Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६वीं शताब्दी का अचित हिन्दो-कवि ब्रह्म गुणकोति
-डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल
संवत् १५०१ से १६०० तक के काल को हिन्दी साहित्य के इतिहास में दो भागों में विभक्त किया गया है। मिश्रबन्ध विनोद मे १५६० तक के काल को आदि काल माना है तथा संवत् १५६१ से आगे वाले काल को अष्टछाप कवियों के नाम से सम्बोधित किया है । रामचन्द्र शुक्ल ने भी इस काल को अष्टछाप नामकरण दिया है। लेकिन यह काल भक्ति युग का आदि काल था। एक ओर गुरु नानक एवं कबीर जैसे सन्त कवि अपनी कृतियों से जन-जन को अपनी ओर आकृष्ट कर रहे थे तो दूसरी ओर जैन कवि अपनी कृतियों के माध्यम से जन-जन में अर्हद भक्ति, पूजा एवं प्रतिष्ठाओं का प्रचार कर रहे थे। समाज में भट्टारक परम्परा की नींव गहरी हो रही थी। जगह-जगह उनकी गादियां स्थापित हो रही थीं। भट्टारक एवं उनके शिष्य अपने आप को भट्टारक के साथ-साथ आचार्य, उपाध्याय, मुनि एवं ब्रह्मचारी सभी नामों से सम्बोधित करने लगे थे। साथ ही, संस्कृत के साथ-साथ राजस्थानी एवं हिन्दी भाषा को भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना रहे थे । देश पर मुसलमानों का राज्य था, जो अनी प्रजा पर मनमाने जुल्म ढां रहे थे। ऐसी स्थिति में भी भट्टारकों एवं उनके शिष्यों ने समाज के मानस को बदलने के लिए लोक भाषा में छोटे-बड़े रास काव्यों, पद एवं स्तवनों का निर्माण किया । इन १०० वर्षों में होने वाले पचासों हिन्दी जैन कवियों में निम्न कवियों के नाम विशेषतः उल्लेखनीय
१. ब्रह्म जिनदास
संवत् १४६० से १५२० २. ब्रह्म बूचराज
संवत् १५३० से १६०० तक ३. छोहल
संवत् १५७५ से ४. ठक्कुरसं
संवत् १५२० से १५६० __ चतरूमल
संवत् १५७१ से गारवदास
संवत् १५८१ से धर्मदास
संवत् १५७८ ८. आचार्य सोमकीर्ति
संवत् १५१८ से ३६ तक १. कविवर सांगु
संवत् १५४० १०. ब्रह्म गुणकीति
संवत् १४६० से १५५० ११. ब्रह्म यशोधर
संवत् १५२० से १५८५ उक्त ग्यारह कवियों को १६ वीं शताब्दी का प्रतिनिधि कवि कहा जा सकता है। इन कवियों ने अपनी अनगिनत रचनाओं के माध्यम से देश में जो साहित्यिक एवं सांस्कृतिक जागृति पैदा की वह इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में सदा अंकित रहेगी। ब्रह्मचारी जिनदास' तो महाकवि थे जिन्होंने राजस्थानी भाषा में ७० से भी अधिक रचनायें लिख कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। इनका अकेला रामरास ही ब्रह्म जिनदास के व्यक्तित्व को महान् बनाने के लिये पर्याप्त है। इसी तरह छीहल', ठक्कुरसी एवं बूच राज मे अपनी विभिन्न कृतियों के माध्यम से राजस्थानी साहित्य को नया रूप प्रदान किया एवं इसमें पंच पहेली गति, कायणजुज्झ, चेतन पुद्गल धमाल, पंचेन्द्रिय वेलि जैसी कृतियां निबद्ध करके इसे लोकप्रिय बनाने में अपना पूर्ण योगदान दिया।
१. देखिये, “महाकवि ब्रह्म जिनदास-व्यक्तित्व एवं कृतित्व" -डॉ. प्रेमचंद रॉका, प्रकाशक -श्री महावीर अन्य प्रकावमी, जयपुर। २. देखिये "कविवर दूधराज एवं इनके समकालीन करि" -डॉ. कस्तुरचंद कासलीवाल, प्रकाशक-वही ।
१४७
जैन साहित्यानुशीलन
