Book Title: Aaj ke Yuga me Mahavir ki Prasangikta
Author(s): Rikhabraj Karnavat
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाज के युग में महावीर की प्रासंगिकता 0 रिखबराज कर्णावट, एडवोकेट संसार अभाव, अन्याय व अज्ञान तीन मुख्य बुराइयों से ग्रस्त है । सभी मनुष्यों को रोटी, कपड़ा व छप्पर उपलब्ध नहीं है। हमारे देश भारत में गरीबी की रेखा, जो सरकार ने मान्य की है, उससे नीचा जीवनस्तर बिताने वालों की संख्या बहुत अधिक है। कहना न होगा कि चुनावों के समय व साधारण अवस्था में भी हमारे राजनेता यह कहते नहीं थकते कि वे योजनाओं द्वारा सर्वसाधारण को उनकी जीवन जरूरत रोटी, कपड़ा व मकान की समस्या को शीघ्र हल करेंगे। इस आशा से लोग तथाकथित नेताओं को अपना वोट देकर प्रतिनिधि चुन लेते हैं। वैसे प्रतिनिधि पंचायत, राज्यसरकारों व केन्द्र सरकार में पहुँच कर सर्वसाधारण जनता को यह कहना शुरु कर देते हैं कि उनके पास जादुई चिराग नहीं है, अपने को ऊँचा उठाने के लिए जनता को कठिन परिश्रम करना होगा और धीरजपूर्वक अपने सपने (नेताओं के वादे) साकार करने की आशा रखनी होगी। हाँ, नेता लोग अपना घर धनमाल व ऐशो-आराम की चीजों से लबालब भर लेते हैं और एक नई जाति (सम्पन्न) के रूप में उभर जाती है। अपने परिवार व सगे सम्बन्धियों को भी निहाल कर देते हैं। पुनः चुनाव आने पर एक दिन के लिए सर्वसाधारण को जनता-जनार्दन कहकर उनकी आरती उतारते हैं। लोग भी उस रोज अपने को राजा समझने लगते हैं। जैसे रामलीला में गरीब ब्राह्मण का लड़का भगवान् रामचंद्र का रूप धारण कर सिंहासन पर टांग पर टांग रखकर सजधज के साथ बैठकर आरती उतरवाता है। रामलीला की उस रात की समाप्ति पर टूटी खाट पर या प्रांगन पर सोकर सुबह चरी लेकर पाटा मांगने निकल जाता है। यही हाल हमारे आज के प्रजातन्त्र में आम जन का है । वे मात्र रामलीला के राजा हैं। फिर वैसे ही जैसे पहले थे, बल्कि प्रभाव दूर होने के बदले उनका प्रभाव और बढ़ जाता है। शोषणकर्ताओं में जनप्रतिनिधियों की भारी भरकम संख्या जुड़ जाती है। योजनाएँ अभावग्रस्त लोगों के अभाव दूर करने के लिए बनाई जाती हैं जिसमें योजनाकारों व उनके अमले में काफी व्यय हो जाता है। फिर क्रियान्विति, जिन अफसरों, बाबुओं या तथाकथित जनप्रतिनिधियों के मार्फत होती है, एक बड़ा हिस्सा कानूनी व गैरकानूनी तौर पर उनके पेट में समा जाता है । अभावग्रस्त लोग तो पूर्ववत् व वसूली के समय पूर्व हालत से बदतर हालत में चले जाते हैं । भोगप्रधान संस्कृति में अधिक उपभोग अथवा संग्रह करने वाले भी प्रभाव को समाज में बढ़ाते हैं , यद्यपि वे स्वयं भी अन्ततोगत्वा अनेक प्रकार के दु:ख भोगते हैं। इसका निदान भगवान महावीर ने संसार को अपरिग्रह का सिद्धान्त जीवन में प्रयोग किए जाने के पश्चात अनुभवसिद्ध करके प्रतिपादित किया। अपनी आवश्यकताओं को कम से कम कर उत्पादित वस्तुओं का उपयोग करने का सफल प्रयोग किया। उनके जीवनकाल में धम्मो दीवो धन संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ खण्ड / २०२ चौदह हजार साधु व छत्तीस हजार साध्वियाँ सम्पूर्ण रूप से परिग्रह के त्यागी बने तो लाखों श्रावक श्राविकाओं ने परिग्रह की मर्यादा की। आज भी महावीर को मानने वाले हजारों साधु साध्वी स्वयं अपरिग्रही हैं। किन्तु उनके तथाकथित श्रावक श्राविकायें इस सिद्धान्त को केवल शाब्दिक नारों से तो मानती हैं, पर वस्तुतः वे परिग्रह में अधिक से अधिक उलझने व भोगउपभोग की सामग्री अधिक से अधिक अन्य समाजों की भांति इकट्ठी करने में लगे हुए हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि अपरिग्रही साधु साध्वी भी इन सेठ साहूकारों के घेरों में प्रविष्ट होने लगे हैं । अप्रत्यक्ष रूप में उन ऐश्वर्यशाली व्यक्तियों को जिनमें धनाढ्य, राजनेता व इनके दलाल कार्यकर्तागण को शह दे रहे हैं और बदले में उन लोगों से जयजयकार करवा कर वाहवाही पाते हैं। जो भी हो महावीर के इस सिद्धान्त पर आधारित योजना ही प्रभाव को दूर कर सम-वितरण में कारगर हो सकती है। आज की राशन-प्रणाली व अनेक प्रकार के नियन्त्रण सम-वितरण के लिए बने हैं। किन्तु वे व्यक्ति की स्वयं इच्छा से नहीं, शासन व कानून के दबाव से हैं। इसीलिए वे अधिकांश असफल रहते हैं। महावीर का सिद्धान्त स्वेच्छा से होने के कारण जितना ग्रहण किया जाता है प्रायः पूर्ण सफल रहता है। वर्तमान काल की दूसरी बड़ी बुराई अन्याय की है। सबल अपने स्वार्थ में अन्धे होकर निर्बलों के परिश्रम के फल को हथियाने में लगे हुए हैं, निर्बल इसे मजबूरी से सहन करते हैं । सबलों की पूरी व्यवस्था निर्बलों को पशु व निर्जीव मानने की बनी हुई है। उनके मन में निर्बलों के प्रति कुछ हया-दया भी नहीं है। निर्बलों के पास शक्ति नहीं कि वे सबलों के पाशविक बल का मुकाबला कर सकें। इस स्थायी (सामाजिक एवं व्यक्तिगत) अन्याय के प्रतीकार के लिए महावीर ने अहिंसा का व्यावहारिक दर्शन संसार को दिया। महात्मा गांधी ने अहिंसा को एक अमोघ अस्त्र के रूप में प्रयोग किया व सिद्धि प्राप्त की। अहिंसा का दर्शन अन्याय करने वाले को अन्याय करने से बचाता है तथा अन्याय सहने वाले को शक्तिशाली बनाकर प्रतीकार का अवसर देता है, अतः यह दोनों के लिये हितकर एवं कल्याणकारी है। अहिंसा की साधना करने वाला व्यक्ति निर्वैर हो जाता है। वह अहिंसा की शक्ति को पाकर निर्भय भी हो जाता है। महावीर के इस अहिंसा के सिद्धान्त का इतना व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ कि बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सेठ सामन्त, ब्राह्मण, किसान व अछत समझे जाने वाले लोगों ने महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। मानवीय गुणों को विकसित किया। यहाँ तक कि प्राणिमात्र को हिंसा से दूर रहकर उन लोगों ने प्रेम, करुणा व शान्ति का साम्राज्य स्थापित करने की अोर प्रयाण किया । आज विश्व भर में यह मान्यता घर कर रही है कि अन्याय व उत्पीड़न से मुक्ति पाने का अहिंसा ही एकमात्र प्रभावी अस्त्र है। तीसरी बुराई जो व्याप्त है वह अज्ञान की है। वैसे देखा जाय तो ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और ज्ञान एवं प्रज्ञान की मध्यरेखा