नहीं था, अत: उसने गुरु हेमचन्द्र से धन-प्राप्ति का उपाय पूछा। 11. योगशास्त्र, 2/84-85. इस समस्या के समाधान हेतु यह उपाय सोचा गया कि हेमचन्द्र के गुरु 12. हेमचन्द्राचार्य, पृ० 77. देवचन्द्रसूरि को पाटन बुल वाया जाए और उन्हें जो स्वर्णसिद्धि विद्या प्राप्त 13. वही, पृ० 101-104. है उसके द्वारा अपार स्वर्णराशि प्राप्त करके समस्त प्रजा को ऋणमुक्त 14. योगशास्त्र, 1/47-56. किया जाए। राजा, अपने प्रिय शिष्य हेमचन्द्र और पाटन के श्रावकों के 15. देखें : आचार्य हेमचन्द्र (वि०भा० मुसलगांवकर), अध्याय 7. आग्रह पर देवचन्द्रसूरि पाटण आए किन्तु जब उन्हें अपने पाटण बुलाए 16. हेमचन्द्राचार्य, पृ० 13-178. 5. वागा -