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य सोमकीर्ति अपने समय के प्रभावशाली भट्टारक एवं राजस्थानी मनीषी थे, जिन्होंने दो बड़ी एवं पांच छोटी रचनायें निबद्ध की थीं। ब्रह्म यशोधर का समस्त जीवन ही साहित्य सेवा के लिये समर्पित था।' इन्होंने चुपई संज्ञक काव्य लिखा, नेमिनाथ, वासपूज्य एवं अन्य तीर्थंकरों के स्तुतिपरक गीत लिखे । ये सभी कवि जैन साहित्य के तो जगमगाते नक्षत्र हैं, साथ ही हिन्दी के भी जाज्वल्य तारागण हैं।
ब्रह्म गूणकीर्ति १६ वीं शताब्दी के ऐसे सन्त कवि हैं जिनके सम्बन्ध में साहित्यिक जगत् अभी तक अनजान-सा है। राजस्थानी विदोते हुए भी उनकी साहित्यिक सेवायें उपेक्षित बनी हुई हैं । प्रस्तुत लेख में उन्हीं के सम्बन्ध में परिचय दिया जा रहा है।
ब्रह्म गणकीति महाकवि ब्रह्म जिनदास के कनिष्ठतम शिष्य थे। अपने गुरु के अन्तिम समय में ये उनके सम्पर्क में आये ये अपनी अदभत काव्य-प्रतिभा के कारण अल्प समय में ही उन्होंने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था। स्वयं ब्रह्म गणकीर्ति ने अपने गुरु का निम्न प्रकार स्मरण किया है
श्री ब्रह्मचार जिणदास तु, परसाद तेह तणो ए।
मनवांछित फल होइ तु, बोलीइ किस्यु घणु ए॥ कविवर ब्रह्म गुणकीति की अभी तक एक ही कृति हमारे देखने में आई है, और वह है 'रामसीता रास' जो एक लघु प्रबन्ध पित कति के अतिरिक्त कवि ने और कितनी कृतियां निबद्ध की थीं इसके सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता किन इनकी काव्य-प्रतिभा को देखते हुए इनकी और भी कृतियां होनी चाहिए। ब्रह्म जिनदास ने सम्वत् १५०८ में विशालकाय
की रचना की थी लेकिन उस युग में पाठकों की रामकथा के अध्ययन की ओर विशेष रुचि थी इसलिये ब्रह्म गुणकीति को लष रूप में 'रामसीतारास' को निबद्ध करना पड़ा।
रामसीतारास' एक खण्ड काव्य है जिसमें राम और सीता के जन्म से लेकर लंका विजय के पश्चात् अयोध्या प्रवेश एवं मिलेक तक की घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इसमें १२ ढालें हैं जो ११ अध्यायों का काम करती हैं। जैन कवियों ने
काल में अपनी सभी काव्यकृतियों में इसी परम्परा को निभाया था। 'रामसीतारास' एक गीतात्मक काव्य है जिसकी ढालों को गा करके पाठकों को सुनाया जाता था।
समय
प्रस्तत काव्य का रचना-काल तो मिलता नहीं जिससे स्पष्ट रूप से किसी तथ्य पर पहुंचा जा सके लेकिन ब्रह्म जिनदास यि होने के कारण 'रामसीतारास' की रचना संवत् १५४० के आसपास होनी चाहिए । जिस गुटके में 'रामसीतारास' का संग्रह किया सावन भी संवत १५८५ का लिखा हुआ है। इसके अतिरिक्त ब्रह्म जिनदास का संवत् १५२० तक का समय माना जाता है। प्रस्तुत ति उनकी मत्यु के पश्चात् की रचना होने के कारण इसका संवत् १५४० का ही समय उचित जान पड़ता है । इस तरह प्रस्तुत कृति के मआधार पर ब्रह्म गुणकीति का समय भी संवत् १४९० से १५५० तक का निर्धारित किया जा सकता है।
भाषा
रास की भाषा राजस्थानी है । यद्यपि गुजरात के किसी प्रदेश में इसकी रचना होने के कारण इस पर गुजराती शैली का प्रभाव भी स्पष्ट दष्टिगोचर होता है लेकिन क्रियापदों एवं अन्य पदों को देखने से यह तो निश्चित ही है कि कवि को राजस्थानी भाषा से अधिक लगाव था। विचारीउ (विचार कर), मांडीइ (मांडे), आवीमाये (आये), मानकी (जानकी), घणी (बहुत), पाणी (हाथ), आपणा (अपना), घालपि (डालना), जाणुए, बोलए, लीजइ, वापडी जैसे क्रियापदों एवं अन्य शब्दों का प्रयोग हुआ है।
-डॉ० कासलीवाल, प्रकाशक-वही।
१. देखिये "माचार्य सोमकीर्ति एवं ब्रह्म यशोधर" २. -वही-, पृष्ठ संख्या १५६.