भी इतनी क्षीण होती है कि ज्ञान को अज्ञान और अज्ञान को ज्ञान भाषित किया जाता है। सीधी और सरल परिभाषा करें तो सत्य का साक्षात्कार करना ज्ञान है । सत्य शाश्वत है। सत्य अनन्त है । सत्य का साक्षात्कार किये जाने पर भी उसका प्रतिपादन केवल प्रांशिक रूप में ही किया जा सकता है। कोई सत्यद्रष्टा किसी सत्यांश का प्रतिपादन अपेक्षित समझता है तो कोई अन्य किसी अन्य सत्यांश का । शब्द में इतनी शक्ति नहीं कि सत्य के सभी पर्यायों का कथन कर सके । यही कारण है कि भिन्न-भिन्न सत्यांश हमारे सामने आते हैं। वे सत्यांश कभी-कभी अज्ञान बन जाते हैं जब उन्हें पूर्ण सत्य Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज के युग में महावीर की प्रासंगिकता | 203 मानकर अन्य सत्यांशों पर विचार नहीं करने का आग्रह हो जाता है। वस्तु के अनेक स्वरूपों में से किसी एक ही स्वरूप को सही मान बैठना ज्ञान नहीं प्रज्ञान है। इसी प्रज्ञान के कारण संसार में वाद पैदा होते हैं जो कदाग्रह के कारण बनते हैं। महावीर ने इन कदाग्रहों व झगड़ों को मिटाने के लिए "अनेकान्त" का विचार दिया है। उन्होंने बताया कि अपेक्षाकृत किसी सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर झगड़ना अज्ञान है। जैन वाङमय के एक कथानक में छह अन्धे प्रादमियों द्वारा हाथी के भिन्न-भिन्न अवयवों को स्पर्श कर हाथी की भिन्न-भिन्न कल्पना कर ली। किसी ने हाथी के दांत छकर उसे लकड़ी जैसा, किसी ने उसकी पूछ छूकर रस्सी जैसा, किसी ने टांग छकर खम्बे जैसा, किसी ने कान छुकर सूप जैसा, किसी ने सुंड छु कर साँप जैसा, और किसी ने पेट छकर दोवार जैसा बताया। आपस में झगड़ते रहे और एक दूसरे को झूठा कहते रहे। हाथी के एक अंग को ही हाथी समझा। सूझते आदमी ने बताया कि वे सभी आंशिक रूप से सही होने पर भी हाथी की जानकारी नहीं पा सके। यही हालत आज के संसार में व्याप्त है। अपनी-अपनी सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक मान्यताओं को लेकर लोग झगड़ रहे हैं। अनेकान्त की दृष्टि अपनायी जाय तो कलह व कदाग्रह के स्थान पर प्रेम व शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो जाय / अनेकान्त की दृष्टि से परस्पर सहयोग, सहकारिता, सद्भाव, उत्पन्न होता है जिससे विरोधी दिखने वाले तत्त्वों में भी सहअस्तित्व एवं एकता की भावना प्रकट होती है / अनेकांत के सिद्धांत को प्रतिपादित कर महावीर ने अज्ञान के अन्धकार को दूर करने का एक सबल अस्त्र संसार को प्रदान कर दिया। और अज्ञान से हटा कर ज्ञान की ओर अग्रसर होने का मार्ग बताया। इस प्रकार भगवान महावीर ने संसार में व्याप्त तीन बड़ी बुराइयों-अभाव, अन्याय व अज्ञान को दूर करने के लिए अपरिग्रह, अहिंसा व अनेकांत के अमोघ अस्त्र प्रदान किए। महावीर की यह देन अनोखी है, इसकी पालना से ही उपरोक्त बुराइयों का पलायन संभव हो सकता है। इसीलिए महावीर की प्रासंगिकता आज के सन्दर्भ में भी अविछिन्न रूप में है। ---448 रोड, सी, सरदारपुरा जोधपुर-३ (राजस्थान) 00 धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है