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प्राचार्य श्री हस्ती R) व नारी-जागृति
- डॉ० कुसुमलता जैन
आचार्य श्री हस्ती न सिर्फ सम्पूर्ण व्यक्तित्व थे, न सिर्फ संस्था, न सिर्फ एक समाज के प्रतीक, न सिर्फ एक समाज के या संघ के कर्णधार, न सिर्फ संघनायक, न सिर्फ जैन समाज के पथ-प्रदर्शक बल्कि बे सम्पूर्ण समाज, एक युग, मानवता के मसीहा, करुणासागर थे। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ, त्यागमय, अहिंसक मार्ग का चयन कर गरीब-अमीर, जैन-जैनेतर, हिन्दू-मुसलमान, सिक्ख-ईसाई सभी को शान्तिपथ का अनुसरण करने का तरीका समझा दिया। उन्होंने जैन भागवती दीक्षा दस वर्ष की अल्पावस्था में ग्रहण कर अपने गुरु आचार्य श्री शोभाचन्दजी म. सा. का आशीर्वाद एवं स्नेह-सिंचन प्राप्त कर स्व जीवन की शोभा निखार दी। अपनी गुरु-परम्परा 'रत्न वंश' में आप एक रत्न की तरह सुशोभित हो गए।
आचार्य श्री ने आचरण एवं चारित्र जैन-विधि का पाला परन्तु समन्वयपरक जीवन जीकर प्राणी मात्र के सम्मुख एक आदर्श कायम किया, जीवन के अन्तिम काल में निमाज को भी पाबन कर दिया, क्योंकि वह उनकी जन्मस्थली पीपाड़ के निकट है। पीपाड़ (राज.) निमाज ठिकाने (जोधपुर) के अन्तर्गत आता है अतः गुरुदेव ने निमाज में संलेखना-संथारा एवं संध्या समय पर नमाज भी पढ़ ली। आपने अपने ठिकानेदार के प्रति भी अपना स्नेह, वात्सल्य, कृतज्ञता, सहिष्णुता, सम्मान अभिव्यक्त कर सामञ्जस्य एवं भाईचारे की अभिव्यक्ति की। जिससे सभी के हृदयों में करुणा की लहरें हिलोरें लेने लगीं, निमाज एक तीर्थ बन गया, जहाँ न सिर्फ जैन या हिन्दू नतमस्तक हैं बल्कि वहाँ का हर मुसलमान भी तीर्थयात्री है, पावन हो गया है क्योंकि उसने गुरुदेव की अमृतवाणी का पान किया है। ऐसी अमृतवाणी जिसके लिए कई लोग तरसते हैं, जिसे उसे पान करने का सुअवसर प्राप्त हो जाता है, वह धन्य हो जाता है ।
__ आपमें अपूर्व तीव्र मेघाशक्ति, आदर्श विनम्रता, सेवा भावना, संयम साधना और विद्वत्ता थी। किशोरावस्था में ही इतने गुण भण्डार कि मात्र सोलह वर्ष की अल्पवय में प्राचार्य पद हेतु मनोनीत किया जाना आचार्य श्री की गुणवत्ता का प्रतीक है । मात्र बीस वर्ष की वय में, जबकि युवावस्था की दहलीज
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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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पर पैर रक्खा ही था कि आप संवत् १९८७ वैशाख शुक्ला तृतीया को जोधपुर में चतुर्विध संघ की साक्षी में आचार्य पद पर आरूढ़ किए गए। आप ६१ वर्ष तक आचार्य पद को कुशलतापूर्वक निर्वहन करते रहे । आचार्य पद पर इतना वृहदकाल निर्बहन करने वाले वर्तमान युग में आप एक मात्र प्राचार्य थे। आपके शासनकाल में ८५ दीक्षाएँ हुईं जिनमें ३१ संतगणों की तथा ५४ सतीद की। आपने संयमकाल में ७० चातुर्मास किए जिनमें से सर्वाधिक जोधपुर में ११ चातुर्मास सम्पादित किए। यह एक सुखद संयोग जोधपुरवासियों को प्राप्त हुआ कि मृत्युंजयी प्राचार्य के जीवनोपरान्त व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रथम गोष्ठी एवं प्रथम चातुर्मास का सुअवसर भी जोधपुरवासियों को प्राप्त हुआ। आचार्य पद पर हीरा मुनि का प्रथम चातुर्मास भी आप भाग्यशालियों को उपलब्ध हुआ, आप भी नाम और कर्म से हीरा ही हैं। 'यथा नाम तथा गुण' उक्ति को सार्थक कर रहे हैं।
आचार्य श्री हस्ती गुरु के सिर से पितृ का वरदहस्त जन्म-पूर्व ही उठ गया था अतः आपने माता-पिता का सम्पूर्ण प्यार माता रूपादेवी से ही प्राप्त किया। आपने माता की कर्मठता, धर्मपरायणता, सहिष्णुता, सच्चाई और ईमानदारी को अपने जीवन में धारण किया। प्राचार्य श्री सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज थे अतः आपको समाज की प्रत्येक दुःखती रग का अच्छा ज्ञान था। आपने समाज की प्रत्येक कमजोर रग का जीवनपर्यन्त इलाज किया। समाज जात-पात, छुवाछूत, ऊँच-नीच की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। समाज बाल-विवाह, मृत्यु भोज, पर्दाप्रथा, अंध-विश्वास आदि मिथ्या मान्यताओं से त्रस्त था। शिक्षा की कमी और कुरीतियों के कारण नारी की स्थिति बड़ी दयनीय थी। आपने नारी की अशिक्षा, अज्ञानता और सामाजिक स्थिति को सुधारा । नारी यदि शिक्षित और संस्कारवान होती है तो पूरा परिवार संस्कारित होता है । सुपुत्र यदि एक कुल की शोभा, कुल-दीपक है तो नारी दो कुलों की शोभा है, दो कुलों का उजियारा है, अतः आचार्य श्री ने नारी शिक्षा पर विशेष बल दिया। नारी जागृति के बिना समाज अधूरा ही नहीं, अपूर्ण है। अतः आचार्य श्री ने व्यावहारिक शिक्षा के साथ-साथ धार्मिक शिक्षण पर बल दिया । आपने महिलाओं को सामायिक-स्वाध्याय करने की प्रेरणा प्रदान की। व्यावहारिक ज्ञान के बिना जीवन रिक्त था तो धार्मिक ज्ञान के बिना जीवन शून्य था, अतः आचार्य श्री ने नारी जीवन को पूर्णता प्रदान की। नारी-जागति के लिए आपने श्री अखिल भारतीय महाबीर श्राविका संघ की स्थापना की प्रेरणा प्रदान की। महावीर श्राविका संघ द्वारा 'वीर उपासिका' नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन एवं प्रकाशन किया गया। यह महिलाओं की एक सशक्त और आदर्श पत्रिका बनी। प्रति वर्ष श्राविका संघ का अधिवेशन होता। इन अधिवेशनों में प्राभूषणप्रियता, दहेज प्रथा, समाज में बढ़ते प्रदर्शन, आडम्बर,
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________________ * व्यक्तित्व एवं कृतित्व फैशनपरस्ती, मादक द्रव्यों के प्रयोग व शृंगार-प्रसाधनों के विरुद्ध चर्चा एवं संकल्प का आयोजन होता / बाल-संस्कार एवं सादगीपूर्ण जीवन की अच्छाइयों पर प्रकाश डाला जाता। वर्तमान का बालक ही भविष्य का निर्माता है अतः आचार्य श्री का विशेष ध्यान नारी-जागृति पर था। जब भी कभी कोई नवविवाहिता दुल्हन दर्शनार्थ पाती थी तब प्राचार्य श्री उसे विशेष समय व अवसर प्रदान करते थे। उसे स्वाध्याय-सामायिक की प्रेरणा देते, जीवन सुखमयशांतिमय बनाने की विधि समझाते थे-विनय, विवेक, पानी, अग्नि, वनस्पति आदि की यतना के बारे में व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करते थे। आज महिला समाज की जागृति का बहुत कुछ श्रेय आचार्य श्री को जाता है। प्राचार्य श्री ने सामायिक और स्वाध्याय हर सद्-गृहस्थ के लिए आवश्यक बतलाया था। आपने स्वाध्याय का महत्त्व समझाकर सद्गृहस्थ की भटकन को मिटा दिया, व्यक्ति के चित्त को स्थिरता प्रदान की। आपने शास्त्र-वाचन, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि सूत्रों के स्वाध्याय की प्रेरणा प्रदान की। समाज में स्वाध्याय के प्रति रुचि पैदा हुई। आपने इस दिशा में घर-घर अलख जगाई / अतः कहा जाता है 'हस्ती गुरु के दो फरमान / सामायिक स्वाध्याय महान् / ' इसी लक्ष्य को मध्ये नजर रखकर आपने समाज के विद्वत् वर्ग एवं श्रेष्ठीवर्ग में सामञ्जस्य हेतु प्रेरणा दी जिसके फलस्वरूप 'अखिल भारतीय जैन विद्वत् परिषद्' की स्थापना सन् 1978 में आपके इन्दौर चातुर्मास में हुई। इसमें महिलाओं को भी जोड़ा गया है। समाज की परित्यक्ता, गरीब और विधवा महिलाओं की सहायतार्थ एक व्यापक योजना जोधपुर में क्रियान्वित की गई है। आज आचार्य श्री की प्रेरणा से अनेक संस्थाएँ चल रही हैं। आपको समाज के सर्वांगीण विकास और प्रत्येक समस्या के निराकरण का पूरा ध्यान था, इसीलिए आप एक युगद्रष्टा महामनीषी संत के रूप में सदा स्मरण किये जाते रहेंगे। -1/17, महेश नगर, इन्दौर (म. प्र.) नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में / पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में / ---जयशंकर प्रसाद Jain Educationa international For Personal and Private Use Only