१४८
आचार्य रत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
,
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________ सामाजिक स्थिति 'रामसीतारास' छोटी-सी राम-कथा है / कथा कहने के अतिरिक्त कवि को अन्य बातों को जोड़ने की अधिक आवश्यकता भी नहीं थी। उसके बिना भी जीवन-कथा को कहा जा सकता था लेकिन कवि ने जहां भी ऐसा कोई प्रसंग आया वहीं पर सामाजिकता का अवश्य स्पर्श किया है। प्रस्तुत रास में रामसीता के विवाह के वर्णन में सामाजिक रीति-रिवाजों का अच्छा वर्णन मिलता है। राम के विवाह के अवसर पर तोरण द्वार बांधे गये थे। मोतियों की बांदरवाल लटकाई गई थी। सोने के कलश रखे गये। गंधर्व एवं किन्नर जाति के देवों ने गीत गाये / सुन्दर स्त्रियों ने लबांछना लिया / तोरण द्वार पर आने पर खूब नाच-गान किये गये / चंवरी के मध्य वरवधु द्वारा बैठने पर सौभाग्यवती स्त्रियों ने बधावा गाया। लगन वेला में पंडितों ने मंत्र पढ़ / हबलेवा किया गया। खूब दान दिया गया।' नगरों का उल्लेख राम, लक्ष्मण एवं सीता जिस मार्ग से दक्षिण में पहुंचे थे उसी प्रसंग में कवि ने कुछ नगरों का नामोल्लेख किया है। ऐसे नगरों में चित्तुड़गढ (चित्तौड़), नालछिपाटण, अरुणग्राम, वंशस्थल, मेदपाट (मेवाड़) के नाम उल्लेखनीय हैं। कवि ने मेवाड़ की तत्कालीन राजधानी चित्तौड़ का अच्छा वर्णन किया है।' लोकप्रियता कवि ने रामकथा की लोकप्रियता, जन सामान्य में उसके प्रति सहज अनुराग एवं अपनी काव्य-प्रतिभा को प्रस्तुत करने के लिये 'रामसीतारास' की रचना की थी। महाकवि तुलसी के सैकड़ों वर्षों पूर्व जैन कवियों ने रामकथा पर जिस प्रकार प्रबन्ध काव्य एवं खण्ड काव्य लिखे वह सब उनकी विशेषता है / जैन समाज में रामकथा की जितनी लोकप्रियता रही उसमें महाकवि स्वयम्भु, पुष्पदन्त, रविषेणाचार्य जैसे विद्वानों का प्रमुख योगदान रहा / तुलसी ने जब रामायण लिखी थी उसके पहिले ही जैन कवियों ने छोटे-बड़े बीसियों रास समाप्ति कवि ने रास समाप्ति पर अपनी लघुता प्रकट करते हुए लिखा है कि रामायण ग्रन्थ का कोई पार नहीं पा सकता / वह स्वयं मतिहीन है इसलिये उसने कथा का अति संक्षिप्त वर्णन किया है। ए रामायण ग्रन्थ तु, एह नु पार नहीं ए। हुँ मानव मतिहीण तु, संखेपि गति कही ए॥ विद्वांस जे नर होउ तु, विस्तार ते करिए। ए राम भास सुणेवि तु, मुझ परि दया धरा ए॥ प्रस्तुत रास में 12 ढालें हैं जो अध्याय का कार्य करती हैं। पूरी ढालों में 207 पद्य हैं जो अलग-अलग भास रागों में विभक्त हैं जिनमें भास श्री ही, भास मिथ्यात्व मोडनी, भास वणजारानी, भास नरेसूवानी, भास सही की, भास तीन चुवीसीनी, भास सहिल्डानी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कवि को चोटक छन्द भी अत्यधिक प्रिय था इसलिये आरम्भ में उसका भी अच्छा प्रयोग किया गया है। इस प्रकार ब्रह्म गुणकीति हिन्दी जैन साहित्य के एक ऐसे जगमगाते नक्षत्र हैं जिनकी राजस्थान, उत्तरप्रदेश, देहली, मध्यप्रदेश एवं गुजरात के दिगम्बर जैन शास्त्र भण्डारों में विस्तृत खोज की आवश्यकता है / आशा है विद्वान मेरे इस निवेदन पर ध्यान देंगे। 1. विदेहा पक्षाणु सीधं, सासू वर पुरवण की। पर चवटी माहि पापा, सोहासणीमि बधाषा // 5 // शुभ वेसा तिहाँ जोड, चरति मंगल सोइ // 6 // सजन दाव मान दीपा, जनम तणां फात लीधा / भाइ बाप होड माणंद, बाध्य धमेनु कन्द // 8 // मरतय सिंह समान भेदपार देण मोई उए, 11/5 2. जैन साहित्यानुशीलन 144